Sunday 19 February 2023

चौथे सेंटर का प्रेम : विदुषी सीरीज़

 विदुषी का विनिमय सीरीज़ 

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चौथे सेंटर का प्रेम 

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[फ़लसफ़े(दर्शन)और नफ़्सियात (मनोविज्ञान) का ताउम्र तालिबे इल्म (विद्यार्थी) ...चीजों को ज़रा अलग ढंग से देखने की फ़ितरत...भुस के ढेर में सुई कहाँ छुपी है यह देख पाने की कुव्वत... इंसानी रिश्तों के मुसल्सल तजुर्बे....बड़े क़िस्से हैं मेरे पास. किरदारों से भी इन्पुट्स हासिल होते रहते हैं....उस पर थोड़ा असली घी मसालों का तड़का. यह दास्तान भी कुछ ऐसी ही है.]

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मीतू को प्लानिंग कमीशन में होना चाहिए था, खूब दिमाग़  चलता था उसका "फूल प्रूफ़ प्लान" बनाने में. हब्बी ज़रा दफ़्तर के काम से कोई दो सप्ताह के लिए मुल्क से बाहर गए हुए थे ऐसे में विदुषी को कोई एडवेंचर प्लान करने की खलबली मच गयी.


नंद से उसकी मुलाक़ात सोसल मीडिया पर हुई थी. दोनों ही शायराना तवियत के थे. ब्लोग्रस जगत में दोनों ही शिरकत करते थे. परिचय का दायरा ज़रा और बढ़ा. दोनों जी टॉक पर चैट करने लगे. फिर फ़ोन नम्बरों का विनिमय हुआ और उसके बाद तो विविध विषयों पर इन'रेक्शन होने लगा. इश्किया कविताएँ सुनी और सुनायी जाने लगी. नंद जार जार रो देता था मीतू की कविताएँ सुनकर और मीतू भी भावुक हो जाती नंद की रिसेप्टिवनेस को देख कर. बड़े दुःख सुख होते दोनों के बीच देर रात तक. म्यूचूअल प्रेज क्लब का उद्घाटन और संचालन परवान चढ़ गया. अरे हाँ, जैसे नंद का नामकरण विदुषी ने किया था वैसे ही विदुषी को नंद ने मीतू नाम दिया ..प्यार में नाम परिवर्तन भी एक आवश्यक स्टेप होता है रेट्रो कल्चर में.  अब हम भी हमारे नायिका और नायक को मीतू और नंद ही कहेंगे.


दोनों  ही अपने फ़ोर्टीज़ में, इसलिए नातजुर्बेकार नहीं. मीतू और नंद के शहरों के बीच कोई overnight journey का अंतर था. इंटर्नेट पर आरम्भ हुए संसर्ग ने रूबरू का रूप ले लिया था. दोनों प्यासे अब एक दूसरे को परोक्ष से प्रत्यक्ष जल सेवा देने लगे थे. करेला और नीम चढ़ा, जब अधूरे ज्ञानियों का मिलन होता है तो ऐसे रिश्तों में लम्बी चौड़ी दार्शनिक बातें भी होती है, ओशो रजनीश की किताब का शीर्षक ज़रा उल्टा हो जाता है समाधि से सम्भोग (Superconsciousness Talks to Sex).....राम से काम. खूब रोमांस और आध्यात्म झड़ता था. यह फ़ेज़ भक्ति और ज्ञान योग के यौगिक का था, इसकी सारी डिटेल्स फिर कभी.


हाँ तो मीतू ने एक पक्का प्लान बना लिया कि दोनों प्रेमी नैनीताल की वादियों में मिलेंगे और प्रकृति की गोद में साथ साथ टाइम स्पेंड करेंगे, घूमेंगे, फिरेंगे...और मौज मस्ती करेंगे. आपसी अंडरस्टेण्डिंग बढ़ाएँगे. 


मीतू को नैनीताल के भूगोल का पता था. इतिहास भी जिया था उसने.  दो तीन दफ़ा वह वहाँ अपने हब्बी जी के साथ आ चुकी थी जिस बेचारे के साथ उसका हर समय ज्वलंत भौतिक और मानसिक कम्पैटिबिलिटी इश्यू था, हालाँकि उसकी कमाई और खर्च पर ठाठ -बाठ से जीने में कोई भी इश्यू नहीं. हर बात के लिए ऊपरा ऊपरी लोजिक और जस्टिफ़िकेशन वह खोज निकाल लेती थी. 


मीतू नंद को लेकर उसी होटेल में जा पहुँची, जहां पिछली ट्रिप में अपने हब्बी जी के साथ ठहरी थी. होटेल्स में आइ.डी. की ज़रूरत उस समय भी होती थी लेकिन आजकल जैसी कड़ाई नहीं थी और फिर विदुषी ओह नो मीतू ठहरी स्मार्ट और वाक चतुर मेनेज कर लिया और पति-पत्नी के तौर पर दोनों उस होटल में चेक इन कर लिए.


नंद निम्न मध्यम सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से था तो मीतू मध्यम से उच्च मध्यम स्तर पर प्रोमोट हो चुकी थी. दोनों के रहन सहन और नज़रिए में काफ़ी फ़र्क़ था. सम्बन्धों के संदर्भ में जहां नंद उतावला और क्रूड था वहाँ मीतू ज़रा स्लो, टेस्टफूल और पोलिश्ड. नंद ठहरा अव्वल दर्जे का 'दूसरी तरह का चालाक',  सो उसने खुद को सरेंडर कर दिया एक सोची समझी रणनीति के तहत ताकि उसके जीवन और बौद्धिक स्तर की कमियाँ कवर अप हो जाए और मीतू का ईगो भी खूब बुस्ट हो सके. नंद की आँख हमेशा अर्जुन की तरह चिड़ियाँ की आँख पर रहती तो मीतू एक वन की चिड़ियाँ बन कर उड़ती रहती. मीतू में गुरुडम का उदय हो गया था उसका inferority complex superiority complex में तब्दील हो गया था. नंद एक आज्ञकारी शागिर्द की तरह ज़ुबानी ज्ञान लेने लगा था और एक समर्पित कमजोर प्रेमी का रोल अदा करने लगा था, जो एक तरह का इंटेलेकचुअल फ़ोर प्ले था. 


चाय के प्यालों से भाप उड़ रही थी. मीतू और नंद सोफ़े पर सट कर बैठे थे. अर्थ तो व्यय हो ही रहा था, स्पर्श काम को जगा रहा था और धर्म व मोक्ष का कोकटेल मीतू साक़ी बन कर अपने भाषण और गेसचर्स के ज़रिए परोस रही थी...जो नंद जैसे छप्पन छेद वाले इंसान में उड़ेलने के साथ साथ ही बाहर बह जाता था.


मीतू कह रही थी : "समान्यत: हम सब तीन सेंटर्स से संचालित होते हैं. आध्यात्मिक उत्थान में चौथा सेंटर ऐक्टिव होता है. वही प्रेम का केंद्र है."

नंद के ख़यालों में बस एक मात्र सेंटर था जिसे वह परिधि में भ्रमण करते करते भी देख पा रहा था. दत्तचित्त होकर सुनने का अच्छा ख़ासा नाटक कर रहा था वह. चेहरे पर आश्चर्य और अनुमोदन के भाव ले आया था नंद. उसने मीतू का हाथ अपने हाथों में ले लिया था. नव आध्यात्म के लिए देह से अधिक क्या सुचालक हो सकता है.


उत्साहित हो कर मीतू आगे कहने लगी, "मैं तुम्हें प्रेम दूँगी तो वह चौथे सेंटर का ही होगा, क्योंकि मेरा प्रवाह चौथे सेंटर का है. तुम्हारा दूसरा तल ज़रा कमजोर है, पहला और तीसरा पुरुषेण अहंकार से भरा हुआ है...उसका रिफ़ाईनमेंट ज़रूरी है. चूँकि मेरा प्रवाह चौथे सेंटर का है, हम मिल कर चौथे सेंटर का प्रवाह संग संग अनुभूत करेंगे." 


नंद को लेने और देने दोनों की थ्योरी और प्रैक्टिकल आते थे. कुशल खिलाड़ी था नंद इस खेल का और उसके लिए मीतू अंधे के हाथ बटेर जैसी थी. दोनों के बीच का गेम Win Win वाला था. अच्छा सौदा वही जिसमें दोनों को नफ़ा हो.


मीतू को आत्माओं और हृदयों के एकत्व की बातों की राह दैहिक सम्बन्धों में उतरना अच्छा लगता था तो नंद को "डिरेक्ट एक्शन" में रुचि थी. ज़रूरतें बड़े बड़े कॉम्प्रॉमायज़ करा देती है सो यह अल्पक़ालीन प्रेम फलने लगा था नैनीताल के उस होटल के कमरे में...दोनों ही चौथे सेंटर के प्रेम की अनुभूति के अभियान में प्रयाण करने लगे थे. नंद को कथित केंद्रों की परिभाषायें  जानना बेमानी लगता था उसके तजुर्बे ने उसे अच्छी तरह जता दिया था कि मीता मा का टार्गेट कौनसा केंद्र है.


सुअवसर पाकर दोनों ने अपनी आध्यात्म-पिपासा को भरपूर मिटाने के उपक्रम किए किंतु प्यास बढ़ती गयी ज्यों ज्यों मय का अनुपान किया ('दर्द बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की' के तर्ज़ पर).


दोनों का एनर्जी लेवल कम्माल के स्तर पर था.

मुझे इस ट्रेट से निजात पाना है : विदुषी सीरीज़

 विदुषी का विनिमय सीरीज़ 

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मुझे इस ट्रेट से निजात पाना है...

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हम शारीरिक दृष्टि से एक व्यक्ति भले ही दिखायी दें, मानसिक स्थिति यह है कि हम एक में अनेक होते हैं. याने एक शख़्स में  में बहुत सी शख़्सियतें छुपी होती है.


विदुषी का यह वैयक्तिक सोच था कि दुर्भाग्यवश वह पुरुष 'प्रेम'और 'संसर्ग' से वंचित है और यह उसके जीवन को खोखला व असंतुलित कर रहा है, उसे एक स्त्री होने के नाते यह पूरा अधिकार है कि वह जीवन के इस पहलू को एक्सप्लोर करे. विदुषी के छोटे मोटे अभियान इस क्रम में होते रहते थे. 


एक दर्शन और मनोविज्ञान का संतुलित अध्ययन करने वाला बिना जजमेंटल हुए चीजों को जस को तस देखने वाला बंदा उसका सोसल मीडिया पर दोस्त बन गया था जिसे वह 'फ़्रेंड फ़िलोसोफ़र और गाइड' के ख़िताब से अपनी ज़ुबान से नवाज़ चुकी थी. उसकी लोजिकल और अनुभवजनित बातों को सुनती थी, सहमति भी जताती थी. उसकी भलमनसाहत का मुसल्सल दोहन भी करती थी, लेकिन अपने ट्रेट्स से चाहकर भी मुक्त नहीं हो पाई थी या होना नहीं चाहती थी.


जहां भी प्रेम और सेक्स के पोईंट उठते है बुद्धिजीवी मानव मानवी स्पिरिचूऐलिटी का कवर लेते हुए ओशो के साहित्य और आश्रमों की तरफ़ मुख़ातिब होते हैं मानो वहाँ ये सब Knor के सूप्स और Maggie की नूडल्स की तरह इंस्टेंट मिल जाएँगे. विदुषी की चिंतन धारा भी कुछ ऐसे ही प्रवाह में बह चली थी. 


हाँ तो दिल्ली में आयोजित होने वाले एक ओशो-शिविर में विदुषी ने शिरकत करने का तय किया ध्यान सीखने के प्रकट मक़सद से, हालाँकि बेक ओफ़ माइंड में वही सोच और ट्रेट थी जिसका ज़िक्र में ऊपर कर चुका हूँ. 


दोस्त ने बताया था कि ऐसे शिविरों में अधिकांश सहभागी गम्भीर और जिज्ञासु लोग होते हैं जो अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर होते हैं और बातों को समग्रता से युक्तिसंगत रूप में ग्रहण करते हैं. दोस्त ने फिर आगाह किया था कि इन शिविरों में कुछ ऐसे स्वामीजी और मायें भी होती है जिनका मूल उदेश्य ऐसे साथी तलाशना होता है जो ओशो के शब्दों में ध्यान और आध्यात्म से अधिक खुले सेक्स को देखने की मनसा लिए होते हैं और पार्ट्नर्स की तलाश में रहते हैं. 


तीन दिवसीय शिविर में विदुषी की मुलाक़ात एक "स्वामीजी" से हुई जो ज़िंदगी को भरपूर जीने वाले थे, एक वाकपटु व्यक्ति जिनको ओशो की टॉक्स के वे अधूरे हिस्से आकर्षित करते थे जिनमें प्रेम और सेक्स का ज़िक्र हुआ करता था. स्वामीजी और विदुषी के विचार विनिमय इन प्रिय विषयों पर वहाँ सविस्तार खूब हुए थे. 


विदुषी अपने एक रिश्तेदार के यहाँ ठहरी हुई थी वहाँ का पता स्वामीजी ने सानुरोध लिया था और आपस में मोबाइल नंबर्स का भी आदान प्रदान हुआ था. स्वामीजी ने इजहार किया था कि वे बहुत impressed थे हमारी विदुषी जी के शारीरिक सौष्ठव, खुद को कैरी करने के ढंग और इंटेलिजेंस से. प्रशंसा के पुल बांधे थे उस शविरार्थी ने. विदुषिजी ने भी बहुत अच्छे वाइब्स अनुभूत किए थे. स्वामी जी  ने इच्छा ज़ाहिर की थी कि वे विदुषी को 'हग' करना चाहेंगे और कहीं बैठ कर कुछ बौद्धिक विषयों पर चर्चा भी करना चाहेंगे. और इसके लिए वे शाम को उस कॉम्प्लेक्स में आकार विदुषी को फ़ोन करेंगे ताकि दोनों मिल सकें.


विदुषी ये सब बातें उत्साहित हो कर फ़ोन पर अपने उस "दोस्त" से शेयर कर रही थी अपने अनुसार शब्द देकर. हालाँकि वह मनोवैज्ञानिक बंदा बात बात में लगभग सब कुछ extract कर चुका था. 


अचानक स्वामी का काल आने लगा, विदुषी ने काट कर उस से बात की और वापस काल मिलाकर स्वामीजी के पदार्पण की ख़बर दोस्त को दी. दोस्त ने बिना जजमेंटल हुए आगे पीछे का ज़मीनी सच विदुषी को एक्सप्लेन किया, विदुषी ने कहा वह अच्छे से समझ गयी है और स्वामी को चलता करेगी. फ़ोन रखते ही विदुषी की ट्रेट फिर से उस पर हावी होने लगी थी. अपनी खुद की समझी और मानी हुई बातें उसको दोस्त का interference लगने लगा था.


नाना प्रकार के इंटेलेकचुअल जस्टीफ़िकेशन अपने लिए उसके ज़ेहन में आने लगे थे. विदुषी अपनी आज़ादी का परचम फहराने के लिए अपनी ताज़ा तलाश से मिलने फटाफट ड्रेस चेंज कर, टच अप कर, 'अजोरा' स्प्रे  कर के कॉम्प्लेक्स के ग्राउंड फ़्लोर में चली आयी थी जहां स्वामी अपनी स्कोडा में उसका इंतज़ार कर रहा था.


दूसरे दिन विदुषी फिर से उस दोस्त से फ़ोन पर पछतावे के साथ कह रही थी-तुम सच कहते थे...मैं ही बह गयी. जो हो गया सो हो गया, अब मुझे सम्भालो, मुझे टोको...मुझे रोको. मुझे अपनी इस ट्रेट से निजात पाना है.

बदलते साथी कार्यक्रम : बिंदु बिंदु विचार

 बिंदु बिंदु विचार 

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🔹जिन्होंने आपका  जी भर के फ़ायदा उठाया वो अक्सर ज्ञान देते और दिलवाते हैं कि आप उनके "True color" expose होजाने पर कुछ भी रीऐक्ट ना करें, देवता बन कर जो कुछ हुआ उसे भूल जाए. 


🔹जिन्होंने हमेशा सब कुछ manipulate किया और अपने जीवन को संकीर्ण सोचों और ख़ुदगर्ज़ी पर जिया, अपने नज़दीक से नज़दीक व्यक्तियों को "taken for granted" लिया वो  आपको उपदेश देते  और दिलवाते हैं कि उदार बनिए आदर्शवादी बने रहिए.


🔹ये चतुर चालाक और वाकपटु लोग selective बातें करके दूसरे संवेदनशील लोगों को अपने फ़ेवर में  प्रभावित कर लेते हैं इस बात का फ़ायदा उठाते हुए  कि सामनेवाला इंसान इतना  शरीफ़ है दूसरों को पूरी बात शायद ही बताएँ. इनके इस नोशन को ग़लत साबित करना ज़रूरी होता है. यथासमय इनकी असलियत सप्रमाण इनके नए पुराने समर्थकों के सामने लाने में कोई हिचकिचाहट नहीं रखनी  चाहिए. 

हाँ इसे पूर्णकालिक अभियान भी नहीं बना लेना चाहिए. प्राथमिकताओं का सही चुनाव ही सफलता का सूत्र है, विगत के इन क़िस्सों को बस सफ़ाई करके डस्ट बिन को सुपुर्द करने तक का सोच रखना चाहिए. होशमंदी यही होगी कि इन्हें "नकारात्मक यथार्थ"  समझते  हुए ही डील किया जाय जैसे कि अच्छी फ़सल के लिए झाड़ झंकाड़ की निराई करते हैं.


🔹बिना विलम्ब ऐसे लोगों को अपने जीवन से बाहर कर देना चाहिए भूलकर कि इनका  अमुक व्यवहार अमुक हालात के तहत हुआ होगा.....इस बात में कोई भी रियायत देना समझदारी नहीं. 


🔹ऐसे प्राणी यह भूल जाते हैं वे दिन जब "त्राहि माम त्राहि माम" करते थे और हर undue फ़ेवर माँग कर लेते थे. 


🔹भूल जाते हैं वो फिसलनें, वो फँसना जहां से rescue किया गया था. ऐसे वाक़ये जब ये अपनों को धोखा देते थे और अपने कुकृत्यों पर पर्दा डलवाने में आपकी मदद लेते थे इस प्रतिज्ञा के साथ कि आइंदा ऐसा नहीं होगा, बस इस बार इस जंजाल से निकाल दीजिए...आप सद्भावना में god sent savior हो कर उनका साथ देते हैं जबकि वो आपको महज़ इस्तेमाल करते हैं.


🔹भूल जाते हैं ऐसे जंतु वो झूठी माफ़ियाँ जो बार बार उन्होंने माँगी थी  इसीलिए कि आप से लाभ मिलना जारी रहे, आप उनके चंगुल में फँसे रहें. इनके इन सब व्यवहारों से आपकी मासूमियत को सुकून मिला होगा लेकिन आपको यह मानना होगा कि रिश्तों में आपका चुनाव ग़लत था. आपने पीतल को सोना समझा.....अब करेक्शन करना आपकी अपने प्रति ज़िम्मेदारी है. 


🔹भूल जाते हैं वे intiimate dialogues जो महज़ होठों से बोलते रहे थे. वो आंसू जो किसी के कोमल हृदय को प्रभावित करने के लिए आँखों से झरते रहे थे....और यह उपक्रम उनका बहुतों के साथ at one time होता रहा था. ऐसे शातिर लोग आत्म मुग्ध (narcissist),attention seekers और toxic  होते हैं. 


🔹अपने आर्थिक, सामाजिक, दैहिक, अहमजनित मतलब के लिए ऐसे लोग तरह तरह के आवरण औढ कर शिकार करते हैं और उस शिकार को नोच नोच कर खाते है. 

समय पर पहचान कर दूरी बना लेना उचित, नहीं तो बहुत बड़ा विनाश हो सकता है. 


🔹सौ सुनार की एक लौहार की...ऐसे लोगों पर गहरी चोट लगा कर उन्हें सबक़ देना ज़रूरी ताकि औरों को ना ठग सके, अपने प्यार और दोस्ती की नौटंकियों से बाज आए. जो किया है उस पर सोच सके.


🔹कभी कभी तो नाम और प्रमाणों सहित उनके करतबों को पब्लिक कर देना भी अनुचित नहीं होता, लेकिन आपकी बुनियादी शालीनता रोक सकती  है. हाँ यह आख़िरी कदम होना चाहिए ताकि दूसरे कम से कम इन manipulative narcisst self centered प्राणियों के चक्कर में न पड़े.


🔹संस्कृत की नीति सूक्ति : शठेय शाठ्यम समाचरेत...बिना मन का आपा खोए ऐसे लोगों को expose करना कृष्ण नीति है...आदर्शों के जंगल में  ना भटक कर गीता के उपदेश को याद करते रहना चाहिए जब जब ऐसे लोगों के असली चेहरे reveal होते है. उन्हें उनकी असलियत को याद दिलाते रहना चाहिए उन गुनाहों को भी जो उन्होंने किए और आपकी शरणागत हो कर बच गए.


🔹एहसान फ़रामोश और बेवफ़ा लोगों को माफ़ करना उनका हौसला बढ़ाना होता है...उन्हें यह जताना ज़रूरी होता है कि वे लोगों को बेवक़ूफ़ बनाने में सफल नहीं हुए थे बल्कि लोग उदार और संवेदनशील थे.


🔹बहुत ही अच्छा उसूल है, "नेकी कर दरिया में डाल"...हम बिना कर्ता भाव अपनाए लोगों का भला करें, बदले में प्रतिदान की आशा अपेक्षा ना करें...मन की शांति देता है. लेकिन शब्दकोश में कृतज्ञता, अहोभाव, कृतघ्नता,नाशुक्रा, व्यवहार, परस्परता, शालीनता आदि शब्द भी हैं जिनके अर्थों को जीवन में नकारा नहीं जा सकता. हमारा सहज दैनिक जीवन Give एंड Take के आम  सिद्धांत पर चलता है जिसे नकारना वास्तविकता के प्रति आँख मूँद लेना है. सिद्धांतों के इन झीने अंतरों को समझने के लिए कृष्ण का जीवन और गीता सहायक हो सकते हैं जो हमें चीजों को होशमंदी के साथ देखने में सहयोग देते हैं अन्यथा हमारे सोच एकांगी हो कर हमारे लिए ही उपद्रव का कारण बन जाते हैं.


🔹अहम (मैं-मैं) और यथार्थ स्वाभिमान में फ़र्क़ होता है, अहंकार अवांछित होता है लेकिन स्वाभिमान की पुनर्स्थापना अपने स्वयं के समग्र व्यक्तित्व के लिए अपेक्षित होती है . इसलिए किसी भी शब्द जाल में ना फँस कर निर्लिप्त भाव से इस स्वच्छता अभियान और स्वयं के अस्तित्व को क़ायम रखने पर बिना किसी guilt के काम करते रहना चाहिए.


🔹Word of Caution : इसे पूर्णकालिक अभियान भी नहीं बना लेना चाहिए. प्राथमिकताओं का सही चुनाव ही सफलता का सूत्र है, यह सकारात्मक सोच के साथ किया गया रेचन होता है जो सही कम्यूनिकेशन और मानसिक स्वास्थ्य को बरकरार रखने में मददगार होता है.


🔹ऐसे प्राणी साम-दाम-दंड-भेद सभी तरीक़े आज़माने में माहिर होते हैं और अपने अलावा सभी को मूढ़ समझते हैं. चूँकि कोई conviction नहीं होता इसलिए बहुत स्लिपरी होते हैं, किसी भी कन्सिस्टेन्सी की उम्मीद इनसे नहीं रखनी चाहिए. एक जगह ये घोर सैद्धांतिक दिखा देंगे खुद को दूसरी जगह प्रेक्टिकल, पहले दिन जिसके प्यार और आदर में क़सीदे पढ़ेंगे दूसरे दिन उसी को बहुत ख़राब बताने लगेंगे. इनके कुछ दिन के बोल व्यवहार से इनके बारे में फ़ैसला कर के निजात पा लेना ही हमारे सुकून के लिए अनुकूल होगा. इन्हें सहानुभूति देना या benefit of doubt देते हुए रियायत देना साँप को दूध पिलाने के समान होता है. इनकी दोस्ती जी का जंजाल होती है, सच में ये बदलते साथी कार्यक्रम चलाने वाले किसी के कुछ भी नहीं होते.

काँच की दीवार : आकृति जी

 काँच की दीवार 

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तुम्हारे और मेरे बीच 

हुआ करती थी 

एक काँच की दीवार 

जो होती थी 

मगर दिखती नहीं थी 

यह दीवार चलती थी 

हर वक्त हमारे साथ साथ...


देखा जा सकता था 

सब कुछ होता हुआ 

इस पार और उस पार 

इशारे भी हुआ करते थे 

शब्द भी बोले जाते थे 

जो पहुँचते थे 

पतली दीवार के उस पार

अलग अलग ही थे हम 

दिखा करते थे बस साथ साथ...


अचानक तुम बिफर गए 

हाथों में पत्थर उठा लिए 

औरों के हाथों में दे दिए 

बरसने लगे थे पत्थर 

बिखर कर उछल रही थी किरचें

लहू-लुहान थी मैं इस पार

टूट गयी थी दीवार,टूटे थे भ्रम 

सब कुछ हो गया था साथ साथ...

बस ग़लत को क्रॉस करो : बिंदु बिंदु विचार

 बिंदु बिंदु विचार 

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🔹हम सब के साथ कभी ना कभी ऐसा ज़रूर हुआ होगा/होता है बस देखना यह है कि इस से क्या सबक़ लें.


🔹छोटी क्लासेज़ की बात है, नया नया पेन इस्तेमाल करना शुरू किया था. होम वर्क में लिखे में गलती हो जाती. टीचर को देने से पहले उसे इरेज करना बहुत मुश्किल होता था. 


🔹मैं एक टाइप इरेज़र से उसे मिटाने की कोशिश करता, कभी कभी पुरानी शेविंग ब्लेड से भी घिसने की चेष्टा करता मगर काग़ज़ कट जाता.


🔹मै ने चॉक से ग़लत लिखे को कवर करने का प्रयास किया मगर वह भी उतर जाता और जो ग़लत हुआ होता वह फिर से सामने आ जाता.


🔹मेरे टीचर मुझे समझाते मगर मुझ पर कोई असर नहीं होता था.


🔹मुझे लगता था मैं बहुत चतुर-चालाक हूँ और अपनी ग़लतियों को छुपा सकता हूँ.


🔹ग़लतियाँ थी कि होती ही जाती रही, क्योंकि अप्रोच उन्हें आवरण औढा देने, छुपा देने, मेनेज कर लेने का खेल खेलने की हो गयी थी.


🔹घर तक बात ना जाए इसके पुख़्ता इंतज़ाम भी मैं करने में माहिर था. जैसे पड़ोसी क्लासफ़ेलोज को टाफी चूरन कंचे वग़ैरा देकर मुँह बंद करा देता, किसी को डरा देता, किसी की लफ़्फ़ाज़ी से तारीफ़ कर देता. टीचर से कभी माफ़ी कभी तोहफ़ा देना, चापलूसी कर लेता. फिर मेरे ख़ानदान के रसूख़ का असर भी था वो भी एक strong पोईँट था. 


🔹फिर मैने एक तरीक़ा और ढूँढ निकाला. अपने थूक से उसे मिटाने की कोशिश की. स्याही फैल जाती, फिर उँगली से या स्केल के कोने से उसे मिटाने की कोशिश करता काग़ज़ में छेद हो जाते.


🔹मेरी ये सब हरकतें पकड़ी जाती. थूक वाली बात को लेकर तो मैं पूरे स्कूल बदनाम हो गया था. मुझे एक गंदा लड़का समझा जाने लगा. 


🔹इस बीच किसी दोस्त या टीचर ने शायद दादीसा तक बात पहुँचा दी थी या दादीसा को खुद आभास हो गया था. 

एक रविवार को दादीसा की रेड पड़ी. कॉपीयां किताबें उनके सामने थी, और मेरे भेद भी.


🔹दादीसा ने पूछा : ऐसा क्यों करते हो ?


🔹मैंने कहा था : मैं नहीं चाहता कि लोगों को मेरी ग़लतियाँ पता चले इसलिए उन्हें इरेज़ या कवर कर देता हूँ.


🔹दादीसा ने कहा था : इस तरह ग़लतियों को मिटाना तुम्हारी कॉपी में छेद कर देता है. ज़्यादा से ज़्यादा लोग ना केवल तुम्हारी ग़लतियों को जान जाते हैं बल्कि तुम्हारी फ़ितरत और मूर्खता के लिए सामने चाहे कुछ भी ना बोले पीछे से तुम्हें दाग़दार और बेईमान ही समझेंगे और मखौल उड़ाएँगे.... चाहे तुम कितने ही मासूम क्यों ना हो.


🔹मैंने पूछा था : तब मैं क्या करूँ ?


🔹उन्होंने कहा था  : और कुछ भी ना करो,  बस ग़लत को क्रॉस कर दो. सही लिखो और आगे बढ़ जाओ. तुम देखोगे कि ग़लतियाँ होना ही बंद हो जाएगा.

बदल भी न सका था : आकृति जी

 बदल भी न सका था 

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लहर से धोखा किया 

दिशा हीन पवन ने 

बदल भी न सका था 

मानचित्र द्वीप का...


जा जाने क्यों 

दूर जा बसा कोई जंगल में 

बदल भी न सका था 

चलन शहर-बस्ती का...


नदी बहती रही पहले सी ही 

नैय्या भी रही वो ही 

बदल भी न सका था 

मानस डूबने वालों का...


बिम्ब और दर्पण रहे वो ही 

दृष्टि भी रही वैसी 

बदल भी न सका था 

आकार अपने चेहरे का....


ना मिल पायी मंज़िल 

जिया केवल चस्का यात्राओं का 

बदल भी न सका था 

स्वरूप अपने पथ का ...

बाग़ी फ़रिश्ता : आकृति जी

 बाग़ी फ़रिश्ता 

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औरों से जुदा औ मुख़्तलिफ़ है वो 

दिखते है पीठ पर 

निशान ख़ंजर के वार के 

फिर भी बैखोफ ,बेपरवाह

और बहोत खुश है वो...


औरों सा नहीं  है वो 

परे है सब से 

बाग़ी है मगर फ़रिश्ता है 

सच में तुम जिसे कहते हो, 

वो एक मिसफ़िट (Misfit) है...


अपने ज़ख्मों को पहने है वो 

पैरहन की तरह 

इनकार है उसे क़ायदों और दस्तूरों से 

जब जब रोते हो तुम

थाम लेता है तुम को वो 

जुदा करता है आग़ोश से 

लाकर तवस्सुम तिरे लबों पर 

हर दर्द से वाक़िफ़ है वो 

क्यूँकि हर लम्हा गुजरता है वो उस से...


चुप रहता है वो क्यूँकि 

बोलते नहीं है ना 

जो लौट आते हैं जन्नत से 

कहाँ कुछ बचा भी तो रह जाता है 

कुछ भी कहने को,

बस सुनता रहता है वो 

अफ़साने अश्क़ों के 

और रुका रहता है साथ में 

तूफ़ान के गुजर जाने तक...


गिर गया है वो फ़ज़ल से 

छोड़ चुका है उन सब को 

जो करते थे दावे उस से प्यार करने के 

छोडा है उसने 

महज़ अल्फ़ाज़ बोलकर मोहब्बत करने वालों को 

क्यूँकि नहीं देख पाते थे वे ज़ख़्म उसके 

जो खाए थे उसने जंगे ज़िंदगानी में...


राज है एक उस का

लगी थी चोट उसके दिल को 

मरना चाहने लगा था वो 

यही तो वजह थी 

ठान ली थी उसने ना उड़ने की...


जानते हो तुम सब 

कभी भी मरते  नहीं है फ़रिश्ते 

बस गिरते हैं डूबते हैं 

इसीलिए तो 

वह गिर कर डूब गया है इश्क़  में 

आ गया है उसको यक़ीन 

के नहीं ज़रूरत है उसको अब ऊपर लौट जाने की...


यह बाग़ी, मिसफ़िट, जलावतन है 

अंदर बाहर मगर हैरतअंगेज़ है 

किसी भी शुबहा की गुंजाईश  कहाँ 

गिर पड़ा है वह फ़ज़ल से 

खो चुका है बहुत कुछ 

मगर पा भी लिया है बहुत कुछ...


नहीं करता है समझौता ज़िंदगी से 

बाग़ी फ़रिश्ता 

नहीं है वह इस दुनिया में फ़िट' होने की ख़ातिर

ना पहुँचाओ चोट उसकी खूबसूरत जिल्द को  

आया है वह ललकारने बहाले साबिक़ को...


जन्नत को छोड़ा है उसने 

गिरा है धरती पर 

मगर ऐसा है वो 

जो नहीं छोड़ता है  बीच राह किसी को 

वो है एक  बाग़ी फ़रिश्ता 

देता है वो साथ हर कदम पर सब को...


हाँ फ़िलहाल दुःख देगा यह वक्त 

तुम थोड़े से ज़ख़्मी भी हो जाओगे 

मगर आख़िर में 

यह होना भी क़द्र व क़ीमत का होगा...


हो सकता है तुम्हें महसूस हो तनहा तनहा 

मगर वह तो साथ है तुम्हारे हर दम 

जानते  हो तुम

कि गुजर रहा है वह  किस अज़ाब से 

थामे रखेगा वो तुम्हें गोंद की माफ़िक़ 

जानता है वह लड़ना, 

उसे मालूम है जंग वो  ही  जीतेगा...


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बाग़ी=विद्रोही-rebel

मुख़्तलिफ़=भिन्न-different

फ़ज़ल =कृपादृष्टि-grace

जलावतन=देश से बाहर किया हुआ-outcast

बहाले सबिक=यथा स्थिति-Status quo

पतंग डोर और चरखी : विजया

 पतंग डोर और चरखी 

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चली थी पतंग 

खुले आकाश 

डोर थी संग संग 

जा रही थी ऊपर और ऊपर 

छूने अनजानी ऊँचाइयों को 

डोर भी दे रही थी 

खुले दिल से साथ 

उसके इस अभियान में 

निकल कर चरखी से...


आकाश में थी 

पूरी की पूरी डोर 

बस अंतिम सिरा 

बंधा हुआ था चरखी पर 

मगर पतंग थी महफ़ूज़ 

और डोल रही थी मस्त मस्त

अपनी ही धज में 

हालाँकि हो रहा था उसे महसूस 

कुछ मिसिंग मिसिंग सा...


ख्वाहिश थी पतंग की 

और ऊपर जाने की 

कर बैठी ज़िद्द 

लगी इठलाने फड़फड़ाने 

सूत्रधार ने बात को समझा 

और कर दिया जुदा 

डोर को चरखी से...


पतंग अब पूरी आज़ाद

अपने मन से उड़े जा रही थी 

ऊपर और ऊपर जा रही थी 

एक नयी उन्मुक्तता 

उसे दिशा भटका रही थी 

अराजक होकर पतंग की चाल ढाल 

बेढंगी हो गयी थी 

डोर भी बेचारी उसके साथ लटकी लटकी 

भटक रही थी...


अचानक कटी पतंग 

नीचे और नीचे आने लगी 

रास्ते के आवारा लड़के 

लम्बे लम्बे नुकीले काँटे लगे बांस लिए दौड़े 

झगड़ने लगे : पतंग मेरी, डोर मेरी 

चल हट सब कुछ मेरा 

कोई डोर फँसा रहा था 

कोई पतंग को लपक रहा था...


(और जो हुआ होगा हस्र पतंग का 

पाठक की कल्पना पर छोड़ती हूँ)

कामिनी और सुखेन : विदुषी सेरीज

 विदुषी का विनिमय सीरीज़ 

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कामिनी और सुखेन 

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मनोविज्ञान के अपने कुछ एसोसिएट्स से Delusions और Bipolar Disorder टर्मस  पर चर्चा हो रही थी. कई केस स्टडीज भी डिस्कस हो रही थी. उनमें से एक वाक़ये को शेयर कर रहा हूँ. पात्रों, स्थानों और घटनाओं में यथावश्यक रूपान्तरण भी कर दिया गया है. यह मानव मनोविज्ञान के अध्ययन के क्रम में सिंपली एक जनरल केस है जिसमें  कृपया कोई भी खुद को या किसी परिचित को देख कर परेशान ना हो, ऐसे वाक़ये बहुत से लोगों के साथ होते हैं.


मेरे जाने इसका किसी की नैतिकता और चारित्रिकता भी से कोई नाता समझ कर जजमेंटल हो जाना भी भूल है. यह एक साइकोलॉजिकल डिसॉर्डर/ट्रेट है जो स्त्री या पुरुष किसी को भी हो सकता है और जिसमें एक्स्पर्ट healthcarer की मदद वांछित होती है और पीड़ित के साथ यथासंभव मैत्रीपूर्ण व्यवहार (empathy)  की भी अपेक्षा.


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कामिनी को बचपन से ही यह महसूस होता रहा था कि उसे उपरवाले ने कुछ डिवाइन या कोसमिक पावर से नवाजा है. 

वह सभी को कहती थी कि विशेष विशेष धर्म स्थानों पर जब भी वह विज़िट करती है तो उसके रौं खड़े हो जाते हैं, देह काँपने लगती है, ध्यान लग जाता हैं और बहुत दफ़ा आँखों से अश्रु धारा बहने लगती है. रोना तो उसे बात बेबात आ जाता था, एक दफ़ा आँखें बरसने लगती तो थमने का नाम नहीं लेती थी.


उसे यह भी लगता था कि वह लोगों को 'Heal' कर सकती है बल्कि इन सब को सुव्यवस्थित करने के लिए उसने प्राणिक हीलिंग का कोर्स भी किया था. बात चीत में "वाइब्स और इंट्यूशन "उसके तकिया कलाम  थे. उसका यह भी सोच था कि उसका Compatible Spouse उसके पति से इत्तर कोई और है और उसे उसको तलाशना चाहिए.


अपने बनाए इस सोचों के संसार में विचरण करती वह कई मिलने वाले मर्दों में (औरतों में नहीं) पूर्व जन्म के कुछ सम्बंध महसूस कर लेती थी. छोटी छोटी चीजों में भी वह डिवाइन इंडिकेशन देखने लगती थी, जैसा कि इस वाक़ये में हुआ था.

एक व्यक्ति विशेष की फ़ेसबुक प्रोफ़ायल का बार बार उसके सामने आ जाना, उसकी कविताओं और ब्लॉग का सामना हो जाना, जिस सोसल मीडिया पर जिस कम्यूनिटी की वो सदस्य थी उसमें उस व्यक्ति का joining request आ जाना और join कर लेना इत्यादि. बन्दे का फ़्रेंड रिक्वेस्ट आ गया और add हो गया. हालाँकि बन्दे ने add रिक्वेस्ट फ़ेसबुक और blog में कमेंट्स देख कर भेजा था मगर मोहतरमा को अपनी कोसमिक कनेक्शन थ्योरी का ही भरोसा था या कहें कि भ्रम पाला हुआ था. सोसल मीडिया में लगे हम सभी जन जानते हैं कि ये सब ज़ुकेरबर्ग की एंगेज की गयी AI (Artificial Intelligence) का नॉर्मल फ़ीचर है, मगर delusion की क्या कहिए. पहले मेसेंजर, फिर whatspp, फिर ऑडीओ और विडीओ कॉल. बस "नो टाइम" में ही "I love You" हो गया...बार बार "इंटरनेट चैट पर देह पूजन" भी  क्योंकि Cosmic Connect जो था, डिवाइन अप्रूवल थी. वादे और अहद हुए और माधव कृपा से मनसा वाचा कर्मणा लखनऊ के वासी सुखेन मानो उसके लाइफ़ के लिए पार्ट्नर हो गए.  मैडम उन्हें उसी नज़र से देखने लगी थी और बहुत हद तक मन में भी उसी रूप में ग्रहण करने लगी थी. दोनों के बीच जो भी बातें होती उनमें एक दूसरे के साथ जीने मरने के सपने देखे जाने लगे. मैडम कहती, "मेरी ज़िंदगी की तलाश पूरी हुई, देर से ही सही मुझे मेरा बिछुड़ा सोलमेट मिल गया." चतुर चालाक सुखेन भी अपने फ़ायदे के लिए अपनी लफ़्फ़ाज़ी  से कामिनी के इस नोशन को हवा देने लगा. व्यक्ति को जब अवसर मिलता है तो येन केन प्रकारेण अपने लाभ के लिए स्थितियों को manipulate करता है, सुखेन का शातिर दिमाग भी कामिनी की इस मानसिकता का बेजा फ़ायदा उठाने के प्लान बनाने लगा. मानवीय कमज़ोरियाँ जेंडर न्यूट्रल होती है, यह वाक़या इस बात की एक मिसाल समझी जा सकती है. 


केस स्टडी के दौरान इस केस को कई नज़रिए से परखा गया..Illusions-Delusions, Bipolar disorder के अलावा 

Behaviorial Trait और Nympho-menia पर भी चर्चा हुई.

हमारे एक असोसिएटस की समझ के अनुसार इस केस-स्टडी में इतने भारी भरकम jargons को तवज्जो ना देकर सहज human trait, opportunity और stimuli की presence से पैदा हुई स्थिति को ही देखना उपयुक्त था. ख़ैर इन डिस्कसन का मूल्यवान पहलु यही होता है कि सब अपने अपने इन्पुट्स देते हैं, एक दूसरे की बात को समझते हैं और स्पष्टता हासिल कर पाते हैं.


वैसे कामिनी दिल्ली में अपने बेटे की IAS की कोचिंग के लिए अपने पति से दूर रहकर अपनी ज़िम्मेदारी निबाह रही थी. वह मुखर्जीनगर में किराए का 2 BHK फ़्लैट लेकर अपने बेटे के साथ रह रही थी. 


देर रात तक सुखेन और कामिनी में बातें होती, कविताओं का पठन श्रवण होता...भविष्य की योजनाएँ बनती...घर बसाने तक के सपने लिए जाते, भूला कर कि दोनों ही मध्य वय के क़रीब वाले शादीशुदा लोग हैं .  चूँकि कामिनी एक शौक़िया गायिका भी थी सुखेन को फ़ोन पर गा गा कर भी अपनी फ़ीलिंग्स का इजहार करती थी. दोनों की दुनिया एक दूजे में जैसे सिमट आयी थी. दोनों ही माधव के प्रति कृतज्ञ थे कि बिछुड़े जीवन साथियों को उसने महत्ती  कृपा करके मिला दिया था.


एक दिन कामिनी  बहुत ही मायूस और उदास हो कर दाग देहलवी की यह ग़ज़ल सुखेन को विडीओ कोल पर सुना रही थी, "उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं,बाइस-ए-तर्क-ए मुलाक़ात बताते भी नहीं". मिलन की उत्कंठा इतनी प्रबल हो गयी कि मिलने का प्रोग्राम बन ही गया.


सुखेन को कामिनी ने रेल्वे स्टेशन पर रिसीव किया और उसका इंतज़ाम एक नोर्मल से होटल में कर दिया. कामिनी राजस्थानी बंधेज की साड़ी पहने सूखेन के साथ होटल में थी और एक व्याकुल गर्ल फ़्रेंड के साथ साथ एक सुगढ़ पत्नी की तरह भी व्यवहार कर रही थी. सुखेन भी बॉय फ़्रेण्ड और पति का डबल रोल निबाह रहा था. कामिनी ने "माधव" का एक शो पीस (मूर्ति) सुखेन को गिफ़्ट किया था और माधव की उपस्थिति में दोनों ने स्त्री-पुरुष/पति पत्नी का जीवन जी भर के जी लिया था. देह और आत्मा दोनों जैसे एक-मेक हो कर परितृप्त हो गए थे. सुखेन ने, जिसका कालांतर में कामिनी से ब्रेक अप हो गया, हमारे एक असोसिएट को वार्ता के दौरान बताया था कि कामिनी मिलन के दौरान किस हद तक जुनूनी हो गई थी, बार बार कहते हुए कि वह जन्मों की प्यासी है और सुखेन अब मिला है अब उसकी भौतिक और आत्मिक पिपासा को अमृत मिलेगा, कि वह अपनी feminity को अब सुखेन जैसे साथी के साथ एक्सप्लोर कर पाएगी क्योंकि अब तक की उसकी  शादीशुदा ज़िंदगी एक भौंडा समझौता मात्र थी. सुखेन ने यह भी बताया कि संसर्ग के लिए कामिनी ने पहल की थी, उसका उत्तेजन अति पर था और वह विक्षिप्त जैसी हरकतें कर रही थी. सुखेन द्वारा उसकी बातों को सुनना, हाँ में हाँ मिलाना, अटेन्शन देना, ऐसे जुमले बोलना जो उसकी ईगो को बूस्ट करे और काल्पनिक संसार में विचरण कराए, कामिनी को और अधिक प्रोत्साहित कर रहा था . कामिनी दावा कर रही थी कि वह सुखेन, जो उस से उम्र में दो या तीन साल छोटा था, के जीवन में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार का अकल्पनीय बदलाव ला देगी. सुखेन ने माना कि उसने रिश्ते के दौरान कामिनी की असंतुष्टि की स्थिति  और इस Low Self Esteem जो Superiority का लबादा औढे हुई थी का भरपूर फ़ायदा उठाया था.


उन दिनों कामिनी का बेटा दिन में अपने कोचिंग सेंटर चला जाता था. कामिनी लंच के समय सुखेन को अपने घर ले आई. उसे मालूम था कि सुखेन को छोला चावल बहुत पसंद है इसलिए रात में ही उसने छोले भिगो दिए थे. सुखेन को आराम करने का कह कर, कामिनी ने एक कुशल गृहिणी की तरह छोला चावल बड़े मन से तैय्यार किए. सुखेन किचन में पारम्परिक पतियों की तरह ही ज़मीन पर आसान बिछा कर बैठ गया और कामिनी ने परोस कर उसे जिमाया. संस्कारी पतिव्रता नारी की तरह कामिनी ने उसके खाने के बाद खुद खाया. एक महिला कवियत्री जो नेट की दुनिया में नामी है उसे सुखेन माँ कह कर पुकारता था. उस से मिलाने वह कामिनी को ले गया और कामिनी ने वाक़ायदा प्रणाम कर 'सास' का आशीर्वाद लिया. कामिनी-सुखेन के बीच इसी तरह के और भी रिश्ते रिश्ते खेल होते रहे. हब्बी की देश से ग़ैरहाज़िरी के मद्दे नज़र यहाँ तक कि उस साल की करवा चौथ की मेहंदी और शृंगार भी कामिनी ने सुखेन के लिए किया था. 


कामिनी अपने भ्रम को बदस्तूर जी रही थी और सुखेन माधव कृपा का भरपूर लाभ उठा रहा था.