Thursday, 7 August 2014

ग्रंथि का विसर्जन : (नायेदजी)

ग्रंथि का विसर्जन

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बैर से 
नही मिटाया
जा सकता  
बैर को,
प्रतिशोध नहीं
बुझा सकता 
दहकते प्रतिशोध को.

प्रेम का नीर
मिटाता है 
बैर को,
क्षमा का जल
बुझाता है 
प्रतिशोध को.

पुरानी बातें.
पुराने आघात
यदि लातें है हम 
स्मृति में
जन्म जाता है 
प्रतिशोध,
हमारी प्रवृति में 

नही रखतें है हम 
दस साल पुराना 
कॅलंडर घर में
फिर क्यों बातें 
उससे भी पुरानी
आ जाती है 
स्वर में

खंड खंड होता है 
मानव मन
सरोवर की 
शुष्क मिट्टी तुल्य
जहाँ जल समाप्ति पर 
पड़ती है दरारें
बन जाते हैं अगन 
नफ़रत के शरारे.

जिस मन में होती है
कटुता, कलह और
द्वेष की भावना
वह चित होता है क्षुद्र 
प्रेमरहित 
और देता है,
अपने अहम 
और 
क्रोध से
स्वयं और अन्यों को 
प्रताड़ना

इतिहास के पन्नो में 
जहाँ जहाँ भी 
रक्त बहे
प्रतिशोध के बिंब थे 
लहराए,
क्यों ना हम 
जीवन बोध जगाएँ
प्रतिशोध हटा 
प्रेम गंगा बहाएँ.

ग्रंथि का विसर्जन 
होता है
संतुलन,संयम 
और 
साक्षी भाव से
स्वीकरें समग्र को 
और 
जागृत हो,
मुक्त होकर 
हीनत्व प्रभाव से.

(एक जागृत मनीषी के विचारों से प्रेरित)

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