Friday 26 April 2019

सच्चा प्यार : विजया


सच्चा प्यार....
++++++
अपनी ही वांछाओं को देते हुए शब्द
कर डाली थी किसी ने
तुलना प्यार की
एक झिमलिलाते उफनते शेम्पेन के ग्लास से...

किंतु गंवा देता है शेम्पेन
झिलमिलाहट अपनी
हो जाता है जब पुराना
नहीं रहता ज़िंदा ख़ुमार और नशा उसका
पड़ जाता है हो कर सपाट वह
खो कर
अपनी शानदार चमकीली बुदबुदाहट....

नहीं है सच्चा प्यार कोई शेंपेन...
होता है प्यार निर्मल जल सा
पवित्र सुशीतल भरपूर जीवंतता से
बुझाता है जो प्यास रखते हुए होश में
जगाता है जो ताज़गी पल प्रतिपल
नये पुराने के भेदों से दूर....

फिर एक बार : विजया


फिर एक बार....
++++++++
किया था मैंने प्यार
उदासियों के जज़्बात और
दर्द के एहसासात ले कर,
जानती थी मैं
झूठ था हर एक लफ़्ज़ उसका,
लगता था चाहे सब कुछ सच,
होता था महसूस सब कुछ
बहोत ही ईमानदार,
सुन लिए थे मैंने इसीलिये ही
वो मुलम्मा चढ़े इश्किया इज़हार उसके
जानते बूझते हुए भी कि ज़हर था वो प्यार
हो गयी थी मैं पी पी कर बेसुध
एक बेज़ुबान बेहोशी मे...

आख़िर
क्या है ख़ुमार..... क्या है नशा
ख़ुद को ज़हर से गले तक भर लेने के अलावा ?
मगर मुझे इसकी ख़ुशबू
इसका ज़ायक़ा
इसके तीखेपन का चटकारा
आया था ख़ूब रास,
भर लिया था जाम इसी ख़ातिर मैंने
फिर से ग़म और उदासियों से
और हो गयी थी बेसुध पी कर
और एक बार...

फिर से एक बार,,,,,



फिर से एक बार,,,,,
#########
हुई थी कहानी शुरू 
उस रात के अंधेरे में 
सो रहे थे सब जिज्ञासु मस्तिष्क, 
चुपचाप बैठा था वो 
छूते हुए उँगलियों से 
की बोर्ड पर उभरे अक्षरों को,,,,,,
लुभा रही हो तुम मुझ को 
एक सादे पन्ने की तरह,
लिखा था उसने
त्वरित उत्तर पाने की व्याकुलता लिये 
प्रत्युत्तर जो भर सकता है 
उसके मन मस्तिष्क को 
कुछ और शब्दों से  
ला सकते हैं जो 
उसे उसकी 'कम्फ़र्ट जोंन' में,,,,

सरक आयी थी वो थोड़ी 
शोर मचाती भीड़ से 
और दे दिया था प्रत्युत्तर :
रहा करती है ना शून्यता मस्तिष्क में ही 
आदत जो पड़ी होती है 
खोये हुये को ढूँढने की,
नहीं है कोई भी 'शून्य' प्रकृति में..
ले जाने दो ना मुझे तुम को भरेपन की ओर..
आओ ना ! 
देखो तुम भी जैसे देखा करती हूँ मैं 
फिर शेयर करो मुझ से अपने उस 'देखे' को,,,,,

भेज कर टेक्स्ट 
निगला था मानो गहरा सा कुछ उसने, 
नहीं था सर्वथा मिथ्या 
जो कुछ भी देने का उपक्रम किया था उसने 
किंतु थी वो वस्तुत: उस पेशकश से कहीं अधिक 
उसकी एक अपूरित वांछा,,,,,

दे सकती हूँ मैं वो सब जो है ही नहीं पास मेरे,
ख़याल था उसका
भटक रहा था मन उसका 
परिपूर्ण करते हुये खुद को उन समस्त उपायों से,
जिनके लिए सक्षम थी केवल शून्यता ही,,,,

नहीं था निश्चित और स्पष्ट उसको 
क्या देने जा रही थी वह....
लेकिन सब वही तो था 
पाले हुए था तीव्र उत्कंठा जिन्हें पाने की चिरकाल से, 
ला दी थी उन शब्दों ने भावों की प्रचंड बाढ़ उसमें 
क्या नाम दें उसे : 
वासना ?
नशा ?
ख़ुमार ?
सुरूर ?
प्रेम ?
हाँ ! हाँ ! हाँ....कुछ भी,,,,

जैसे जैसे ऊपर बढ चला था सूरज 
नहीं दिया था ध्यान उसने 
अपनी थकन, क्षुधा और प्यास को,
भूल गया था वो 
अपने सूने सूने से दिन, 
दर्पण में निरखते बिताया समय,,,,,,
:
:
और गिनते हुए अपने बीते वर्षों को
कर दिया था प्रारम्भ लिखना उसने 
फिर से एक बार,,,,,

Tuesday 23 April 2019

सच्चा प्यार : विजया


सच्चा प्यार....
++++++
अपनी ही वांछाओं को देते हुए शब्द 
कर डाली थी किसी ने 
तुलना प्यार की 
एक झिमलिलाते उफनते शेम्पेन के ग्लास से...

किंतु खो देता है शेम्पेन 
झिलमिलाहट अपनी 
ख़ुमार और नशा ख़ुद का 
हो जाता है जब पुराना 
पड़ जाता है हो कर सपाट 
खो कर 
अपनी शानदार चमकीली बुदबुदाहट....

नहीं है सच्चा प्यार कोई शेंपेन...
होता है प्यार निर्मल जल सा
पवित्र सुशीतल भरपूर जीवंतता से 
बुझाता है जो प्यास रखते हुए होश में 
जगाता है जो ताज़गी पल प्रतिपल 
नये पुराने के भेदों से दूर....



Sunday 21 April 2019

क्षणिकाएँ : विजया

१)
सुरूर....
+++
भर देता है सुरूर 
इश्क़ तेरी आँखों में 
होते है मय में 
नफ़स ओ धड़कने कहाँ...

२)
सत्कार दर्पण का 
बिख्यात व बहुचर्चित है 
स्वागत है अतिथि का 
बस जाना किंतु वर्जित है....

३)
दूर तलक 
देखने की आस में 
गुज़र गया बहुत कुछ 
नज़रों के पास से....

४)
क्रोध और आंधी 
एक से है दोनों,
ज्ञात हो पाता है 
परिमाण क्षति का 
शांत होने के बाद...

५)
न जाने
क्यों कब और कैसे
पहुंच गया
दर पर उसके,
होते हुए
टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियों से,
और खो गया था
जगत की भीड़ में.....

Tuesday 16 April 2019

ऐ मेरे रंगीं हमसफ़र : विजया

थीम सृजन : हमसफ़र
*****************
ऐ मेरे रंगीं हमसफ़र !
+++++++++
सोलह की कच्ची उम्र में
पूरी दुनिया ही तो आ गिरी थी
राहों में हमारी
बिलकुल ही सामने
हमारे छोटे से क़दमों के....

तुम पंछी नभ के
मैं मानवी धरा की,
तेरे आदर्शों के साथ
मेरे ज़मीनी होने का आलम
लगाने लगा था एक जोड़ बेढ़ब सा,
निष्ठा तुम्हारी वचनों के प्रति
या हमारा निश्छल प्यार
या दोनों ही
कराने लगे थे निर्माण
एक अनबूझभविष्य का
हमारे ही विचलित अस्थिर हाथों से...

चल दिए थे तुम
उस छोटे से क़स्बे को डूबा कर धूल में
छोड़ कर मुझ को अकेला
......और एक दिन बुलाकर मुझे
रख दिया था तुम्ही ने ताज मेरे सिर पर
बना दिया था एक राजा ने
मुझ साधारण को एक रानी....

लिए हाथों में हाथ
हम दो
पूरी दुनियाँ हमारे ख़िलाफ़,
बनाने को कटिबद्ध
हम अपना ही एक नायाब महल,
लड़ी थी लड़ाइयाँ
आसपास से
आपस में भी
मगर जीते थे हर युद्ध में
हम दोनों,
कर पाए थे एक दिन
हम प्रवेश
अपने सपनों के महल में,
चल सके थे आरपार
अपने साम्राज्य में
जी सके थे हम
अपने घर में...

अपनी कहानियाँ कहते हैं वे सब
हम भी तो...
भर गया था महल हमारा
नन्ही राजकुमारी और राजकुमार की
पदध्वनि से
संक्रामक किलकारियीं से
नाभि से उठते ठहाकों से
और
घर कर लिया था ज़िन्दगी में
बहुत कुछ अनात्मिक,अस्तव्यस्त,
अनुपयुक्त,आवांछित  ने भी
क्यों और कैसे संभाल पाए जिसको
नहीं जान पाए हैं हम ख़ुद भी
आज तक...

कितना अद्भुत
सर्वथा विलक्षण और साहसिक है
यह सब होना और होते जाना,
करते रहे है सामना हर बाधा का
मिल कर हम दोनों
कंधे से कंधा जोड़ कर
बहुत कुछ से परे
किंतु अपने गहरे प्यार के साथ
अपनी अर्जित समझ के साथ,
है ना यह जीवन का हसीन सफ़र
जीवन से ही होते हुए
ऐ मेरे रंगीं हमसफ़र !