Sunday 14 March 2021

गोलाश्म और नदी....

 

गोलाश्म और नदी....

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विशाल पहाड़ की ढलान पर

दौड़े जा रही थी 

एक सुंदर नदी 

चम चम चमकती हुई 

स्फटिक सी स्पष्ट,

वैसा ही था ना बेदाग़ 

वह पानी 

अनखोज अनछुआ 

इंसानी तहज़ीब के हाथों से....


ख़ुद में करके समाहित

बसन्त में पिघलती बर्फ को 

पा जाती थी नदिया और ज़्यादा ताक़त,

बहती थी वेग में 

बदलते हुए सतह पहाड़ की 

आती जो उसकी राह में ,

लुढ़काती हुई पत्थरों को

तोड़ती हुई पेड़ों को  

नहीं था कोई भी वहाँ 

जो कर सकता सामना 

उसकी तेज कच्ची ताक़त का

बासंती मौसम के साथ साथ 

बढ़ता जाता था दायरा उसका....


मिली थी इसी वसंत 

सरे राह चलते चलते 

एक गोलाश्म से 

बहुत ख़ूबसूरत 

पुष्ट डील डोल 

चिकनी त्वचा 

सोचा था नदी ने 

बहा ले जाऊँगी उखाड़कर उसे 

साथ अपने,

किंतु गहरी थी जड़ें उसकी 

नामुमकिन था 

पूरा होना उस मन्सा का,

नदी ने बदला था थोड़ा सा अपना रास्ता

लौट आयी थी फिर 

पहले की अपनी राह पर 

कहते हुए : "मिलूँगी फिर कभी"....


ज्यों ज्यों गरम रूत आती 

हिमखंड के हिमखंड टूट कर 

नदी को और ज़्यादा 

पानी और कुव्वत दे देते 

बहाव में और तेज़ी आ जाती 

बाढ़ भी घटित हो जाती 

सब कुछ तोड़ती उखाड़ती

बढ़ती जाती दरिया 

जैसे उस ख़ूबसूरत नायक को 

विचलित नहीं कर पाने का क्रोध हो,

तोड़ तोड़ देती कठोर चट्टानों को 

छितर जाते पेड़ पौधे वनस्पति 

और भी ना जाने क्या क्या....


मैदान में आकर तो 

किनारों को तोड़ बाहर हो जाती 

करने लगती गाँव बस्तियाँ तबाह 

सब डरते थे 

उसके विकराल रूप से,

कुंठा क्रोध प्रतिशोध शोर 

जैसे हो गया हो व्यक्तित्व उसका 

बस एक ही बात सालती थी नदी को 

क्यों नहीं उस गोलाश्म को 

अपने साथ ले आ पायी....


अगली यात्रा में कर ही दिया था 

नदी ने इजहार अपने प्यार का 

समा गया था गोलाश्म उसके प्रवाह में 

या कहें नदी ने उसको ले लिया था 

अपने आलिंगन में 

बंट गयी थी नदिया छोटी छोटी धाराओं में 

बहने लगी थी कई दिशाओं में 

गोलश्म को अपनी छुअन में 

हर पल रखते हुए....


अब उसके पास सब के लिए 

कुछ न कुछ उपहार था 

गिलहरी के लिए मेवे 

तोते के लिए अनार दाने 

छोटे छोटे पौधों के लिए पानी 

कई कलमें जो बूटे बन सकती थी 

ख़रगोश और हरिण के लिए भी 

कुछ ना कुछ खाने के लिए....


मैदान में आने पर 

चलने लगी थी नौका उसमे

लहलहा रहे थे हरियल खेत तटों पर 

कितने ही ध्यानी ध्यान करने लगे थे

किनारों पर पनपे वृक्ष कुंजों में 

चाहने लगे थे सभी नदी को,

कमाल था यह 

कुंठा समाप्त होने का 

ग़ुरूर मिट जाने का 

साथी को पहचान लेने का 

प्रेम में डूब जाने का....


उस मीठी प्यारी 

फुहार सी धारा को 

सभी तो प्यार करने लगे थे 

नदी स्वयं प्यार हो गई थी 

होना होता है ना प्रेम स्वयं को ही 

प्रेम करने और पाने के लिए....


(गोलाश्म=Boulder)

हाले दिल : विजया

 

हाले दिल...

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क्या जाने कोई भी पूरा 

हाले दिल नदिया का 

रखना होता है जारी मुससल 

यह लम्बा उतार चढ़ाव का

बस एक ही तड़फ लिए 

मिलना है सागर से 

और गँवा देना है वुज़ुद अपना...


पहाड़ का तो क्या 

दम्भी और उज्जड़ 

खड़ा रहता है 

अड़ा रहता है 

उसी जगह अपने पाँव रोपे 

कहाँ आभास उसे तरलता का 

कहाँ अन्दाज़ उसे सरलता का...


पहचानती है 

नदी को गर कोई तो वह है 

उसकी सखी नाव 

सदा निबाहती है साथ उसका 

चलते हुए भी रहती है संग में छूकर 

जोड़े रखती है ख़ुद को थम कर 

लंगर में बंध कर...


सच तो यह है 

जो दिखता है वह होता नहीं 

जो होता है वह दिखता नहीं

कलम और शब्दों का क्या 

कुछ को कुछ साबित कर दे 

पहुँचता है मगर सीधा दिल तक

आंका हो जो तुमने 

किसी सादे केनवास पर...

ख़ुद में लौट आएँ...



ख़ुद में लौट आएँ...

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ना हो तलब ना ही तमन्ना 

वह लम्हा फिर से चला आए

अब सुनें कुछ दिल की ऐसे के 

उठें ,चलें और  ख़ुद में लौट आएँ...


आँधियों में उड़ी ख़ाक से 

भर गया है घर मेरा 

साफ हो जब तलक गर्द

यक कोने में ख़ुद को सिमटाया ज़ाए...


बे अदब, बद इख़लाक, बा हरामती

हुआ है पानी हर दरिया का 

लगा डुबकी खुद के समंदर में

लबों को टुक भिगोया जाए...


जागना और सोना 

हैं यक सिक्के के ही दो पहलू

सोए हैं पाँव पसार जिस चद्दर पर 

हो लिहाफ़ वो सिर पे चली आए...


बीज और माटी का 

कैसा ग़ज़ब ये रिश्ता है 

दबे, नमू हो,पनपे, खिले,मुरझाए 

गिरे, फिर से माटी हो जाए...


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मायने :


बे अदब, बद इख़लाक, बा हरामती=तीनों ही दूषित या polluted को जताते हैं


नमू हो =अंकुरित हो

Monday 1 March 2021

शउर मजबूरी के,,, : विजया


शउर मजबूरी के...

++++++++++

उसके जन्मने से 

बहुत पहले ही 

बिगाड़ दिया था समाज ने 

संतुलन अपनी 

माप जोख की तराजू का 

और 

समतलता उस ज़मीन की भी 

जहाँ उसके डगमगाते कदम 

सीख सकते शायद 

अपने पावों पर खड़ा होना 

और 

चल भी पाना 

एक स्थिर चाल से...


समाज की छद्म नैतिकता ने 

तोड़ डाले थे वो बाजू 

जिनके साथ 

उसके कच्ची माटी जैसे 

मस्तिष्क को 

गढ़ा जाना था 

और 

आकार पाना था,

ज़िम्मा  था जिन पर 

न्याय करने का 

उन्ही बहुसंख्यको ने 

सुना दिए थे सारे फ़ैसले 

ख़िलाफ़ उसके...


नाममात्र के अधिकारों 

और चुप्पी की आवाज़ लिए 

वो नाबालिग गदराया जिस्म 

हो चला था 

एक दोहरा ख़तरा 

ख़ुद के लिए भी,

पहनना औंढना

बोलना चलना 

हँसना मुस्कुराना 

पढ़ना लिखना 

खेलना कूदना 

अपने चुनाव ख़ुद करना 

शिद्दत से जी लेना 

सिर उठा कर चलना 

सब के लिए दफ़ाएँ थी 

समाज और धर्म के 

पेनल कोड में...


फ़तवे 

हमेशा से भी ज़्यादा 

एक से ही थे 

सर्वसम्मति से, 

गुनहगार हर हाल में 

लड़की ही होती है, 

अगर बढ़ती है तेज़ी से तो भी 

या छू लेता है कोई उसे बेढंगा होकर 

या कर बैठता है जबर कामांध हो कर,

इसीलिए तो 

सीख लेती है लड़कियाँ 

शउर मजबूरी के 

पा लेती है महारत 

शर्मिंदा और दबा कुचला होने में 

हो जाती है हावी उस पर 

हुनरमंदी दर्द छुपा लेने की,

क्यों ना हो ऐसा आख़िर 

गलती उसकी ही तो होती है 

दुनिया में आने के 

पहले से ही

और दुनिया में आने के बाद भी...

प्रवेश हमारा,,,,,


प्रवेश हमारा,,,

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मन्सा और क्रियान्वन के 

बीच का अंतर 

भर जाता है न जाने 

कितनी प्रक्रियाओं से :

मानसिक

भावनात्मक

और 

अज्ञात-अनाम,

क्या पैठता है 

इन अंतरालों में ?


मन्सा और क्रियान्वन के 

बीच के जुड़ाव में 

कौन करता है विचरण ?

भावनाएँ

आवश्यकताएँ

पीड़ा

जड़ता

और 

भय...

कौन देता है अभिप्रेरण 

इन सारी दिशाओं को ?


मन्सा और क्रियान्वन के 

बीच होता है ज्यों कुछ अपरिहार्य,

भक्ति

प्रेम

शक्ति

और 

आत्मीयता,

क्या हमारे जीवन के ये पक्ष 

हो पाते हैं हमें 

बोधगम्य?


मन्सा और क्रियान्वन के 

बीच क्या मिल पाते हैं हम

अपने विस्मय से ?

हौसले 

एकाग्रता

और 

आश्चर्य,

इन्हीं स्थितियों में ही तो 

होता है 

प्रवेश हमारा 

ध्यान में...


क्रियान्वन=action,मन्सा=intention, प्रक्रियायें=processes, जड़ता=inertia, अपरिहार्य=indespensible, अंतराल=recesses, अभिप्रेरण=motivation

बोधगम्य=comprehensible,विस्मय=awe.