Wednesday 22 November 2023

अर्धनारीश्वर : मेहर

 अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस पर 

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अर्धनारीश्वर...

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पा चुका है समर्थन 

विज्ञान और मनोविज्ञान का 

बुनियादी सिद्धांत अर्धनारीश्वर का...


कहानी पौराणिक है 

बाँट दिया था अपनी काया को 

दो हिस्सों में 

ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के क्रम में,

'का' बना पुरुष 'या' बनी स्त्री 

मनु और शतरूपा 

और 

बने दोनों मूल इस मैथुनी सृष्टि के

उत्पति हुई इस धरा पर मानव की 

दोनों के मेल से...


नहीं है संपूर्ण स्वयं में

अकेला  पुरुष या स्त्री अकेली,

पश्चात अपनी रचना के 

भटक रहा है पुरुष

तलाश में अपने आधे हिस्से की,

आधे हिस्से की उपलब्धि का सुख

टुकड़ों टुकड़ों में

मिलता है उसे कभी मां में

कभी बहन में, कभी प्रेमिका में, 

कभी जीवन संगिनी में 

कभी स्त्री मित्रों में

चैन किंतु फिर भी नहीं...


नहीं मिट पाता है ताउम्र 

यह एहसास अधूरेपन का,

तलाश संपूर्णता की 

पूरी होगी उसके अपने अंदर ही,

महत्वपूर्ण है 

धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष से भी...

अपने भीतर के स्त्रीत्व से साक्षात्कार...


पहचान लेगा पुरुष जिस दिन 

अपने भीतर की स्त्री को 

और उतार लेगा अपने जीवन में 

उस जैसा प्रेम, ममत्व, कोमलता और करुणा 

हो जाएगी पूरी तलाश उसकी स्वयं की,

निहित है इसी में 

हल उसके अंतर की ऊहापोह का 

और दुनिया की समस्याओं का भी,

नहीं करनी होगी उसे आकांक्षा  

पृथ्वी से इतर किसी स्वर्ग की

होकर मुक्त हिंसा, क्रूरता और निर्ममता से 

बन जाएगी स्वर्ग स्वयं यह दुनिया...

Saturday 18 November 2023

मैं हूँ कि तुम हो : धर्मराज भाई


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"मैं हूँ कि तुम हो" बड़ी ही प्यारी सूफियाना नज़्म है धर्मराज भाई की, उस पर ये दो Couplets मैं कमेंट्स में extempore लिख पाया.

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तबर्रुक हो मुबारक 

जल जल कर बुझने वाले,

हिद्दत भी है यक तजुर्बा 

राज ए हसरत छुपाने वाले...


सहारे होते हैं बहाने 

होता मतीन वजूद ही किसी का, 

भटका कोई छड़ी लेकर 

मगर रास्ता था उसी का...


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तबर्रुक=प्रसाद (जैसे मंदिर में मिलता है)

हिद्दत=उग्रता/ ऐंठन/प्रकोप 

मतीन=महत्वपूर्ण, गंभीर 


नज़्म में भी पहले दो अल्फ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं.



मैं हूँ कि तुम हो 

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होके फ़लक सा ओझल 

ज़रा सा ये जो नज़र आता हूँ 

पत्थर के मानिंद 

मैं नहीं हूँ 

तुम्हीं हो 

रख छोड़ा है अनजाने में तुमने खुदी को 

मेरी शक्ल में 

कि एक दिन ज़िंदगी के थपेड़ों ठोकरों से लुढ़कते लुढ़कते 

तुम्हें किसी अनहुए से हुए सहारे की दरकार होगी 


ये जो तुम खूब नज़र आते हो 

मौजे हिद्दत के माफ़िक़ 

मैं ही हूँ जो 

मैं सा बुझकर 

तुम सा धधक उठा हूँ लेकर हुनर बुझन का

कि एक दिन 

चख सकूँ तबर्रुक

तुम होकर भी बुझ चलने का 


मैं तुम हूँ मेरी शक्ल में 

कि तुम मैं ही हो तुम्हारी शक्ल में 

ज़िंदगी का ये राज बयाँ 

कर करके भी क्या ख़ाक करिए 

कभी ये राज बयाँ हो ही न सका होने का 

जो बयाँ हो गया 

कहाँ वो राज फिर राज रहा 


                                        धर्मराज 

                                  02/10/2023

संबंध : आकृति

 सम्बन्ध

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सम्बन्धों में बातें होती है 

एकत्व की, विलय की 

एक प्राण दो देह की 

आत्मिक जुड़ाव की 

और भी बहुत से 

मुहावरे और कहावतें 

किंतु क्या संभव हुआ है 

दो व्यक्तियों का एकमेव हो जाना ?


बहिरंग में देखें तो 

आकार प्रकार अलग 

आँखों की पुतलियाँ अलग 

उँगलियों के निशान अलग 

अंतरंग में देखें तो 

आत्मा अलग 

जीव अलग 

पूर्वजन्म की योनि अलग 

ऋण बंधन और कर्म बंधन अलग....


सम और बन्ध

मिलकर बना है सम्बन्ध

अपेक्षा है सम की 

व्यवहार में 

अनुभूति में 

अभिव्यक्ति में 

मुखर हो या मौन 

किंतु मूल में दीर्घ काल में 

सम को करना होगा मैंटेन 

विषमता है घातक संबंधों के लिए....


आदान प्रदान 

अंडर करंट है संबंधों का 

परस्पर आदर 

एक दूजे को स्पेस देना 

आपसी समझ और सहनशीलता 

सीमाओं की विवेक सम्मत स्वीकृति 

यही तो बनाए रखता है रिश्तों को....


हम तुम एक हैं 

वादा करते हैं ज़िंदगी भर साथ रहेंगे 

हमेशा वफादार रहेंगे 

बहुत सुंदर मिशन स्टेटमेंट 

प्रतिबद्धता, निष्ठा से निबाहना 

ऐक्शन प्लान 

सहजता, अकारणता, प्रयासरहित 

शब्द पलायन है सच से 

एक जाना अनजाना षड्यंत्र 

किसी को टेकन फॉर ग्रांटेड लेने का....


मानवकृत होते हैं सम्बन्ध 

मान भी लें कि ताल्लुक़ है उनका 

जन्म जन्मांतरों से 

लेकिन इन्हें जीना तो होता है हमें 

दिन प्रतिदिन here and now

ठीक वैसे ही जैसे 

ख़ाना पीना, सोना जागना 

साँस लेना, नित्यकर्म पूरे करना 

ड्रेस अप होना, बीमार और स्वस्थ होना 

पढ़ना, अर्जन सृजन विसर्जन करना 

ये सब हम जब सप्रयास करते हैं 

तो रिश्तों में क्या है ऐसा 

जो जारी रह सके बिना श्रम के ?

जय भवानी : आकृति

 "जय भवानी"

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इतिहास गवाह है 

कि बहादुर क्षत्रियों ने 

"जय भवानी" 

उद्घोष संग युद्धों में 

दुश्मन के छक्के छुड़ाए थे...


इतिहास इस बात का भी गवाह है 

क्षत्राणियाँ साक्षात भवानी बन 

आन बान और शान के लिए 

जौहर जी ज्वाला में 

अपनी आहुति हंसते हंसते दे देती थी...


"चुण्डावत माँगी सैनाणी

सिर काट दे दियो क्षत्राणी" की 

कहानी नहीं है अनजानी 

झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई 

आज़ादी की अनुपम दीवानी 

रानी दुर्गावती थी ऐसी वीरांगना

छोड़ी है जिसने अमिट निशानी...


ले ली है करवट समय ने 

बदल गई सारी अवस्थाएँ 

प्रजातंत्र अब देश हमारा 

विगत हुईं राजतंत्र व्यवस्थाएँ 

किंतु हम वीरांगनाओं को 

वही साहस दिखलाना  है 

नारी उत्पीड़न के ख़िलाफ़ 

और 

स्त्री सशक्तीकरण के लिए 

बुलंद आवाज़ उठाना है 

"जय भवानी" की गूंज के साथ 

विजय श्री को पाना है...

खोया हुआ महबूब...

 खोया हुआ महबूब 

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बरसों के अंतराल के बाद 

छुआ है तुम को 

कितने बदल गये हो,

कहाँ गया कच्चापन-अधूरापन 

नहीं नज़र आ रहा है वो अल्हड़पन !!


दिख रहा है सब कुछ सुघड़ सा 

सजा धजा सा

कंसीलर ने ना जाने क्या क्या छुपा दिया है 

यह सीरम, फाउंडेशन और उस पर 

ज्यूँ परत हो फेस क्रीम की 

पूरी देह पर जैसे 

गहरा बॉडी लोशन मल लिया है 

वैक्सिंग, मैनीक्योर,पेडि-क्योर ने 

स्मूथ कर दिया है सब कुछ 

हेयर स्टाइल बिलकुल बदल गई है 

ऑई लाइनर ने आँखों की गहराई बढ़ा दी है 

लिप-कलर ने ज्यूँ होठों में जान भर दी है 

उभारों को सुडौल दिखाने 

ज्यूँ पैडेड सपोर्ट पहना है 

एक अपरिचित सी तेज़ गंध फूट रही है बदन से

शहरी बाबूओं की नज़रों में 

सेक्सी हो गये हो तुम

लेकिन मैं ठहरा गवईं, 

मुझे तो लग रहे हो तुम 

एक सजी सँवरी बेजान मूरत से 

सच कहूँ नितांत अजनबी से लग रहे हो तुम !!


अचानक दिल में एक टीस सी उठी है 

आँखों से पैनाले बह चले हैं 

तुम हाँ तुम....कोई और हो

खोज रहा हूँ मैं तो 

अपने खोये हुए महबूब को !!


(महबूब से मतलब अपने गाँव से है)

मैं हूँ राधा : विजया

 मैं हूँ राधा...

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मैं हूँ प्रेम की पूर्ण परिभाषा 

मैं हूँ प्रेम की आबोली अनलिखी भाषा...


मैं हूँ राधा,

मैं नहीं हूँ आकर्षण 

रूप और यौवन का 

ना हूँ मैं पिपासा अधरों की 

ना ही मैं रसिक का रास हूँ 

ना हूँ मैं कोई मूरत माटी की 

ना ही मोहताज 

किसी परिपाटी की...


कान्हा !

मैं तो हूँ अंदर तुम्हारे

बाहर कहाँ ?

कहाँ हूँ मैं अलग तुम से 

झांको ज़रा

मैं हूँ समायी तुझ में

देखोगे तुम यदि बाहर 

पाओगे बिछुड़ी हूँ तुम से मैं...

ऐसे में मेरे कान्हा !

कैसे समेटोगे मोहे 

अपनी बाहों में ?


कान्हा !

दूर हो कर भी 

तुम्हारे सब से पास हूँ 

मैं तो तुम्हारी श्वास-निःश्वास  हूँ 

तुम्हारे अश्रु हूँ, तुम्हारा मृदु हास हूँ 

मैं तुम्हारे हृदय की एकाकी आस हूँ....


कान्हा !

मैं ही तुम्हारी तन्हाई हूँ 

मैं तो तुम्हारी परछाई हूँ 

तुम्हारे सभी संबंधों में गौण हूँ 

मैं तो बस एक चिर मौन हूँ 

तभी तो प्रश्न यह अबूझ 

जिह्वा पर सब के 

मैं कौन हूँ, मैं कौन हूँ ?

Monday 2 October 2023

भीतर और बाहर

 भीतर और बाहर 

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सत्य जीवन के 

नहीं पाए जा सकते हैं बाहर 

तारों और ग्रहों के विस्तृत अध्ययन में 

वे तो समाये होते हैं 

हमारे ही भीतर की गहराइयों में 

हमारे हृदय की शोभा में  

मस्तिष्क की शान में 

और आत्मा की भव्यता में,

नहीं समझ पाते हैं हम जब तक 

क्या बसा है हमारे अंतर में 

नहीं जान पायेंगे हम 

विषय बाहर के...

कौन थी राधा : क्या थी राधा

 कौन थी राधा : क्या थी राधा 

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नहीं थी राधा कोई दैहिक स्त्री 

प्रतीक थी वह तो कृष्ण भाव की...


स्त्री अंग होता है प्रत्येक पुरुष में 

और पुरुष अंग प्रत्येक स्त्री में 

मनोभावों में भी होता प्राबल्य 

स्त्रेण और पुरुषैण भावों का 

तथ्य हैं ये जैविकी और मनोविज्ञान के...


कुछ ऐसा ही 

नैसर्गिक और आत्मिक संबंध था वह 

नैतिक अनैतिक  मानदंडों से हटकर 

ना हो सकता है यह घटित 

पति पत्नी के बीच 

ना ही बॉय फ़्रेंड और गर्ल फ़्रेंड के बीच 

यह ना तो शारीरिक है ना ही भावात्मक 

इसीलिए तो समा जाता है इसमें 

व्यक्तिव का हर तल...


यदि देखें दक्षिण से वाम को 

राधा पढ़ी जाएगी धारा, 

बहती है भाव धारा 

यदि उच्च से निम्न को 

मिले होते हैं विकार उस में 

और बहती है धारा जब निम्न से उच्च को 

हो जाती है विशुद्ध होकर राधा

समा गई थी 

ऐसी संपूर्ण राधा कृष्ण में...


माँगता है आज का पुरुष भी वही समर्पण 

क्या बन सकती है आज कोई राधा ?

किंतु पूछती हूँ मैं 

क्या कोई कृष्ण है कहीं ?

सहोदरी...


सहोदरी 

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सहोदरी !

मेरी प्यारी दीदी!

पहली बारिश की रिमझिम है 

मन भी हुआ मयूर सम है 

अन्दर बाहर झम झम है 

दिल चाहे नाचना छम छम है 

मेह नेह बन बात करे 

बिजली चमक झंकार करे 

बादल बजा रहे ढोल नगारे

पाँव थिरकते धुन पर सारे 

जल में कमल खिल खिल रहे हैं 

धरती आकाश मिल मिल रहे हैं 

प्रकृति ख़ुशी से बरस रही है 

देखो हरियाली सरस रही है 

चलो ना,

चलो ना

सहोदरी !

मेरी प्यारी दीदी !

मोर बनी थंगट करें

मोर बनी थंगट करें...


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नोट्स :


१-फ़्रेंच पेंटर William-Adolphe Bouguereau (1825-1905) की A Little Coaxing" title की डबल पोर्ट्रेट पेंटिंग है. इसमें दो बहने हैं. Coaxing का अर्थ है मीठी मीठी बातें करके मनाना.

कविता में छोटी बहन, बड़ी बहन को मना रही है, dance के लिए.  


२-थंगट  या थंगाट गुजराती नृत्य है जिसमें गरबा और डांडिया नृत्य होते हैं.  थंगट पहली बारिश में मोर सा नाचना है उल्लास और ऊर्जा के साथ.


माटी का पुत्र : विजया

 लाल बहादुर शास्त्री जी की जन्म जयंती पर 

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माटी का पुत्र 

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क्यों चल दिया अचानक 

धरा विदेशी पर 

आज ही रहस्य है,

जो भी किया वह है ज़ाहिर 

ठोस, अनुपम और दूरगामी 

आज भी अनुकरणीय है...


क़द काठी छोटी थी

तो क्या हुआ 

इरादे बुलंद थे 

हरा दिया था दुश्मन को 

सोच और निर्णय 

उनके स्वच्छंद थे...


भूख मिटाने का 

संकल्प भी कितना 

गहरा था 

"जय जवान जय किसान" का उद्घोष 

सुनहरा था...


हमारा यह द्वितीय प्रमुख 

जिसने पाया था अल्प कार्यकाल 

भारतीयता से ओतप्रोत था 

माटी का यह पुत्र 

प्रेरणा का अविरल स्त्रोत था...

Sunday 10 September 2023

बोथ वे ट्रैफिक : विजया

 बोथ वे ट्रैफिक....

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खूब सुने हैं "सरमन"

पढ़ा, जाना और समझा भी है 

गूढ़ ज्ञान उस ऊँचे वाले प्रेम का 

जो हुआ करता है 

अप्रयास,अपेक्षा रहित सहज नैसर्गिक...


नहीं इनकार मुझे 

इस पावन भाव से 

जो अलौकिक है,दिव्य है, 

और है परम पवित्र,

होता है जो घटित 

पूर्णत: मुक्त हो जाने पर 

हमारे मोह माया लोभ अहंकार से 

किंतु लग जाती है उम्रें ऐसा हो जाने में 

तो क्या नहीं पियें हम यह अमृत 

क्या नहीं जियें हम इस दिव्यता को ?


हमारे आपसी रिश्तों में 

अपना सकें हम यदि निश्छल प्रेम 

बदल जाएगा अन्दाज़ रिश्तों को जीने का,

बेहद ज़रूरी है रिश्तों में होना 

प्यार के एहसास की नमी का 

रेत भी हो ग़र सूखी 

तो निकल जाती है वह मुट्ठी से...


मेरे दोस्त सुन !

रिश्तों में अकड़ नहीं,

चाहिए होती है पकड़

एहसासों में महसूस होती है जो अदृश्य सी 

जिसे कह सकते हैं थामना...

हाथों में हाथ देकर या लेकर आग़ोश में 

तकलीफ़ में साथ देकर 

लड़खड़ाने पर संभाल कर 

या दे कर  कंधा अपना 

ताकि कर सके कोई बौझ हल्का दिल का...


और "वन वे" नहीं,

यह होना चाहिए "बोथ वे"

ताकि ज़िंदगी का ट्रैफिक 

बिना किसी ब्लॉकेज के 

चल सके लगातार,

बात सिर्फ़ आपसी व्यवहार की है 

जो मानवीय है,ज़मीनी है, 

किताबी या अपवाद सा नहीं...

सपने और हक़ीक़त

 सपने और हक़ीक़त : एक और आयाम 

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सपने नहीं रहते फ़क़त सपने 

बन जाते हैं वे जब हक़ीक़त ज़िंदगी की 

ना बिखरते हैं ना टूटते हैं 

बस जिये जा रहे होते हैं 

ख़ुशगवारी के साथ पुरजोश पुरहोश 

छुपाने लुकाने को कुछ भी नहीं होता 

दिल में उमंग अधरों पर मुस्कान 

और फिर से कुछ और नये सपने 

बंद आँखों के भी, खुली आँखों के भी...


क्यों उलझें हम 

सपनों और हक़ीक़त के अंतर को खोजने में 

क्यों ना जियें हम हर पल 'यहीं और अभी'*

इसी सोच के साथ 

कि यही तो है पल आख़री...


टूट जाते हैं ज़िंदगी के आईने 

अक्सर हमारी ही गफ़लत से 

या कुछ ऐसी वजह से 

होता नहीं अख़्तियार जिस पर हमारा 

देख सकती है हमारी होशमंदी दोनों को ही 

और बिना ज़ाया किए समय और ऊर्जा 

चुन लेनी होती है हमें कोई राह 

जिसमें विगत से ना चिपक कर 

आगत की तरफ़ बढ़ जाने का जज़्बा हो ...


होते हैं हम अभिनेता ही 

निबाहते हैं बहुत सी भूमिकाएँ 

क्यों ना अभिनय करें हम इस तरह जैसे जी रहे हों जीवन 

क्यों ना जियें हम इस कदर जैसे कर रहे हों अभिनय 

आख़िर हो जाना है हम सब को ही तो रूखसत 

इस दुनिया के रंग मंच से...




Monday 24 July 2023

उत्तर माँगती है हर स्त्री : विजया

 उत्तर माँगती है हर स्त्री 

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सीता तू संस्कारी ही रही 

और 

राम, ना जाने क्यों 

आप रहे मात्र पुरुष परम्परावादी ?


स्वीकारा था वनवास आपने 

पितृ आज्ञा की परंपरा निबाहने 

चल दी थी सीता 

छोड़ कर सब सुख वैभव 

साथ आपका देने...


आया था एक समय 

सुन कर किसी की अनर्गल बात 

भेज दिया था आपने 

हे "मर्यादा पुरुषोत्तम" !

सिय को अकेले अरण्यवास को 

क्यों नहीं गए गर्भवती निरीह स्त्री संग

छोड़ कर सिंहासन अयोध्या का ?


क्या नहीं थी सीता 

एक प्रेयसी 

एक सहधर्मिणी

एक संगिनी 

एक सहचरी,

अरे आप तो ठहरे 

राजधर्म के नशे में चूर एक पुरुष 

समूह के मनोविज्ञान के अन्तर्गत 

आदर्शों को जीने का उपक्रम करने वाले, 

दे देते न्याय जानकी को 

कम से कम प्रजा समझ कर ?


उत्तर माँगती है हर स्त्री आज 

अपने इन अबूझ प्रश्नों का...

Friday 21 July 2023

आग सावन की : आकृति



आग सावन की 

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भीगे तन 

भीगे मन 

भीगे नयन,

होता है तरल ईंधन 

रंगहीन गंधहीन 

ठंडा ठंडा लगता 

कहलाता है जो पानी 

सावन रूत में बरसा 

किंतु लगा देता है अगन 

जल जल जाते 

तन, मन और नयन.

कृष्ण नीति : आकृति

 कृष्णनीति 

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नहीं समझते कोई दोष श्री कृष्ण 

अधर्मी को मारने में

छल हो तो छल से, 

कपट हो तो कपट से,

अनीति हो तो अनीति से,

अधर्मी को नष्ट करना ही 

होता है  "ध्येय" कर्म योगी का


इसीलिए दी थ्री शिक्षा 

केवल कर्म करने की 

कृष्ण ने अर्जुन को


धँस गया जब 

कर्ण के रथ का पहिया 

कीचड़ में 

देख कर संभावना और तत्परता 

प्राणहन्ता वार की अर्जुन द्वारा 

संकट में घिरे कर्ण ने 

कहा था अपनी ऊँची ध्वनि में 

"यह तो "अधर्म "है !

अधर्म है यह"


कहा था श्री कृष्ण ने,

अभिमन्यु को घेर कर मारने वाले,

और द्रौपदी  को भरे दरबार में 

वेश्या कहने वाले के मुख से 

नहीं देता शोभा 

आज धर्म की बातें करना


और कह दिया था श्री कृष्ण ने,

अर्जुन ! मत दो ध्यान 

कर्ण के विलापों पर 

आ गया है अब अवसर 

कर देने का अंत 

छद्म नैतिकता के भ्रम को

जीने वाले इस कौरव सेनापति का 


और 

नहीं चूका था 

अर्जुन महाभारत का

नज़रिया : विजया

 नज़रिया 

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एक घड़ा 

जल से भरा 

एक कटोरी 

घड़े को ढके,

दोनों ही अर्थपूर्ण 

दोनों का ही काम 

महत्वपूर्ण...


घड़ा जानता था 

बहुत ही अहम है 

कटोरी का रोल 

वह ना हो तो 

जल में हो जाए 

रोलम पोल...


घड़ा भी जल संग्रह कर 

औरों की प्यास बुझाता था 

ख़ाना बनाने के लिए 

शुद्ध पानी मुहैया कराता था...


कोई किसी ने 

लगाया होगा पलीता 

कुछ रही होगी 

कटोरी की  स्वयं की 

श्रीमद्भ्रमगीता...


कटोरी को ना जाने क्यों 

आ गया था 

हीन भाव एक दिन 

मैं क्यों रहती हूँ हमेशा 

जल बिन...


बोली थी कटोरी उस दिन घड़े से 

आता है प्रत्येक बर्तन 

जो भी पास तुम्हारे 

भर देते हो उसे 

शीतल नीर से बिना कुछ बिचारे...


बोली : तुम्हारा रवैया है 

पक्षपात भरा 

याद है क्या, तुम ने कभी भी 

मुझे जल से भरा...


सुन कर बात कटोरी की 

घड़ा था मुस्कराया 

उसकी मंद मुस्कान देख 

कटोरी का पारा था चढ़ आया...


तुम ने ना देकर जवाब मेरे सवाल का 

हंसी मेरी है उड़ाई 

होकर आग बबूला 

कटोरी थी चिल्लायी...


मैने ना तो किया पक्षपात 

ना ही तुम्हारी हंसी उड़ायी 

ज़रा सोचो और देखो ध्यान से 

समझो बात की गहराई...


जो भी बर्तन आता है पास मेरे 

पाने को दान जल का 

झुकता है होकर विनीत 

नहीं करता है दंभ पल का...


तुम हो कि होकर चूर गर्व से 

मेरे सिर पर ही डटी रहती हो 

क्यों झुकूँ मैं नीचे 

बस इस ग़ुरूर में फटी रहती हो...


नीचे उतर देखो तनिक झुक कर 

भर जाओगी तुम भी शीतल जल से 

होकर परिपूर्ण एक दफ़ा 

शायद तुम्हें ना होगी शिकायत मुझ से...


अपने को भूल कर 

करना तुलना औरों से 

है निशानी हीन भावना की 

तू मेरी रक्षक मेरी सरताज 

संगिनी मेरी चाहना की...

Sunday 9 July 2023

सुहानी हरियाली : विजया

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दोस्ती  उस से भी पहले की है और आज भी वही प्राथमिक है .हाँ आज से ५२ साल पहले हम दोनों के रिश्ते पर समाज और परिवार की मुहर लगी थी. ये पाँच दशक सब रंगों से भरे रहे और अब भी जारी है. कुछ लिखा उसे "साहेब" को डेडिकेट कर रही हूँ. आप सब का साथ बहुत मोटिवेटिंग है.

🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹🔹


सुहानी हरियाली 

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हरा है रंग कुदरत के जन्म का 

घूमता है जीवन इन्ही रंगतों के चहूँ ओर

प्रिय ! चले आओ 

और ले लो टुक महक 

इस कोमल शबनमी दूब की...


याद है ना तुम्हें 

गर्मियों के वो दिन

हम दोनों होते थे खुले आकाश तले 

और दिखते थे हमारे नाम लिखे हुए बादलों पर

अटूट और अनसुने, हम एक ही तो थे 

ढूँढ लिया था चैन और सुकून हमने अपने लिए 

इस खूबसूरत और अलग सी दुनिया में...


ख़ुद में एक जश्न थी 

कुदरत की दरियादिली

और चारों जानिब फैली हुई हरियाली 

कितना आनंद था 

खुली घाटियों और पहाड़ियों में दौड़ने में 

बढ़ जाता था जो और 

बारिश के बाद आकाश में उभरे  इंद्रधनुष से 

वो प्यार भरे आग़ोश और दर्द का काफ़ूर हो जाना 

बहुत से बूटे और अनगिनत ख़ुशबूएँ 

कर देती थी प्रफुल्लित मेरे संवेद और संवेगों को 

याद करो उन सुहाने  दिनों को 

कितना जवान मस्त और अल्हड़ था 

जीवन हमारा 

घूमा करता था जो इर्द गिर्द पेड़ों के...

अक्स

 

अक्स 

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ऐसा ही अक्स कुछ देखता था मैं 

जब हाथ में हाथ लिए 

सड़क पार किया करते थे हम 

तुम्हें इमली, लपसी और हलुआ बेर पसंद थे 

तो मुझे गोंदपाक, लालमोहन और छुरपी

साझा ही ख़रीदते और खाते थे 

ज़्यादा हिस्सा होता था 

खाने में मेरा और खर्चने में तुम्हारा...


ना जाने कब फ्रॉक 

सुनहरी पट्टी वाली साड़ी में बदल जाती थी 

हरा मख़मली जंपर 

टीस्यू सिल्क की किरमची साड़ी 

कानों में झुमके 

गले में ख़ानदानी हार 

नाक में बाली 

आँखों में काजल 

अधरों पर लाली 

भाल पर बिंदी 

केशों को यूँ ही समेट कर लगाई 

गुलाबपत्तियों से बनी वेणी

गरिमा भरा आभामंडल 

गहनता के स्पंदन...


याद है ना 

बाबर महल* की दीवार पर लगी 

राजा रवि वर्मा की वह पेंटिंग

दिलों में बस गई थी 

तुम अपलक उसे देख रही थी 

और मैं तुम को

हम दोनों ही बिन बोले 

खुली आँखों से एक सपना देख रहे थे

इस बात से नितांत अपरिचित 

कि स्त्री-पुरुष प्रेम क्या होता है 

बस यही मालूम था और महसूस भी होता था 

साथ साथ जीना ही ज्यूँ सर्वोपरि 

यह एहसास तब भी था और आज भी है 

परिभाषाओं को जीते हुए भी उनसे परे भी...


कितने ही दशक का सफ़र 

कर आये हैं हम पूरा 

जारी है आज  भी 

साथ चलते रहने का यह ख़ुशगवार सफ़र 

सब कुछ का बदलते रहना कुदरतन है 

मगर इन सब के बीच 

ना बदली है तो एक सच्चाई 

बचपन, जवानी, मध्य वय, वरिष्ठता 

विपन्नता-संपन्नता, दूरियाँ-नज़दीकियाँ 

कभी ना रोक पाती है 

मुझे तुम में यह अक्स देखने से...


*नेपाल का राणा महल जो काठमांडू में बागमती नदी के उत्तर में स्थित है.

तवक्कों मेरी : विजया



तवक्को मेरी 

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जुदा हो सकता है ना 

'जस का तस'  हर एक का 

पैंट कम्पनी के इश्तिहार के 

'मेरे वाले  पिंक' के मुआफ़िक़..


क्यों भूल जाते हो 

सवाल नज़र और नज़रिए का 

वक़्त और हालात के सच को

और हक़ीक़त ज़ेहनी हुदूद की..


माना कि हटते ही मलबे के 

उभर आना है सच को

मगर ग़ैर मुनासिब तो नहीं 

तवक्को मेरी सब्र और मोहलत की...


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जेहनी हुदूद = मस्तिष्क की सीमायें

तव्वको=अपेक्षा

उसूल प्यार के : आकृति

 उसूल प्यार के...

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1)


झूठ है ये 

के पहली मोहब्बत 

औरत की होता है मर्द 

सच फ़क़त ये 

के आईना को हासिल है 

नसीब पहले महबूब होने का...


2)


नाम आने लगा था मेरा 

बेरोज़गारों की फ़हरिश्त में 

रखने को मशरूफ़ ख़ुद को 

चाहने लगी मैं तुझ को...


3)


अजीब होते हैं 

ये मुए मर्द भी 

करने लगते हैं मोहब्बत 

देख कर जिस्म औरत का...


होती कहाँ है जनाब 

ये औरतें भी कम,

दिखा कर जिस्म मर्दों को 

रखा करती है उम्मीद 

इज़्ज़त की...


4)


सीखो ना चमन से तुम 

प्यार के उसूलों को 

ज़ख़्म देते नहीं जहां काँटे 

अपने हमसाया फूलों को...

Friday 16 June 2023

हकीम ख़ान : महाराणा प्रताप का साथी : विजया

 प्रताप जयंती पर विशेष 

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माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप,

अकबर सूतो ओझकै, जाण सिराणै साँप...


(हे माता ऐसे पुत्रों को जन्म दे, जैसा राणा प्रताप है,

जिसको अकबर सिरहाने का साँप समझ कर सोता हुआ चौंक पडता है.)


हकीम ख़ान : एक महान योद्धा और महाराणा प्रताप के दोस्त..

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🔹इनका जन्म 1538 ई. में हुआ था. ये अफगान बादशाह शेरशाह सूरी के वंशज थे. महाराणा प्रताप का साथ देने के लिए ये बिहार से मेवाड़ आए व अपने 800 से 1000 अफगान सैनिकों के साथ महाराणा के सामने प्रस्तुत हुए.


🔹हकीम खान सूरी को महाराणा ने मेवाड़ का सेनापति घोषित किया. हकीम खान हरावल (सेना की सबसे आगे वाली पंक्ति) का नेतृत्व करते थे | ये मेवाड़ के शस्त्रागार (मायरा) के प्रमुख थे. मेवाड़ के सैनिकों के पगड़ी के स्थान पर शिरस्त्राण पहन कर युद्ध लड़ने का श्रेय इन्हें ही जाता है.


 🔹हकीम खान सूरी एक मात्र व्यक्ति थे जो मुग़लो के खिलाफ मुसलमान होते हुए भी महाराणा प्रताप की तरफ से लड़े. जबकि कई राजपूत राजा उस समय अकबर की तरफ से लड़े थे. हकीम  ख़ान हल्दीघाटी के युद्ध मे लड़ते लड़ते शहीद होकर अमर हो गए.


🔹उनकी मजार के बारे में यह प्रचलित है कि महाराणा और अकबर की सेना के बीच युद्ध के दौरान मेवाड़ के सेनापति हकीम खान सूरी का सिर धड़ से अलग हो गया था इसके बावजूद भी कुछ देर तक वे घोड़े पर योद्धा की तरह सवार रहे. कहते हैं कि मृत्यु के बाद हल्दी घाटी में जहां उनका धड़ गिरा.

अतीक

 तस्वीर और तहरीर 

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स्वकथ्य : 


(१)लम्बे समय से कविताएँ लिख नहीं पा रहा हूँ, अपनी पहले की या स्व. राज जी की रचनाएँ पटल पर पोस्ट करता रहता  हूँ. एक उपन्यास के प्रकल्प के सिलसिले में जो लिखना आरम्भ हुआ था वह भी अटका पड़ा है. 🙁


(२)धन्यवाद मेरी संगिनी  विजया का जो इस "माठ" वाली (ग्रेसफुल) रजपूतनी के चित्र को चुन कर दिया और इस पर मुक्तक टाइप्स कुछ लिख पाया. टाइप्स इसलिए कि मात्राओं के क़ायदे का पालन नहीं किया है 😃.


(३) अतीक शब्द का अर्थ कुलीन/नोबल/ से हैं आजकल जो नाम चल रहा है उस से नहीं 😃😃.


(४) रचना में रजपूती पोशाक और गहनों का प्रतीकात्मक उल्लेख है. एक तस्वीर शेयर कर रहा हूँ जिसमें बहुत से पारंपरिक ज़ेवर दिखाए गये हैं. 


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अतीक

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गर्वपूर्ण सुंदर चेहरे पर दिखे गौरव है 

मंथर गति में गरिमामय सौंधी सौरभ है 

नयनों की गहनता का करूँ क्या वर्णन 

क्षत्राणी-स्वभाव में समाहित पौरव है...


जड़ाऊ बोरला तेरे सुहाग का प्रतीक है 

मुक्ता लड़ सीमांकन बताती सटीक है 

आड़ या हंसली बनी है शोभा ग्रीवा की 

चूड़ छड़ करनोला पायल नथ अतीक है...


रनिवास की पोशाक हल्की केशरिया है 

कांचली, कुर्ती, ओढ़ना रेशम घाघरिया है 

रूप सज्जा में धज किंतु कोमल है मनुआ 

अप्सरा या माँ दुर्गा दमकती तेरी बिंदिया है...


थामे आरती-थाली करों की मुद्रा अनुपम है 

असंतुलन नहीं कुछ भी सभी यहाँ तो सम है 

दीपक पत्र पुष्प सुगंध, कुंभ में है गंगाजल 

विदाई घड़ी हृदय भीगा,कोर नयन की नम है...

छद्म भावुकता और संवेदना

 छद्म भावुकता और संवेदना 

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कोई दो राय नहीं हो सकती, बालासोर-उड़ीसा के पास कोरोमण्डल एक्सप्रेस का हादसा एक दिल को विचलित करने वाली एक बहुत बड़ी दुर्घटना है. 


मानव पीड़ा और संवेदना ज्वार आ गया. जो विक्टिम हुए और उनके अपनों की पीड़ा गहरी.... स्थानीय उदारमना लोगों, श्रमिकों, प्रशासनिक कार्यकर्ताओं,  ज़िम्मेदार रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने रोल. विपक्ष के राजनीतिबाज़ों के स्टेटमेंट्स में बिंबित राजनैतिक रोटियाँ सेकने की प्रवृति और फिर सत्तापक्ष के जवाब सवाल एक अलग ही सीन जो गुड टेस्ट में नहीं जा रहा लेकिन जो है सो है. मानवीय भूल थी, लापरवाही या साज़िश सामने आ जाएगी बस वक़्त की बात है. हर हादसा कुछ सीखा देता है आगे ऐसा होने से बचने के क्या उपाय किए जाय... मानव विवेक हमेशा evolve करता रहता है. 


कल एक मित्र मिले, फ़ोन में हादसे के बहुत से  वीडियो लिए हुए. बोले : बहुत ग़मगीन हूँ,  मन नहीं लग रहा, नींद नहीं हो रही, चिंता में घुले जा रहा हूँ, स्ट्रेस्ड हूँ इत्यादि इत्यादि. 


मुझे एक "विदुषी" का वृतांत याद आ गया, सुशांत सिंह राजपूत की बेवक़्त मौत के समय कई दिन ऐसी ही बातें करती रही थी, अपने कोमल मन का नित्य नये शब्दों में उस दिन/रात की घटनाओं/सपनों की बात करती थी.😊


मनोविज्ञान और दर्शन के अध्ययन के साथ ज़िंदगी को सूक्ष्मता से नज़दीक से देखता हूँ इसलिए मुझे कच्ची या छद्म भावुकता और संवेदनशीलता का अंतर काफ़ी हद तक समझ में आ जाता है. कुछ देर बातें हुई और मैने मित्र को प्रपोजल दिया कल्ब चलते हैं तुम्हारे ग़म को ग़ायब करते हैं दो दो पेग हलक से उतारेंगे, अलग माहौल में अलग महसूस करेंगे....क्यों ठीक ना ?


कल हमने जो शाम गुज़ारी उसने फिर कच्ची/छद्म भावुकता और संवेदना का अंतर जता दिया. कुछ ज़्यादा हो गई थी😊मित्र को उनके घर छोड़ा तो अलविदा के समय उन्होंने कहा : "यार बिलकुल भी दिल नहीं है क्या तुम्हारे पास ? लगता है भावनाएँ तुम्हारी मर सी गई है, यह कोई दारू पीने का मौक़ा था. तुम्हारी बात टाल नहीं सकता था सो कंपनी के लिए तुम्हारे साथ चल दिया. anyways thanx for everything ! फिर मिलेंगे वीक एंड में और चर्चा करेंगे, तुम्हारी सोई हुई संवेदना को जगाना जो है."


मैने उनको बाँह थाम कर एलेवेटर तक पहुँचाया. १ से १३ तक के अंक वॉच करता रहा, पाँच मिनट रुका, ख़ाली एलेवेटर को बुलाया...देखा, कॉल किया, भाभी से कन्फ्रम किया....मित्र गुनगुनाते हुए गृह प्रवेश कर चुके थे.😊

देना और लेना : विजया

 देना और लेना-Give and Take

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देने और लेने दोनों का संतुलन ही सामान्य जीवन का उचित क्रम है । "वन वे ट्रैफिक है दोस्ती और प्रेम" "बस देते ही रहना चाहिए", "कभी भी परवाह ना करें कि अगला मुझे क्या देता है-आप बस देते जाइए", "अपेक्षा काहे की" इत्यादि...अक्सर जो ऐसी बातें करते हैं वे सब से बड़े और आदतन भी Takers याने लेने वाले होते हैं और ऐसे एक तरफ़ा ज्ञान के द्वारा Givers का शिकार करते हैं । आज एक कहानी पढ़ रही थी, अच्छी लगी, पटल पर शेयर कर रही हूँ ।


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किसी शहर में एक भिखारी रहता था। वह ट्रेन में लोगों से भीख मांगा करता था। एक दिन जब वो भीख मांग रहा था, तो उसे एक सेठजी नजर आए। उसे लगा कि सेठजी उसे ज्यादा पैसे देंगे। ये सोचकर वो सेठ के पास पहुंचा। सेठ से उसने भीख मांगी। सेठ ने उससे कहा कि- अगर मैं तुम्हें पैसे दूंगा तो बदले में तुम मुझे क्या दोगे।


सेठ की बात सुनकर भिखारी ने कहा कि- मैं आपको क्या दे सकता हूं? सेठ ने कहा- अगर तुम मुझे कुछ नहीं दे सकते तो मैं तुम्हें पैसे क्यों दूं? भिखारी जब अगले स्टेशन पर उतरा तो उसे सेठ की बात याद आई। तभी उसकी नजर सड़क किनारे उग रहे फूलों पर पड़ी। भिखारी ने वो फूल तोड़ लिए।


अब जो भी भिखारी को पैसे देता, बदले में वो उसे एक फूल देता। कुछ दिनों बाद ट्रेन में भिखारी को वही सेठजी नजर आए। भिखारी ने उनके पास जाकर कहा- आप मुझे पैसे दीजिए, बदले में मैं भी आपको कुछ दूंगा। सेठ ने जब पैसे दिए तो बदले में भिखारी ने उन्हें फूल दिया। ये देखकर सेठजी खुश हुए।

सेठ ने भिखारी से कहा कि- अब तुम भिखारी नहीं बल्कि एक व्यापारी बन गए हो। सेठ की बात भिखारी को समझ आ गई। 


इस घटना के कुछ साल बाद जब वो सेठजी एक ट्रेन में सफर कर रहे थे, उनके सामने एक आदमी आकर बैठ गया। उसने सेठ से कहा कि- आज आपकी और मेरी तीसरी मुलाकात है।

सेठ ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा और कहा कि- नहीं हम आज पहली बार मिल रहे हैं। उस आदमी ने कहा कि- आपने मुझे पहचाना नही। मैं वही भिखारी हूं, जो पैसे के बदले लोगों को फूल देता था। जब आपने कहा कि तुम भिखारी नहीं बल्कि एक व्यापारी हो, तभी से मैंने भीख मांगना छोड़ दिया और फूलों को व्यापार करने लगा।


आज मेरा फूलों का अच्छा-खासा व्यापार है। आपकी एक सोच ने मेरी जिंदगी बदल दी, नहीं तो मैं आज भी ट्रेनों में भीख रहा होता। उस आदमी की बात सुनकर सेठ ने कहा कि- तुम्हारी सफलता का कारण मैं नहीं बल्कि तुम खुद हो। तुमने अपनी सोच को बड़ा किया और असंभव को संभव कर दिखाया।


कहानी का मोरल :

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जिंदगी में कुछ भी असंभव नहीं है, जरूरत है तो बस अपनी सोच का दायरा बढ़ाने की। जिस दिन आपने अपनी सोच को बड़ा कर लिया, उस दिन आपको दुनिया की हर वो चीज मिल जाएगी, जो आप चाहते हैं। बड़े सोच में देने और लेने के क्रम को संतुलित किया जाता है ना कि एक तरफा "लेना" या "देना" चलाया जाता है ।

गिवर्स एण्ड टेकर्स उर्फ़ दास्ताने यूज एण्ड थ्रो

 विदुषी का विनिमय सीरीज़ 

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गिवर्स एण्ड टेकर्स उर्फ़ दास्ताने यूज एण्ड थ्रो 

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मोटे मोटे तौर पर हम लोगों के दो वर्गों में देख सकते हैं : देनेवाले (Givers) और वसूलने वाले (Takers).  प्रवृतियों में किस लक्षण की प्रमुखता और प्राबल्य है इसे हम आकलन के लिए मान दंड के रूप में ले सकते हैं.


रोज़ मर्रा के व्यवहार में बहुत कम मिसालें होती है ऐसे टेकर्स की जो वंचित और मजबूर होते हैं और गिवर्स से तहे दिल से जुड़ा सहयोग पाते हैं एवं गिवर के प्रति अहोभाव/कृतज्ञता के भाव भी दिल में बसाये रखते हैं, इन भावों को प्रामाणिकता के साथ अपनी गतिविधियों में भी बिंबितकरते हैं. इस नोट में हम ऐसे सकारात्मक टेकर्स की बात नहीं कर रहे हैं, इस विषय पर फिर कभी बतियायेंगे.


बहुत से टेकर्स या तो चालू-चालाक होते हैं या अव्वल दर्जे के ढीठ या दोनों का मिश्रण. उनके बेक ऑफ़ माइंड में अपने शिकार को हलाक करने का जज़्बा होता है. उनके वसूली के एजेण्डे में ना केवल भौतिक चीजें जैसे दौलत, सुख सुविधाएँ, फ़ेवर्स, जिस्मानी सुख आदि विषयवस्तु होते हैं बल्कि प्रेम, दोस्ती, संबंध, आध्यात्म आदि के दिखावे/फ़ंटसीज़  भी मीनू में आते हैं. 


ऐसे संवेदन शून्य लोगों की प्राथमिकता अपना क्षुद्र स्वार्थ साधन होता है और वे इसके लिए भावुक बेवक़ूफ़ों की तलाश में रहते हैं जो उनके जाल में फँसने को तत्पर होते हैं. चूँकि कोई भी कमिटमेंट और कनविक्शन इन वसूलीबाज़ों का नहीं होता इनके खोखले शब्द कुछ भी लंबा चौड़ा कह देते हैं जिसे भावुक "गिवर" फ़ेस वैल्यू पर ले कर निरंतर फँसता जाता है. 


ये चतुर चालाक "टेकर्स" मैनिपुलेटिव स्किल्स" (हेराफेरी का कौशल) के मालिक होते हैं, बहुत ही स्लिपरी (चिकने) होते हैं, याने चिकने घड़े. सैद्धांतिकता और आत्मीयता की बातें करके माहौल बनायेंगे..आपकी शान में तरह तरह के Unusual क़सीदे पढ़ेंगे जो वस्तुत: दो धारी तलवार जैसे होते हैं....जैसे परिवार और समाज से दबे इंसान को कहेंगे-तू बहुत धैर्य वाला है, सहनशील है...तुम जैसे लोग देखने को नहीं मिलते आज के जमाने में और साथ ही साथ उसकी कमज़ोरियों और दब्बूपन को भी घूमा फिराकर कोसेंगे...अपने आज़ाद होने का दम भर के उसमे अहसासे कमतरी के एहसास इंजेक्ट करेंगे. इस तरह क्रमशः ये कुटिल लोग  उस इंसान को अपने भावनात्मक क़ब्ज़े में कर लेंगे....ऐसे शिकारों का खूब इस्तेमाल करेंगे और मज़े की बात यह कि ये विक्टिम्स भी ख़ुद को इनका मुरीद मानते हुए हमेशा बहुत कुछ करते रहेंगे बिना किसी अपेक्षा के. ये होशियार टेकर लोग अपने हर रिश्ते को एक अलग "कोठरी" में रखते हैं और दूसरों को उसकी भनक तक नहीं लगने देते, इस तरह ये अपनी मन मर्ज़ी से शिकार को अपने बनाए एकांत में नोंच नोंच कर किश्तों में खाते रहते हैं. ये छोटी छोटी सेवाओं से लेकर बड़े बड़े फ़ेवर अपनी इन मादक फसलों को काटते हुए रीप करते रहते हैं. चूँकि इनकी कोई मूल्य निष्ठा नहीं होती और "इस्तेमाल करो और फेंक दो" की मान्यता रखते हैं, ये बेकाम हो गये लोगों को अपनी ज़िंदगी से डम्प कर देते हैं, हाँ एक छोटा सा एंकर/अटकाव भी बनाए रखते हैं फँसाने के काँटे की तरह ताकि जब चाहें "Happy Days are here again" वाला समाँ फिर से बांध सके. ये लोग इतने बेशर्म होते हैं कि आज जिस बात को कहा, कल उसके डायामेट्रिकली अपोजिट कहानी कर देंगे, जब पॉइंट आउट होगा तो पहले का कहा सिरे से नकार देंगे या कोई इंटेलेक्चुअल एक्सप्लेनेशन हाज़िर कर देंगे.


हाँ, हमारी नायिका विदुषी का व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा ही था. बहुत शिकार कथाये हैं उसके  जीवन की. ऐसा नहीं कि उसने  अपने करतबों को जस्टिफाई नहीं किया हो क्योंकि बात चीत के दौरान या पकड़े जाने पर अकाट्य तर्कों और युक्तियों के सहारे वह अपने कृत्यों को आधार देने की कुचेष्टा करती थी यह बात और थी कि सोचों की गहराइयों में वह जानती थी कि वह ग़लत 

है और दूसरा उदार होकर उसके कल्याण के लिए ही सुन रहा है और सुझाव दे रहा है. 


शालिनी नामक महिला का क़िस्सा ही लें. 


शालिनी भी  उसी काम्प्लेक्स में रहा करती थी. बहुत ही शालीन, धैर्यवान संस्कारी और मृदु स्वभाव वाली महिला थी शालिनी जी . अपनी भलमनसाहत, उदारता और कर्त्तव्य बोध के कारण जो वस्तुत:  त्याग और सौहार्द की एकतरफ़ा भावना और सैद्धांतिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण था के चलते जॉइंट फ़ैमिली में शोषित हो रही थी. बिना कहे हरदम सहे, वाली प्राणी थी शालिनी . इसका  सीधा असर शालिनी के मन तन पर पड़ता था. ये मुश्किलें कई गुना हो जाती थी क्योंकि शालिनी के पति प्रकाश एक सेल्फ मेड भले इंसान और कर्तव्यपरायण कर्मठ व्यक्ति . उनकी चुप्पी और तटस्थता सहनशील किंतु भावुक और संवेदनशील प्रस्तुति के लिए भौतिक और मानसिक दुविधाएँ बढ़ा देता था. 


बहुत प्रोटेक्टिव थी शालिनी अपने बच्चों के लिए और उनके सर्वांगीण विकास के लिए भी जूझती रहती थी. अपनी लग्न और कर्मठता की बदौलत इस अभियान में उसने और उसके सुसंस्कृत होनहार किड्स ने उल्लेखनीय सफलता हासिल की थी, प्रभु की भी उस पर असीम कृपा थी. सद्भावना और स्वाभिमान उसकी सबसे बड़ी स्ट्रेंथ थे.


शालिनी  का मानो एक मात्र जीवन उदेश्य था सब का भला करना. ज़रूरत में सब के लिए खड़े हो जाना और दिल से मदद करना. 

मृदु और करुणा भरे स्वभाव के कारण शालिनी  के संबंध हर मिलने वाले से आत्मीय स्तर पर अनायास ही हो जाते थे. मेरे जाने उसका अति विनयशील होना उसके लिए दमन जनित प्रतिक्रियाओं और कुंठाओ का जनक हो गया था जिस से उसका स्वास्थ्य भी प्रभावित रहता था. इस खाके से आप शालिनी की शख़्सियत का अन्दाज़ लगा सकते हैं. 


एक ही काम्प्लेक्स में होने के कारण किसी परेशानी भरे दौर में विदुषी के संपर्क आई थी भावुक और आदर्शवादी शालिनी.  अपने कान और "लागू नहीं  हो सकने वाली" सलाहें देकर विदुषी ने इस निरीह और निश्छल को अपने साइकोलॉजिकल फोल्ड में ले लिया था. पद के हिसाब से शालिनी  का पति विदुषी के पति से बहुत जूनियर था, व्यवहार, आने जाने और सामाजिक सम्पर्क में पद-तोलन विदुषी भी किया करती थी मगर फ्रंट पर नाम अपने पति का लगा कर ख़ुद को पाकीज़ा बना देती थी.  नैहर की तरफ़ से शालिनी  का बैकग्राउंड विदुषी के मायके से ज़्यादा सुसंस्कृत और रसूख़ वाला था, उसकी शिक्षा भी कॉन्वेंट स्कूल में हुई थी और उसने केमिस्ट्री  में ग्रेजुएशन भी किया हुआ था. सब ऑड्स के बावजूद भी ससुराल को भी उसने मायके की तरह ही अपना घर समझा और जो भी बन पड़ा तहे दिल से किया.  जैसा कि बताया मैं ने शालीन, सहृदय और स्वाभिमानी महिला थी शालिनी. लेकिन  पारिवारिक परिस्थितियों ने उसके सब प्लस पॉइंट्स को डिस्काउंट कर दिया था. अपने गणितीय मस्तिष्क में विदुषी इन सब तथ्यों को प्रोसेस कर चुकी थी और अपना गेम प्लान बदस्तूर डिज़ाइन किए हुए थी....जिसे बिट्स एंड पीसेज में लागू करती रहती थी.


विदुषी अपने अंतर की गहराई में शालिनी को सख़्त नापसंद करती थी. उसके चिंतन, ग्रूमिंग, हैसियत, पजेसिवनेस, हठधर्मिता आदि पर ख़ुद को आला दिखाते समझते हुए हुए गाहे बगाहे अपने "एक और नज़दीकी सर्कल" में चर्चा भी कर लेती थी ताकि उसकी दार्शनिकता और दरियादिली का इम्प्रैसन बरपा होता रहे.  शालिनी के  प्रति अपने वितृष्णा के भावों को विदुषी अनासक्ति का नाम दे देती थी जैसे कि अपने बड़बोलेपन और अनुशासनहीनता को आज़ाद ख़याली का, ग़ैर जिम्मेदाराना जीवन शैली को सहजता और स्वाभाविकता का. कवर अप करने और मुलम्मा चढ़ाने में माहिर थी हमारी नायिका विदुषी. 


विदुषी शालिनी को कभी भी अपने "ऊँचे" वाले सर्कल में एकनॉलेज नहीं करती थी. मिलना जुलना मैन स्ट्रीम से बाहर ही होता था. विदुषी की किसी भी पार्टी, सोसल गैदरिंग और अन्य आयोजनों यहाँ तक कि शादी ब्याह में भी शालिनी और उसके परिवार की शिरकत कभी नहीं होती थी, वजहें कुछ भी दे दी जाय या स्थितियाँ कुछ भी सृजित कर दी जाय.


माना कि शालिनी सरलमना...उसे सब कुछ स्वीकार्य किंतु विदुषी ने कभी भी पहल नहीं की उसे बराबरी का एहसास दिलाने का.  शालिनी के द्वारा विदुषी की निस्वार्थ सेवा टहल के क़िस्से जब उपन्यास लिखा जाएगा तब विस्तार में. यहाँ बस कुछ उदाहरण  इंगित के रूप में दूँगा. 


जिस शालिनी के ख़ुद के ऊपर मानसिक बौझ होने की बातें विदुषी किया करती थी परंतु उस से छोटे मोटे रूटीन घरेलू कामों में मदद लेने में उसे कोई गुरेज़ नहीं होता था. जो शालिनी इतनी स्वाभिमानी कि कई बार बुलाने पर एक दफ़ा कहीं जाए, मोहतरमा जब पैनफुल माहवारी के दौर में होती तो सदेच्छा के साथ नियम से पौष्ठिक यखनी/सूप बना कर विदुषी के लिए बनाकर ख़ुद उसे देकर आती थी. इसके लिए पीठ पीछे कहा जाता था कि पीछे ही पड़ी हुई है, मना भी कर दिया तो भी ले आती है. शालिनी की परवाह करने की प्रवृति बेमिसाल थी और उसमे ईश्वरियता का पुट होता था. मैत्री और स्नेह को उचित से अधिक मूल्य देना शालिनी  का स्वभाव था जिसका लाभ आदतन विदुषी बेन उठाती रहती थी.


शालिनी इतनी Good Soul थी कि ज़रूरत पड़ने पर मोहतरमा के घर के छोटे मोटे कामों में सहज तौर पर हाथ बँटाने में नहीं हिचकिचाती थी. शालिनी का यह सेल्फ़लेस सेवा भाव निस्संदेह सम्माननीय था किंतु उसके प्रति विदुषी मैडम की अंदरूनी रिस्पोंस अच्छे ज़ायक़े वाली नहीं हुआ करती थी. उसका एटीट्यूड किसी को इस्तेमाल और मानसिक दोहन करने वाला ही था. मुझे विदुषी का यह दोहरा व्यवहार नागवार गुजरता. विदुषी को समझाने की कोशिश की जाती कि यह सब किसी की ऊँची भावना की बेक़द्री है मगर विदुषी बात को घुमा देती. उसका एक्सप्लेनेशन उसको उचित तवज्जो और पार्टिसिपेशन के अवसर देने के मामले में यही होता कि शालिनी कम्फर्टेबल नहीं होगी, जब कि Real Mentor और दोस्त होने के नाते उसे उसको कम्फर्टेबल करना चाहिए था. 


विदुषी की इस Behaviorial Trait में एक Psychology में प्रचलित शब्द "Gas Lighting" का अक्स दिखता था. मनोविज्ञान का कोई भी विद्यार्थी अच्छे से समझ सकता है यह पहलू . पॉइंट आउट करते हुए कभी कुछ कहा जाता तो स्मार्ट विदुषी तत्काल सहमति जता कर बात को वहीं पर ख़त्म कर देती थी. कुल मिला कर यह रिश्ता ऐसे रोग की तरह था जिसमें ना तो रोग ख़त्म होता है ना ही रोगी. 


समर्पण की प्रतिमूर्ति शालिनी शायद इसी में गौरवान्वित होती रहती थी कि वह सब कुछ देखते सुनते समझते और सहते निबाहने में सब से अव्वल है, सामाजिक पारिवारिक रिश्तों में ही नहीं बल्कि इस कथित दोस्ती में भी जो असल में एक प्रतिक्रियात्मक आकर्षण और hollowness का भराव मात्र थी. 


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(These write ups are the 'Notes' for my proposed novel. विदुषी और अन्य काल्पनिक/वास्तविक पात्रों की चारित्रिक प्रवृतियों/विशेषताओं, उसकी रिलेशनशिप्स और गतिविधियों/घटनाओं को लेकर इस मनोवैज्ञानिक  उपन्यास के कथानक को शेप दी जा रही है. कोई भी व्यक्ति यदि इसमें ख़ुद को आइडेंटिफाई करे यह उसका अपना इम्प्रैशन/आकलन  होगा, यह सब जनरल हैपीनिंग्स होती है जो चारों और घटित होती रहती है.)

मैनिपुलेटिव स्किल्स : विदुषी सीरीज़

 विदुषी का विनिमय सीरीज़ 

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मेरी इस सीरीज़ की शुरुआत दो तीन कहानियों से हुई. फिर मेरी संगिनी विजया, कुछ और दोस्त और एक प्रकाशक-सह-मित्र के सुझाव आए कि इस सीरीज़ के कथानक को डेवलप किया जाय और इसे एक उपन्यास का रूप दे दिया जाय. इस पर काम जारी है, मैं अपने नोट्स तैयार करता हूँ जब भी मन होता है और सृजन पटल पर शेयर करता रहता हूँ. 


मित्र लोगों के कई सवाल होते हैं, कुछेक-आख़िर यह विदुषी है कौन ? आप से इनके क्या ताल्लुक़ात रहे और किस हद तक रहे ? विदुषी की ख़ासियतें बताएँ जिन से आप प्रभावित हुए ? ठीक है जजमेंटल मत होइए लेकिन उसके बहुत से व्यवहारों के कारणों पर उसका/अपना सोच तो बता ही सकते हैं...इत्यादि. 

कहानी के किरदार विदुषी में किसी ने ख़ुद को, किसी ने अपनी सखी को देखा, किसी ने कहा मैं फेमिनिस्ट हूँ ना आप यह क्या लिख रहे हैं-(कैसे कहता मैं  ने सारे इज़्म देखे हुए हैं)..एक जो वाक़ई शालीन है उसने मुझे गरिमा और एथिक्स का हवाला दिया...एक ने कहा आख़िर आप चाहते क्या है- तिलमिला गई जब मैंने कह दिया - आप से तो कुछ नहीं. मर्द दोस्त विदुषी के और करतब जानने के इच्छुक ऑफ़कोर्स बीयोंड साइकोलॉजी....मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना कुण्डे कुण्डे जलम च: , सब को खुश करना असम्भव. दादीसा कहते थे : जन जन का मन राखती वैश्या  रहगी बाँझ. मैने तय किया लिखता जाऊँ. जिन्हें अच्छा न लगेगा पढ़ेंगे नहीं या भाग जाएँगे...दोनों में ही अनुकूलता😊


एक मित्र ने जो बड़े तेज़ हैं एक कहानी भेज दी, इस नोट के साथ कि क्या इसमें विदुषी का बिम्ब देखा जा सकता है ? कहानी शेयर कर रहा हूँ. 


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Manipulative Skills

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एक प्यासा आदमी एक कुएं के पास गया,

जहां एक  जवान_औरत पानी भर रही थी

उस आदमी ने औरत से थोड़ा पानी पिलाने के लिए कहा खुशी से उस औरत ने उसे पानी पिलाया.

पानी पीने के बाद उस आदमी ने औरत से पूछा कि आप मुझे त्रिया चरित्र के मनोविज्ञान के बारे में कुछ बता सकती है ? 


इतना कहने पर वह औरत जोर जोर से चिल्लाने लगी बचाओ... बचाओ...


उसकी आवाज सुनकर गांव के लोग कुए की तरह दौड़ने लगे तो उस आदमी ने कहा कि आप ऐसा क्यों कर रही है, तो उस औरत ने कहा ताकि गांव वाले आए और आपको खूब पीटें और इतना पीटे की आपके होश ठिकाने लग जाए.


यह बात सुनकर उस आदमी ने कहा मुझे माफ करें, मैं तो आपको एक भली और इज्ज़तदार औरत समझ रहा था.


तभी उस औरत ने कुएं के पास रखा मटके का सारा पानी अपने शरीर पर डाल लिया और अपने शरीर को पूरी तरह भींगा डाला. इतने देर में गांव वाले भी कुएं के पास पहुंच गए.

गांव वालों ने उस औरत से पूछा कि क्या हुआ ? 


औरत ने कहा मैं कुएं में गिर गई थी इस भले आदमी ने मुझको बचा लिया. यदि यह आदमी यहां नही रहता तो आज मेरी जान चली जाती. 


गांव वालों ने उस आदमी की बहुत तारीफ की और उसको कंधों पर उठा लिया. उसका खूब आदर सत्कार किया और उसको इनाम भी दिया.


जब गांव वाले चले गए तो औरत ने उस आदमी से कहा कि अब समझ में आया त्रिया चरित्र का मनोविज्ञान ?


अगर आप औरत को दुःख देंगे और उसे परेशान करेंगे तो वह आपका सब सुख- चैन छीन लेगी और अगर आप उसे खुश रखेंगे तो वह आपको मौत के मुंह से भी निकाल लेगी.


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मैं इस कहानी को औरत या मर्द के मनोविज्ञान में बाँट कर नहीं देखता. मैं बस यही कहूँगा manipulative skill वाला इंसान चाहे स्त्री हो या पुरुष बहुत कुछ खेल रच सकता है.

आँखें : विजया

 

आँखें...

++++

प्यार भरी 

ये झील सी गहरी मतवाली आँखें 

अनकहा कह रही ख़ामोश आँखें 

चाहत का पैग़ाम देती फुर्तीली आँखें 

व्याकुल और व्यथित 

इंतज़ार में बिछी हुई बेताब आँखें 

थकन से परेशान उनींदी खुली सी आँखें 

दिल का हाल बताती चहकती आँखे

मेरा तो संसार है ये मासूम महकती आँखें...


एक और भी पहलू है सिक्के का 

दिल में कुछ और चेहरे पर कुछ 

दिखाती है शातिर आँखें 

आंसू के झरने बहा बहा कर 

दिल पिघला देती है बहुरूपिया आँखें 

चुन चुन कर शिकार को 

नोंच खाती है निर्दयी आँखें 

अच्छों अच्छों को गुमराह कर देती है 

छलना भरी  चालाक आँखें...


आँखों को समझने की ख़ातिर 

चाहिए होती है पैनी नज़र वाली आँखें 

पहचान इंसान की कर पाती है 

पूर्वाग्रह मुक्त स्वतंत्र आँखें 

क़ुदरत की किसी भी शै में 

फ़र्क़ नहीं करती उदारमना आँखें 

प्रेम की बौछार कर 

अपना बना लेती है निश्छल आँखें...


तुम्हारी परवाह करती एक जोड़ा मेरी आँखें 

मेरे हर जज़्बात की निगाहेबान है तुम्हारी आँखें...

आँखें

 


आँखें...

#####

द्वार होती है कुछ आँखें 

आत्मा तक पहुँचने के लिये,

सुना है मैं ने यही सदैव 

कि होती है आँखे 

बिंदु हर आरम्भ का...


हरी, नीली, काली, हेज़ेल, ब्राउन 

होती है आँखे अलग अलग रंग की 

बदलते भी हैं रंग इनके,

सवाल यह नहीं कि 

किस रंग की है आँखें 

अहम है यह 

कि आँखे प्रामाणिकता से वो दिखा सके 

जिसे देखना होती है चाहत 

किसी प्रेम करने वाले के लिए...


इन्ही झरोखों से तो झांकता है सच 

कोई भी भाव नहीं रह पाते छुपे छुपे 

सब कुछ हो जाता है स्फटिक सा स्पष्ट 

बिलकुल पहचाने जाने के योग्य,

सब कुछ तो देखा जा सकता है 

किसी की आँखों में 

बस मेधा और कौशल हो देखने वाले में...


हर्ष, दुख, उलझन और असमंजस 

क्रोध,वासना और आश्चर्य 

भय,सच,आशा और निराशा 

सब को जान समझ लेती है सहज ही 

संवेदन भरी आँखे 

नहीं होते हैं जिनको 

कोई भ्रम और विभ्रांतियां...


आँखें ही तो होती है 

हमारा सबसे अंतरंग घटक 

गहनता के क्षणों में 

एकटक देखने के लिए,

देखते हैं हम सभी प्रमुखता से ऐसा 

किंतु होता है कितना कठिन 

जो देखा हो उसे स्मृति में बनाए रखना...


द्वार होती है कुछ आँखें 

आत्मा तक पहुँचने के लिये,

सुना है मैं ने यही सदैव 

कि होती है आँखे 

बिंदु हर आरम्भ का...

मैं बस तड़फ कर रह जाती हूँ...

 विदुषी का विनिमय सीरीज़ 

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🔹उपन्यास के प्लॉट के लिए आपके सुझावों (यहाँ और/या मेसेज बॉक्स में) के लिए भी गुज़ारिश है.🔹


मैं बस तड़फ कर रह जाती हूँ...

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स्वकथ्य

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"विदुषी सीरीज़" की कुछ कथाएँ मैने सृजन पटल और अन्यत्र भी पोस्ट की जिनके लिए उत्साहजनक फीडबेक्स मिले. कुछ लेखक और मनोवैज्ञानिक मित्रों के सुझाव भी आए और आ रहे हैं . कुछ पढ़ने वालों ने अपनी आपबीतियां भी खुल कर शेयर की, अपनी ग्रंथियों को सामने रखा, अपनी उलझनों को ईमानदारी से बताया और उन्हें अपने विश्लेषण और लेखन में मैं यथोचित रूप में शुमार करूँ इस पर ख़ुद से चला कर कहा. मेरे एक प्रकाशक मित्र ने,जो स्वयं एक लेखक भी है, मुझे मोटिवेट किया कि मानवीय संबंधों पर आधारित इस सीरीज़ को नये सिरे से लिखूँ एक उपन्यास का रूप देकर. कथानक पर नोट्स बनाते हुए सोचा क्यों ना उन्हें थोड़ा सा प्रेजेंटेबल करके सृजन में पोस्ट भी करता रहूँ ताकि उपन्यास पर सहज में ही काम आगे बढ़ता जाए.


▪️लेखन में आए स्वयं और अन्यों के व्यवहार, स्वभाव, ट्रेट्स  या अंतर्व्यथा की बातें प्लस घटित वाक़ये कितने सच कितने कल्पना आधारित यह विषय नहीं, जजमेंटल होकर देखना उचित और उपयुक्त नहीं. यह मानसिकता और मनस्थिति की बातें हैं जिनकी  गहराई में अवचेतन में रहने वाले बहुत से फ़ेक्टर्स का रोल रहता है, मनुष्य जिस वातावरण में जिया और जी रहा है उसके प्रभाव होते हैं, वांछाओं और आवश्यकताओं को पूरा करने की जद्दोजहद भी होती है, हार्मोन्स का रोल होता है, शारीरिक स्वास्थ्य का असर भी होता है, क्रिया-प्रतिक्रियाएँ होती है, कई एक अनजाने कारण भी होते हैं. सापेक्ष होती है चीजें द्रव्य, क्षेत्र, भाव और काल के संदर्भ में. हाँ उनके बीच से गुज़रते हुए कुछेक बुनियादी तथ्य और सत्य भी एक्सट्रैक्ट हो जाते हैं.


▪️क़िस्से कथायें उदाहरण केवल विषय को comprehend करने के साधन होते हैं, कल्पना और वास्तविकता के मिक्स... इन्हें स्त्री या पुरुष से स्पेसिफिक होकर ना जोड़ा जाय. ये केस स्टडीज़ के लिए जेंडर न्यूट्रल ह्यूमन हैपेनिंग्स का विवरण है. ये ना तो स्त्री विमर्श है और ना ही पुरुष का महिमा मंडन. जैसा कि मैं ने कहा,मेरे आगामी उपन्यास के लिए प्लॉट के नोट्स भी हैं ये.


▪️स्वयं के स्वभाव और अंतर्व्यथा की बातें प्लस घटित वाक़ये कितने सच कितने कल्पना आधारित यह विषय नहीं, जजमेंटल होकर देखना भी उचित और उपयुक्त नहीं. यह मानसिकता और मनस्थिति की बातें हैं जिनकी  गहराई में अवचेतन में रहने वाले बहुत से फ़ेक्टर्स का रोल रहता है, मनुष्य जिस वातावरण में जिया और जी रहा है उसके प्रभाव होते हैं, वांछाओं और आवश्यकताओं को पूरा करने की जद्दोजहद होती है, हार्मोन्स का रोल होता है, शारीरिक स्वास्थ्य का असर होता है, क्रिया-प्रतिक्रियाएँ होती है, सर्वाइवल इंस्टिंक्ट्स होती है, ईगो और कोम्पलेक्सेज की भूमिका रहती है....कई एक अनजाने कारण भी होते हैं.


मैं बस तड़फ कर रह जाती हूँ...

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▪️"देखो मुझे एडवेंचर्स पसंद है, मुझे ज़िंदगी में गति और प्रवाह चाहिए और जिसके साथ मैं एक छत के नीचे रहती हूँ वह जड़ है बेजान पत्थर सा....बस काम पर चले जाना और घर आकर बैठ जाना. कभी मोबाइल पर गेम्स खेलना, तो कभी न्यूज़ चैनल्स पर चलने वाले शोर भरे राजनीतिक डिबेट सुनना....मैं बस तड़फ कर रह जाती हूँ." विदुषी कहती.


▪️कभी कभी ऐसा भी कहती विदुषी, "मैं फ़िज़िकल फ़िटनेस की क़ायल हूँ. योग, एक्सरसाइज, एरोबिक्स करके देखो कितना फिट रखती हूँ अपने आप को और वो...जैसे कोई परवाह ही नहीं. देखी है बीयर बेली..कड़ी कड़ी...कमीज के बटन तक बंद नहीं हो पाते. कैसे बर्दाश्त करूँ....मैं बस तड़फ कर रह जाती हूँ."


▪️दुख सा मानो झलक जाता  था विदुषी की आँखों में जब वह कहती, "मुझे शराब की बू बिलकुल नहीं सुहाती और ये बंदा है कि हर शाम अकेला ही बोतल लेकर बैठ जाता है और टीवी देखते देखते तीन चार पेग लगा लेता है इस से बेपरवाह होकर के  कि कोई और भी है घर में....और उस बदबू भरी साँसों के साथ जब बिस्तर में मेरे क़रीब आता है....मैं बस तड़फ कर रह जाती हूँ."


▪️दोनों की मानसिकता पर विदुषी का कहना था, "मैं बहुत ही कोमल मन और संवेदनशील हूँ हाईली सेंसिटिव. मेरे लिए यह लाइन बिलकुल सही लागू होती है- Fragile, Handle with care और जनाबे आली बिलकुल भावना शून्य. बात बात पर तंज और जज़्बात पर चोट पहुँचना, एक ही बात को बार बार रिपीट कर कर के. जार जार रोती हूँ मैं आँखों से आँसू झरने लगते है....मैं बस तड़फ कर रह जाती हूँ."


◾️और उसकी असंवेदनशीलता के कई वाक़ये बता देती थी. जैसे :


# पहला बच्चा हुआ तो देखने नहीं आया और ना ही अस्पताल से घर लिवा लेने. 


# दादाजी जिन्होंने उसे पाला पोसा पढ़ाया लिखाया, जब चल बसे और देर रात खबर आई तो तुरत अस्पताल नहीं गया क्योंकि नींद लग रही थी....और तो और सुबह हुई तो डेड बॉडी लेने भी किसी और को भेज दिया. 


# मेरी माँ ने जब दुनिया से विदा ली, खबर आई तो मुझे तुरत नेहर नहीं जाने दिया, मुझे दिल पर पत्थर रखना पड़ा. 


# रेल यात्रा में समान उठाना, ऊपर नीचे करना ...सब मुझे ही करना होता है. लाटसाहब बस हिदायतें देते रहते हैं जैसे मैं कोई मुलाजिम हूँ या ज़रख़रीद ग़ुलाम. मेरे बेक पैन की परवाह तक नहीं. 


# अरे एक दफ़ा तो किसी बदमाश ने ट्रेन सफ़र के दौरान मुझे inappropriately टच कर लिया, मैने उसे बताया तो दुबक कर बैठ लिया, डर के मारे कि कहूँ वह बदमाश पिटाई ना कर दे....कहने लगा-देखो कोई नहीं बोल रहा, सब यही सोचते हैं कि जो हुआ सो हुआ क्यों बात बढ़ाई जाय. काहे गुंडे एलिमेंट को मुँह लगाया जाय.


हर वाक़या बताने में आगे पीछे बड़े बड़े सेण्टेंसेज होते मगर आख़री यही होता-"जब भी इसको सोचती हूँ.मैं बस तड़फ कर रह जाती हूँ."


▪️खुल कर चर्चा करती थी विदुषी. पहले तो लगता था जी हल्का करना होगा या कोई सलाह लेनी होगी. 


बातों बातों में सलाह दी जाती -धैर्य रखने, साथी से खुल कर बात करने, अपने व्यवहार में कोई उन्नीस-इक्कीस हो तो स्वनिरीक्षण करके सुधार करने, कुछ बातों को जस्ट इग्नोर करने, रिश्तों में कुछ भी सम्पूर्ण (perfect) नहीं होता बस प्रयाप्त (enough) हो तो बात बन जाए, अरे १०० में से ७५ हो तो डिस्टिंक्शन-साठ हो तो फर्स्ट डिवीजन-पैंतालीस में सेकंड डिवीज़न-तैंतीस में थर्ड डिवीज़न से पास-हाँ तैतीस से कम हो तो फेल --तेरे तो गुड सेकण्ड डिवीज़न वाला केस है-काम करो ईमानदारी से इस पर-क्रमशः फर्स्टडिवीज़न और फिर डिस्टिंक्शन...सुना सब जाता मगर शिद्दत से अमल कभी नहीं...क्रीबिंग मगर जारी रहती. लगता था अटेंशन और सहानुभूति पाकर घनिष्ठता(intimacy) पाना उदेश्य रहता था. 


हाँ, हूँ करती रहती थी, कभी कभी तो प्रोमिजेज भी होती कि सुखी दाम्पत्य जीवन के लिए प्रयास करूँगी, और घूम फिर कर वही डायलॉग : "मैं बस तड़फ कर रह जाती है."


▪️बातें  व्यवहार से परे जाकर यौन संबंधों में साथी की परफ़ॉर्मेंस और स्वयं के पीएमएस जनित व्यवहार पर आ कर थमने लग जाती थी. इस विषय पर फिर कभी. हाँ वहाँ भी जुड़ जाता "मैं बस तड़फ कर रह जाती हूँ."


▪️विदुषी (स्त्री) की प्रतिक्रियाएँ जैसे अपने पति के लिए प्रकट हुई वैसी ही किसी विदुष(पुरुष) की अपनी पत्नी के लिए हो सकती है. जेंडर न्यूट्रल होकर इस फीडबेक को लिया जाय.

विषय बस आपस में कम्पेटिबिलिटी ना होने पर निभाने के प्रयास, सविवेक सुकून के लिए निजात पा लेना, अपनी  स्वतंत्र राह अपना लेना, मैनिपुलेशन्स करते हुए मोमबती को दोनों सिरों से जलाना/केक ख़ाना भी और घर भी ले जाना आदि विकल्पों पर विचार करने का है.


🔺पढ़ने वालों के रेडी रेफ़्रेंस के लिए विदुषी सीरीज़ के अब तक हुए पोस्ट्स की लिंक्स कमेंट्स सेक्शन में दे रहा हूँ.

छायावाद की विशेषताएँ : संकलन

 छायावाद की विशेषताएँ 

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हिन्दी साहित्य के आधुनिक चरण मे द्विवेदी युग के पश्चात हिन्दी काव्य की जो धारा विषय वस्तु की दृष्टि से स्वच्छंद प्रेमभावना, पकृति मे मानवीय क्रिया कलापों तथा भाव-व्यापारों के आरोपण और कला की दृष्टि से लाक्षणिकता प्रधान नवीन अभिव्यंजना-पद्धति को लेकर चली, उसे छायावाद कहा गया.


प्रकृति पर चेतना के आरोप को भी छायावाद कहा गया है। छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद ने छायावाद की व्याख्या इस प्रकार की हैं " छायावाद कविता वाणी का वह लावण्य है जो स्वयं मे मोती के पानी जैसी छाया, तरलता और युवती के लज्जा भूषण जैसी श्री से संयुक्त होता है.यह तरल छाया और लज्जा श्री ही छायावाद कवि की वाणी का सौंदर्य है."


छायावादी काव्य की मुख्य विशेषताएं 


1. व्यक्तिवाद की प्रधानता 

छायावाद मे व्यक्तिगत भावनाओं की प्रधानता है.वहाँ कवि अपने सुख-दुख एवं हर्ष-शोक को ही वाणी प्रदान करते हुए खुद को अभिव्यक्त करता है.

2. सौन्दर्यानुभूति 

यहाँ सौन्दर्य का अभिप्राय काव्य सौन्दर्य से नही, सूक्ष्म आतंरिक सौन्दर्य से हबाह्रा सौन्दर्य की अपेक्षा आंतरिक सौन्दर्य के उद्घाटन मे उसकी दृष्टि अधिक रमती है। सौन्दर्योपासक कवियों ने नारी के सौन्दर्य को नाना रंगो का आवरण पहनाकर व्यक्त किया है।


3. श्रृंगार भावना

छायावादी काव्य मुख्यतया श्रृंगारी काव्य है किन्तु उसका श्रृंगार अतीन्द्रिय सूक्ष्म श्रृंगार है। छायावाद का श्रृंगार उपभोग की वस्तु नही, अपितु कौतुहल और विस्मय का विषत है। उसकी अभिव्यंजना मे कल्पना और सूक्ष्मता है।

4. प्रकृति का मानवीकरण

प्रकृति पर मानव व्यक्तितत्व का आरोप छायावाद की एक प्रमुख विशेषता है। छायावादी कवियों ने प्रकृति को अनेक रूपों मे देखा है। कहीं उसने प्रकृति को नारी के रूप मे देखकर उसके सूक्ष्म सौन्दर्य का चित्रण किया है।

5. वेदना एवं करूणा का आधिक्य 

ह्रदयगत भावों की अभिव्यक्ति की अपूर्णता, अभिलाषाओं की विफलता, सौंदर्य की नश्वरता, प्रेयसी की निष्ठुरता, मानवीय दुर्बलताओं के प्रति संवेदनशीलता, प्रकृति की रहस्यमयता आदि अनेक कारणों से छायावादी कवि के काव्य मे वेदना और करूणा की अधिकता पाई जाती है। 

6. अज्ञात सत्ता के प्रति प्रेम 

अज्ञात सत्ता के प्रति कवि मे ह्रदयगत प्रेम की अभिव्यक्ति पाई जाती है। इस अज्ञात सत्ता को कवि कभी प्रेयसी के रूप मे तो कभी चेतन प्रकृति के रूप मे देखता है। छायावाद की यह अज्ञात सत्ता ब्रह्म से भिन्न है।

7. जीवन-दर्शन 

छायावादी कवियों ने जीवन के प्रति भावात्मक दृष्टिकोण को अपनाया है। इसका मूल दर्शन सर्वात्मवाद है। सम्पूर्ण जगत मानव चेतना से स्पंदित दिखाई देता है।

8. नारी के प्रति नवीन भावना

छायावाद मे श्रृंगार और सौंदर्य का संबंध मुख्यतया नारी से है। रीतिकालीन नारी की तरह छायावादी नारी प्रेम की पूर्ति का साधनमात्र नही है। वह इस पार्थिव जगत की स्थूल नारी न होकर भाव जगत की सुकुमार देवी है।

9. अभिव्यंजना शैली 

एक प्रमुख बात छायावाद मैं होती है बात को बिम्बों से कहना।

छायावादी कवियों ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए लाक्षणिक, प्रतीकात्मक शैली को अपनाया है। उन्होंने भाषा मे अभिधा के स्थान पर लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग किया है।


(संकलन से)

द्रौपदी

 महिला दिवस विशेष 

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विदुषी का विनिमय सीरीज़ 

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द्रौपदी 

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हमारे मनोविश्लेषक साथी कहा करते थे कि उसके बोले और लिखे शब्द उसके उस समय के इरादों और सोचों की चुग़ली खा जाते हैं. उसके जुमले बदलते रहते थे,कभी परम्परावादी तो कभी उदार, कभी कर्तव्यबोध लिए आज़ादी की हिमायत तो कभी विद्रोह-कभी अराजकता, कभी सात्विक-कभी राजसिक-कभी तामसिक, कभी अनुशासन कभी स्वच्छंदता. हाँ एक बात कोमन होती थी-"किए हुए को जस्टिफ़ाई करने की कोशिश या जो करना है उसकी भूमिका बांध देना". 


व्यवहार में बदलाव मानवीय है लेकिन कहीं एक यूनफ़ॉर्म मौलिक सूत्र को लिए क़रीब क़रीब व्यवहार सम्पादित होता है जिसे हम consistency कह देते हैं और कहीं तो Sea Saw जैसा कभी ऊपर कभी नीचे और कहीं कहीं तो बिलकुल unpredictble. कुछेक लोगों का कोई value base होता है तो कुछ जब जो favorable या suitable हो उस से गुजरने में ही लगे रहते हैं. 


मैं चूँकि मनोविज्ञान के अलावा दर्शन पृष्ठभूमि से भी था, मैं हमेशा कहता स्त्रीमन की इतनी पर्फ़ेक्ट व्याख्या करना ठीक नहीं. बहुत कुछ अनकहा भी तो होता है कोमल मन में. बहुत से भोगे हुए यथार्थों की प्रतिक्रियाएँ होती है जीवन में. हमारा अनचाहा या थोपा हुआ जीना भी ना जाने कितनी ग्रंथियों को  उत्पन्न कर देता है जिन्हें दायरों में जीने के क्रम में सहज सुलझाना अति कठिन हो जाता है. 


हाँ तो उन दिनों उसके दो जुमले परवान पर थे. बार बार कहा करती थी कि भारतीय एपिक्स में मेरा मोस्ट फ़ेवरिट किरदार द्रौपदी है और दूसरा मेरी तो पहली पसंद गाना है कविताएँ ग़ज़ल लिखना तो सेकेण्डरी. मैं मुस्कुरा देता क्योंकि आदर्श स्वरूप जैसे द्रौपदी का नाम उसके लबों पर आता था वैसे ही राधा, मीरा, अमृता आदि कई नाम भी आते रहे थे और गतिविधियों में भी लेखन,पठन, भ्रमण, विमर्श, spirituality, गृह सज्जा, कलनरी, गार्ड्निंग आदि पहले स्थान पर घोषित किए जाते रहे थे...ये सब प्राथमिकताएँ अपनी अपनी अल्प अवधि तक जीयी भी गई थी. मेरे जाने ये सब हमारे व्यक्तित्व के अंग होते हैं एवं साइकलॉजिकल ट्रेट्स के दर्शाव होते हैं. उन के आधार पर कुछ भी चुनिंदा राय क़ायम कर के किसी को भी कटघरे में खड़ा कर देना कत्तई उचित नहीं कहा जा सकता. बहुत दफ़ा हमारा जजमेंटल होना opinionated या prejudiced होने का प्रतिफल भी होता है ना ?


मेरे जाने, जजमेंटल होकर ग़लत सही का लेबल नहीं चस्पाँ किया जाना चाहिए. जो है उसे यदि यथारूप साक्षी हो कर देख लिया जाय तो अपना मानसिक सिस्टम खुद ब खुद फ़ैक्ट्स और बियोंड फ़ैक्ट्स को प्रोसेस कर लेता है. 


चलिए ज्ञान गुफ़्ता यही छोड़ कर कहानी की तरफ़ बढ़ते हैं.


(१)


हाँ तो उन दिनों विदुषी के जीवन में एक नई एंट्री हुई थी एक शख़्स की जो शौक़िया गायक कलाकार था इसलिए "गाना" विदुषी जी की पहली पसंद होने लगी थी और विषय एक या ज़्यादा पुरुषों के साथ दोस्ती का था इसलिए द्रौपदी किरदार की पसंदगी टॉप लेवल पर थी. 


वाक़ये बहुत हुए हैं दोनों के परिचय से घनिष्टता के फ़ास्ट ट्रेक सफ़र के, उन पर कभी अलग अलग चेप्टर. आज एक होली के प्रसंग पर बात करते हैं.  क़िस्सा सुनाने में फ्लो आए इसलिए हमारे गायक जी को अब हम सोम कहकर पुकारेंगे.


सोम सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान में मैनेजर लगा हुआ था. जब विदुषी से परिचय हुआ था तो उसकी पोस्टिंग विदुषी के क़स्बे  में ही थी. कुछ माह बाद सोम का ट्रान्स्फ़र  वहाँ से कोई दो अढ़ाई  घण्टे की डिस्टेंस पर एक दूसरे क़स्बे में हो गयी थी. सोम के बीवी बच्चे किसी महानगर में रहते थे और सोम अकेला ही अपने वर्क प्लेसेज पर व्यक्तिगत कारणों से रहा करता था.

उसके वर्क प्लेस से महानगर की दूरी कोई छह घंटे थी. तीज त्यहारों पर कई दफ़ा वह अपनी कार से ड्राइव करके अपनी फ़ैमिली के पास चला जाता था. उस बार की होली के लिए उसके प्रोग्राम में एक स्टोपेज़ जोड़ दिया गया था. बंदा डेढ़ दो घंटे की ड्राइव करके विदुषी के बंगले तक आएगा, डिनर वहीं फिर गेस्ट रूम में रात भर आराम और फिर सुबह कोई आठ बजे महानगर को रवानगी और कोई चार-पाँच घंटे का सफ़र. यह ब्रेक ज़रनी किसी भी तरह लोजिकल नहीं थी. मगर विदुषी की इस नए रिश्ते की यह पहली होली और उसे वह सोम की बीवी से पहले खुद उसके साथ मनाने की इच्छुक थी, इसीलिए उसने भरपूर "projections" करके मैनेजर सोम को मेनेज जो कर लिया था. 

दरमियानी नौकरी करने वाले सोम ने दबी ज़ुबान से कहा था : "विदुषी जी यह रिस्की है." विदुषी ने कहा था, "इश्क़ में रिस्क उठानी होती है, सोम जी. तुम्हें बस वही करना है जैसे जैसे मैं कहूँ, बाक़ी सब मैं हेंडल कर लूँगी."

बहुत साहसी, ना ना दुस्साहसी प्रानी थी Dare Devil विदुषी. जो भी ठान ले उसको साम, दाम, दंड, भेद सभी तरीक़ों से अंजाम दे ही देती थी, उसका ट्रेक रेकोर्ड था.


डिनर टाइम  तक सोम विदुषी के बंगले पर था. अपने सीधे साधे हब्बी के साथ सोम का सेमी दोस्ताना टाइप्स ताल्लुक़ बड़े बारीक ढंग से क्रीएट करा ही चुकी थी वह, और सोम को रात का सफ़र नहीं करना चाहिए इस थ्योरी को भी अपने वाक चातुर्य से बखूबी बेच चुकी थी. 


ड्रॉइंग रूम में डिनर के बाद गाने की महफ़िल जमी. सोम ने जगजीत की इस ग़ज़ल को गुनगुनाया था, "होठों से छू लो तुम, मेरे गीत अमर कर दो." विदुषी ने अपनी  फ़ेवरिट, "आज जाने की ज़िद ना करो" को गाया था...और हब्बी साहेब देश के हालातों और फ़िल्मों के तकनीकी पहलुओं पर बेतरतीब अखबारी क़िस्म की तक़रीर कर रहे थे साथ साथ आदतन मोबाइल पर तीन पत्ती" गेम खेलते खेलते. 


"गुड नाइट" हुई और अपने अपने रूम्स में सभी चले गए थे.


(२)


सूरज की पहली किरण ज़मीन पर पड़ी थी. फगुआ की मस्त मादक पवन चल रही थी. बंगले के सामने वाले लॉन नुमा गार्डेन में हरियाली थी और फूल खिले हुए थे. बसंत अपने पूरे यौवन के साथ विराजमान था. विदुषी और सोम झूले पर बैठे दार्जीलिंग चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे और प्रफुल्लित तन मन को सेल्फ़ियों में क़ैद किए जा रहे थे. 


हब्बी साहब बहुत गहरी नींद सो रहे थे, ना जाने क्या हुआ उनकी अब तक आँख ही नहीं खुली थी.


विदुषी ने सोम को हग किया, तृप्त और प्रसन्न मुद्रा में, "हैपी होली" का आदान प्रदान ज़ुबान और नज़रों से हुआ. सोम स्टीयरिंग व्हील पर था और "बाय-बाय" "टेक केयर" के साथ कार आगे बढ़ गयी थी. विदुषी की विजयी नज़रें जाती हुई गाड़ी का कुछ मिनट्स पीछा कर रही थी.


(३)


विदुषी ड्रॉइंग रूम से आधी पढ़ी प्रतिभा राय की पुस्तक "द्रौपदी" उठा लायी थी. प्रतिभा राय ने अपने इस उपन्यास में द्रौपदी के स्त्री पक्ष और रिश्तों की तह में जाकर कथानक को कुछ अलग सा गढ़ा है. मर्दों के युद्ध वर्णन के लिए बस चार छह पेज ही दिए हैं बाक़ी सब द्रौपदी पात्र के माध्यम से स्त्री मन के विभिन्न आयाम दिखाने में इस्तेमाल हुए थे. यह स्त्रीवादी सशक्त लेखन का अभिनव प्रयोग था.


सोच रही थी वह द्रौपदी को.

उसे तो कृष्ण को समर्पित होना था तभी तो नाम करण हुआ था उसका कृष्णा...हर मोड़ पर कृष्ण ने उसका साथ दिया लेकिन जैसी चाहना थी वैसे साथ कब हो पाए. 

द्रौपदी के जीवन का निर्धारण पुरुषों और उनके द्वारा सृजित परिस्थितियों ने ही तो किया था. उसे एक मक़सद जैसे पकड़ा दिया गया था "कौरवों का नाश". उसकी बचपन की मासूमियत की धारणा बिखर जाती है जब द्रुपदों और कौरवों की लड़ाई में उसे सिर के बल फेंक दिया जाता है. स्वयंवर में उसका मन कर्ण पर आता है किंतु उसके भाई द्वारा उसके सपनों को कुचल डालना -आधार कर्ण के माता पिता  की कथित निम्न जाति. उसे कृष्ण का आश्रित अर्जुन जीत लेता है. वह तड़फ़ती है कर्ण के लिए किंतु शादी अर्जुन से. हाँ कृष्ण की कुछ झलक वह अर्जुन में देख कर अपने मन को समझाती है लेकिन उसे सभी भाइयों के साथ वैवाहिक रिश्ते के लिए मजबूर किया जाता है, यहाँ तक कि कृष्ण भी उसे इस सिलसिले में त्याग और आदर्श का उपदेश दे देते है याद दिलाते हुए कि तुम्हारे जन्म का तो एक ही मक़सद कौरवों का नाश. जुआरी पतियों द्वारा उसे हार जाना और कौरव राज दरबार में उसके पतियों और बड़े बड़े दिग्गज पुरुषों की उपस्थिति में दुष्पुरुष दुशासन द्वारा चीर हरण की दुश्चेष्टा...


शायद सोचों का सफ़र कुछ देर और चलता लेकिन अजीब मगर जानी पहचानी आवाज़ों ने उसको सोचों की उड़ान से फिर ज़मीन पर ला दिया. उसके हब्बी तैय्यार हो कर नीचे आ गए थे और उसे उनके लिए टोस्ट और आमलेट बनाना था.

क्या प्राथमिक क्या शाश्वत : विजया

 


क्या प्राथमिक..क्या शाश्वत 

++++++++++++++++


द्वय हाथ लगे मुरली को राधा-कान्हा के 

यही तो अंतरंग की भागीदारी 

मात्र बहिरंग पर नहीं हो पाती 

हृदयों की साझेदारी,

आड़ोलित राग रग रग 

सुर समवेत घटित हो मिल रहे 

मोर पंख ज्यूँ दो नयन 

चेतन्य हो कर निरख रहे,

प्रेम की सशक्तता और शाश्वतता में 

देह नहीं आत्मा होती है प्राथमिक 

भौतिक सम्बंध होता है तन के ज़रिए 

घटित होता है मानस से प्रेम आत्मिक,

एकत्व होता है घटित 

मात्र केवल अंतर्मन के तल पर 

क़ुतुबनुमा, पाल और मस्तूल हो मज़बूत 

जहाज़ कर लेता यात्रा जलधि के जल पर...


मचाया जाता है कोहराम 

जिस भावना को प्रेम कहकर 

क्या सचमुच है वह प्रेम 

लगाता है जो जिस्मानी मज़ों का चक्कर,

निक्की-साहिल, मेघा-हार्दिक, श्रद्धा-आफ़ताब 

एक लम्बी सी फ़ेहरिस्त ऐसी मुहब्बत की 

गली नुक्कड़ पर देखते हैं नुमाइश 

ऐसी लफ़्फ़ाज़ी भरी दिखावे की फ़ितरत की,

दावा करते नहीं थकते ये जोड़े 

खाते हैं क़समें सात जन्मों का साथ निभाने की 

कुछ वक्त ही गुजरता है देहाकर्षण में 

आ जाती है नौबत धोखों और बहाने की,

नींव टिकी हो जिन रिश्तों की 

धन, तन, बल और अहम तुष्टि पर 

नहीं होता है प्रेम कत्तई वह 

अस्थायी उत्तेजन निर्भर निरंतर पुष्टि पर...


प्रेम में पड़ना हो गया है 

द्योतक आज की आत्मनिर्भरता का 

एक सनम चाहिए आशिक़ी के लिए 

जुमला बन गया है आधुनिकता का,

किशोर, युवा और उकताये हुए अधेड़ अधेड़न को 

रहती है तलाश रोमांस की चंद घड़ियों की 

अन्तर्जाल और सोसल मीडिया पर भी 

देखी है उड़ाने आज़ाद चिड़ों और चिड़ियों की,

दिशाहीन आकर्षण आरम्भ में 

लगता है ज्यूँ साथ है जन्म जन्मांतर का 

धुमिल हो जाते क़समें वादे 

होता प्रवेश जब बोरियत और मतांतर का,

याद कर पौराणिक आख्यान 

श्री कृष्ण के पावन प्रेम प्रसंगों का 

पा सकते हैं रहस्य हम 

जीवन जीने और सार्थक सम्बन्धों का...


(साहेब याने विनोद जी का धन्यवाद सुझावों और टच अप के लिए. उन्हें उलाहना भी कि कई दिन इस पर बैठे रहे, साथ रहने वालों को तवज्जो कम जो मिलती है)

स्त्री के प्रश्न : आकृति

 स्त्री के प्रश्न...

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मानव निर्मित संस्था ही तो है विवाह 

जिसे बनाया गया था 

समाज की व्यवस्था के लिए 

नियम-उपनियमों के साथ,

रहा होगा शायद कभी 

कोई खुलापन और लचीलापन...


कालांतर में तो 

ले लिया था सामाजिक रूढ़ियों-रीति रिवाजों ने 

भावना, विवेक और मानवीय पहलुओं का स्थान 

बदल दिया था 

पुरुष प्रधान समाज ने विवाह की रूल बुक को 

समाज और ख़ासकर पुरुषों के हाथ 

स्त्री को कठपुतली बना देने के लिए...


जोड़ियाँ बना करती है स्वर्ग में 

बनाता है जोड़े ऊपर वाला 

मिलता है जिसके भाग्य में जो होता है बदा

अटूट बंधन है शादी, निभाना होता है जिसे आजीवन

घोषित कर दिया गया किसी किसी ने तो इसे 

बंधन सात जन्म का भी,

पुरुष को मिले  स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के अधिकार ने 

उसके लिए किंतु खुली रखी सब राहें...


आया है स्त्री के हिस्से

केवल शोषित होना, पिसना, घुटना, परास्त हो जाना 

ज़िंदा लाश बन कर मरते मरते 

थोपे हुए बंधनों  को निभाना

झूठे पैमानों को सच्चा साबित करने 

विवाह की बलिवेदी पर बलिदान होने के नाम 

कट कर बेमौत मर जाना...


प्रेमविहीन विवाह में घुट रही स्त्री के 

प्रश्नों के उत्तर देने की बजाय 

पाया जाता है उसे काढ़ा उपदेशों का

डाल कर पाँवों में बेड़ियाँ 

हाथों में हथकड़ियाँ 

मुँह पर ताला,

बांध कर उसको अनगिनत अदृश्य रस्सियों से ...


पूछती है स्त्री चीख चीख कर

क्या मुझे मन और तन की नैसर्गिक माँगों का हक़ नहीं 

पत्नी और माँ के दोहरे जीवन की खींच-तान में 

अपने लिए भी खोज कर कुछ सुकून पा लेने का अधिकार नहीं 

क्यों निभाऊं उस बेमेल समझौते को 

जिसमें मेरी सहमति की कभी जगह नहीं रही...


जी करता है काट लूँ उन सब उँगलियों को 

उठती है जो मेरी ओर,नैतिकता के शोर के साथ 

जो 'धाये' हैं वो कैसे समझ सकेंगे 

दर्द भूख और प्यास का 

रहस्य देह और आत्मा की अपेक्षाओं का

सच धड़कती साँसो की उपेक्षाओं का...


ठीक ही तो कहा है किसी ने 

तन की हाविस मन को गुनाहगार बना देती है 

बागों की बहारों को भी बीमार बना देती है 

ऐ भूखे प्यासों को नैतिकता और खोखला धर्म सीखाने  वालों 

भूख और प्यास इंसान को ग़द्दार बना देती है...


आकृति सिंह भाटी


(तराशने के लिए विनोद सिंह सर का आभार🙏)

विवाह कुछ बातें : विजया

 विवाह : कुछ बातें 

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जब आप शादीशुदा होते हैं तो आप हमेशा यही सोचते हैं कि आपका रिश्ता कभी भी खत्म नहीं हो सकता. आप मानने लग जाते हैं कि चाहे जितनी भी कठिनाइयों का सामना करना पड़े हम एक जोड़े के रूप में उस से पार पा लेंगे. यह जज़्बा अच्छा है  लेकिन देखा गया है कि ऐसा सोचने के बावजूद भी आपस में आई कुछ दरारें ऐसी होती हैं जो गहरी और गहरी होती जाती हैं, तब भी जब हमें लगता है कि सब कुछ ठीक है. इसका एक बहुत बड़ा कारण है कि हम ईमानदार कोशिश तक नहीं करते जो कि हमारा पहला फ़र्ज़ है. इस राइट अप में मैं अपने अनुभव और ऑब्सर्वेशंस को शेयर कर रही हूँ. 


ज्यादातर शादियां जो अंत में बेकार और मृत हो जाती हैं, आमतौर पर छोटे मुद्दों का शिकार होती हैं जिन्हें जोड़े द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता है और समय पर हल नहीं किया जाता है. जैसा कि कहा जाता है, "जब आप एक दरार को ठीक नहीं करते हैं, तो आप एक दीवार का निर्माण करेंगे." 

कुछ मसले छोटी-छोटी दरारों की तरह हो जाते हैं जो धीरे-धीरे रिश्तों को नीचे ले आते हैं.ये दरारें गहरी खाई में बदल जाती हैं जो शायद कभी भी पाटी नहीं जा सकतीं, जिससे कई विवाह टूट जाते हैं. आमतौर पर कपल्स को पता होता है कि उनकी शादी पर कब आँधी तूफ़ान और बारिश होने लगी थी.जब वे अपने कभी के खूबसूरत रिश्ते के खंडहरों को देखते हैं, तो वे जानते हैं कि वे क्या कर सकते थे लेकिन उन्होंने किया नहीं.🥲


नीचे कुछ ऐसे मुद्दे दिए गए हैं जिन्हें अगर समय रहते ठीक नहीं किया जाय तो हमारे आपसी रिश्ते खत्म हो जाएंगे :


अधूरी उम्मीदें

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शादी करना इस बात की गारंटी नहीं है कि आपकी शीर्ष उम्मीदें पूरी होंगी. जब लोगों को वह नहीं मिलता है जो उन्होंने सोचा था कि शादी और उनके जीवनसाथी से उन्हें मिलेगा, तो वे निराश हो जाते हैं और अगर उनका इन कल्पित अपेक्षाओं से मोहभंग नहीं होता है, तो यह एक दरार की शुरुआत बन जाता है.


अतिपरिचय के दोष 

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जब लोग किसी रिश्ते में नए होते हैं, तो वे एक-दूसरे को खुश करने की पूरी कोशिश करते हैं. थोड़ा समय साथ गुज़ारने के बाद अतिपरिचय जैसी स्थिति आ जाती है जिसमें पात्र एक दूसरे को लगातार taken for granted लेना शुरू कर देते हैं. सोचने/करने लगते हैं कि जीवनसाथी के प्रति अब अच्छी अच्छी बातें अभिव्यक्त करने की ज़रूरत नहीं कुछ प्यारा प्यारा सा सुखद सा करना भी ज़रूरी नहीं..."हम फ़ॉर्मलिटी में विश्वास नहीं करते" या "हमारे बीच तो सब सहज है और अप्रयास है"  या " अब कुछ भी करने के लायक नहीं रह गया है" इत्यादि जुमलों की ओट में जो करणीय है उसे नहीं करते. सच बात तो यह है कि दूसरे के लिए सोचना ही बंद कर देते हैं.  यह रिश्ते में एक और दरार बन जाता है.


घमंड 

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जब एक पति या पत्नी यह सोचने लगते हैं कि वे अपने जीवनसाथी के लिए बहुत अच्छे हैं जो उनके योग्य नहीं है, तो एक दरार सी उभर आती है. कुछ लोग सोचते हैं कि उनके जीवनसाथी के लिए उनसे शादी हो जाना समनेवाले का एक बहुत बड़ा सौभाग्य है. वे यह भी कल्पना करते हैं कि वे बहुत अधिक कर रहे हैं और दूसरे को उन्हें हर समय दंडवत करना चाहिए और ख़ुद को

"बचाने "और "बनाए रखने"  के लिए उनका आभार मानना चाहिए, एहसानमंद होना चाहिए...आगे पीछे फिरना चाहिए.


ख़ुदगर्ज़ी 

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ख़ुदगर्ज़ी शादियों के लिए बहुत बड़ा कातिल साबित होती है. एक जीवनसाथी जो एक अकेले व्यक्ति की तरह अपने ही हितों का पोषण करने का व्यवहार करना जारी रखता है और दूसरे को शामिल किए बिना निर्णय और विकल्प बनाता है, वह ख़ुद ही आपस में दरार पैदा करने में लगा रहता है.


हवस

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शादी के बाहर संतुष्टि की तलाश. जब दरारें बढ़ने के लिए छोड़ दी जाती हैं, तो लोग घर के बाहर संतुष्टि तलाशने लगते हैं. वे दूसरों से लालसा करने लगते हैं जो उन्हें लगता है कि बेहतर साथी बन सकते हैं और उनकी यौन, भावनात्मक, भौतिक या अन्य जरूरतों को पूरा कर सकते हैं. इस मरीचिका में ना जाने कितने ही भटक कर ख़ुद को नष्ट कर देते हैं.


कठोरता/जड़ता

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जब एक या दोनों पति-पत्नी दूसरे से सीखने से इंकार करते हुए अपने अपने रास्ते में फंस जाते हैं, तो यह इस साझेदारी को कमजोर करता है. कुछ लोगों के लिए देखा गया है  वे विवाह में कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रसित कोई राय बना लेते हैं जिसे  वे पूर्ण और अंतिम सत्य मानते हैं.  वे सीखने के लिए खुले नहीं होते हैं और  अपने जीवनसाथी को अपनी दृष्टि के अनुरूप बदलना चाहते हैं. वे अपने तौर तरीक़ों में अत्यंत कठोर होते हैं और इसके नतीज़तन  क्रमशः दरारें विकसित होते हुए कभी नहीं देख पाते हैं.


अप्रयाप्त कम्यूनिकेशन 

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कुछ घरों में, अप्रयाप्त या खराब या नहीं के बराबर कम्यूनिकेशन सबसे स्पष्ट दरार को पैदा कर देता है जिससे दिन रात निपटना पड़ता है.  यह ऐसा है जैसे कपल्स को सच्चा और प्रामाणिक होना मुश्किल लगता है. झूठ, बदतमीज़ी और ज़बानदराज़ी दिनचर्या का क्रम बन जाता है. सही ढंग से यदि आपस में बातचीत और शेयरिंग हो तो मज़ाल है क्या कि कोई भी विपरीत बात क़ायम रह सके.


शालीनता

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सफल विवाह ताज़िंदगी एक Work in Progress होता है..उसका Completion नहीं होता. यह दोनों के मुसलसल ईमानदार और महान प्रयासों का सबब होता है. कुछ लोग सोचते हैं कि शादी हो जाने के बाद, शादी को आगे बढ़ाने और उसे निरंतर अच्छा बनाने की कोई जरूरत नहीं होती,  रोमांस तो धीरे-धीरे मर जाता है और प्रेम  की जगह सांसारिक रूटीन ने ले लेता है. यह ग़लत एटीट्यूड दरार को लगातार बढ़ाता रहता है.


अपमान

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अपमान से बनी हुई दरार दूसरे दोषों की तुलना में तेजी से खाई में बदल जाती है.  सभी मनुष्य सम्मान और मान-सम्मान के लिए तरसते हैं और अगर घर में इसकी कमी होती है तो वे इसे कहीं और ढूंढ़ते हैं.


अपरिपक्वता

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शादी हो जाना कोई जरूरी नहीं कि वह किरदारों की परिपक्वता का प्रमाण हो. परिपक्व होने के लिए वर्ष बीता देना प्रयाप्त नहीं उसे तो दिन-रात..पल प्रतिपल होशमंदी से जीना होता है.  विवाह मानसिक दृष्टि से परिपक्व लोगों के लिए होता है क्योंकि इसमें जिम्मेदारियों के लिए एक परिपक्व दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है...अगर बेसिक्स स्पष्ट हो तो evolve हुआ जा सकता है.


हालाँकि विस्तार से नहीं जा रही लेकिन कारणों के साथ निवारण पर भी कुछ कहना बनता है. विवाह की सफलता के सबसे बड़े सूत्र मेरे जाने सिद्धांत रूप में ये हैं :


१. पति पत्नी एक दूसरे को दोस्त समझ कर जिये. सच्ची दोस्ती में सामाजिक पद बीच में नहीं आते.

२. परफेक्ट की उम्मीद करने की जगह प्रयाप्त का सूचना चाहिए.

३. साहेब का मंत्र/सूत्र यहाँ भी काम का है :

Awareness, Clarity और Acceptance (ACA)

४. शादी एक man made institution है. परमात्मा या प्रकृति की कृपा तो हर समय चाहिए लेकिन वहीं से हमें wholesale में बुद्धि और कर्म का वरदान अग्रिम मिला हुआ है उसको ज़िम्मेदारी से हमें ही इस्तेमाल करना होता है इसे सफल बनाने के लिए.


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साहेब, आप चाहें तो मेरे इस लिखे को इनपुट के रूप में विदुषी सीरीज़ वाले आपके प्रोपोज़्ड नावेल के लिए रख सकते हैं😍

तपिश : विजया

 तपिश 

++++'

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तप रहा है आसमाँ

सूख गई है ज़मीन 

सब कुछ है लुटा लुटा सा 

पड़ गई है गहरी दरारें

ना जाने पाटी जाएगी कैसे ?


ऐ आँधी !

उखाड़ दे ना गर्मी को 

चीर डाल इस तपिश को 

उड़ा दे इन चीथड़ों को 

ना जाने बदलेगा ये मौसम कैसे ?


नहीं गिर पा रहे हैं फल 

इस सघन हवा में 

किए जा रही है तपिश

आड़ुओं की नोक को कुंद और अंगूरों को गोल 

आख़िर यह सताना मिटेगा कैसे ?


ऐ आँधी !

चला दो हल बीच से इसके 

बाँट दो इसको दोनों तरफ़ रास्ते के अपने 

आ जाएगी फिर बारिश झमाझम 

होगा ख़ात्मा सब मुश्किलों का ऐसे...


Inspired by HD

चूहेदानी : विजया

 चूहेदानी

+++++

लालच और डर 

होती है दोनों में ही

असीम ताक़त,

कहने वाले तो कहते हैं 

अक्खी दुनिया चलती है 

इन दोनों के ही चलाए...


छोड़ दिया जाता है 

लटका कर 

कुछ खाने की चीज़ को 

पिंजरे के अंदर के काँटे के 

एक सिरे पर, 

अटका दिया जाता है ज़रा सा 

स्प्रिंग वाले दरवाज़े के 

लीवर को 

काँटे के उस सिरे में 

जो उभरा हुआ होता है 

पिंजरे की सुंदर छत पर...


सारे इंतज़ाम 

अंदर बाहर के 

कर दिए जाते हैं पुख़्ता,

और देख कर रोटी के टुकड़े को 

पाकर उसकी मादक ख़ुशबू को 

चला आता है 

ललचा कर चूहा

बचा कर नज़रें सब की 

रात कर अंधेरे में,,,

और घुसते ही भीतर 

हो जाता है बन्द 

दरवाज़ा पिंजरे का...


छोड़ दिया जाता है 

पौ फटते ही 

बाहर चूहे को,

और सज जाता है 

फिर से पिंजरा 

फँसाने किसी 

नए चूहे को...


(स्पष्टीकरण : चूहे और चुहिया दोनों के लिए पिंजरे के प्रोसेस में कोई फ़र्क़ नहीं, पात्र के रूप में चूहे को कविता में लिखना लिंग भेद नहीं समझा जाय कृपया)

बचन क्षत्राणी के : विजया

वचन क्षत्राणी के

+++++++++

उतारूँ आरती तेरी 

लगा दूँ तिलक मस्तक पर 

विजय पाओ तुम शत्रु पर 

कामना यह तो मैं  कर लूँ...


पीठ दिखाना ना तुम युद्ध में 

चाहे रणखेत रह जाना 

हार कर रिपु से तुम प्रीतम 

लौट के ना आ जाना...


अमर सुहागन हूँ मैं साजन 

संबंध तो जन्मांतर का है 

चिंता देह की किसको 

प्रश्न आत्मिक अंतर का है..


शांति नहीं है यह 

सन्नाटा जो मरघट का है 

इच्छाकल्पित चिन्तन की 

वास्तविकता आज जतला दूँ...


झूठे साज बाजों से 

हुए है कान अब बहरे 

बजे दुंदुभी समर की अब 

खड़ग की धुन मैं सुन तो लूँ...

दावा : विजया

 

दावा...

+++

देखें है बहुतेरे 

जो संतुष्ट होने का 

दिखावा करते हैं

बात बेबात मगर 

पछतावा करते हैं,

नहीं जानते 

ख़ुद को भी अच्छे से 

मगर औरों को 

समझ जाने का 

दावा करते हैं....

अक्स

 

अक्स 

###

ऐसा ही अक्स कुछ देखता था मैं 

जब हाथ में हाथ लिए 

सड़क पार किया करते थे हम 

तुम्हें इमली, लपसी और हलुआ बेर पसंद थे 

तो मुझे गोंदपाक, लालमोहन और छुरपी

साझा ही ख़रीदते और खाते थे 

ज़्यादा हिस्सा होता था 

खाने में मेरा और खर्चने में तुम्हारा...


ना जाने कब फ्रॉक 

सुनहरी पट्टी वाली साड़ी में बदल जाती थी 

हरा मख़मली जंपर 

टीस्यू सिल्क की किरमची साड़ी 

कानों में झुमके 

गले में ख़ानदानी हार 

नाक में बाली 

आँखों में काजल 

अधरों पर लाली 

भाल पर बिंदी 

केशों को यूँ ही समेट कर लगाई 

गुलाबपत्तियों से बनी वेणी

गरिमा भरा आभामंडल 

गहनता के स्पंदन...


याद है ना 

बाबर महल* की दीवार पर लगी 

राजा रवि वर्मा की वह पेंटिंग

दिलों में बस गई थी 

तुम अपलक उसे देख रही थी 

और मैं तुम को

हम दोनों ही बिन बोले 

खुली आँखों से एक सपना देख रहे थे

इस बात से नितांत अपरिचित 

कि स्त्री-पुरुष प्रेम क्या होता है 

बस यही मालूम था और महसूस भी होता था 

साथ साथ जीना ही ज्यूँ सर्वोपरि 

यह एहसास तब भी था और आज भी है 

परिभाषाओं को जीते हुए भी उनसे परे भी...


कितने ही दशक का सफ़र 

कर आये हैं हम पूरा 

जारी है आज  भी 

साथ चलते रहने का यह ख़ुशगवार सफ़र 

सब कुछ का बदलते रहना कुदरतन है 

मगर इन सब के बीच 

ना बदली है तो एक सच्चाई 

बचपन, जवानी, मध्य वय, वरिष्ठता 

विपन्नता-संपन्नता, दूरियाँ-नज़दीकियाँ 

कभी ना रोक पाती है 

मुझे तुम में यह अक्स देखने से...


*नेपाल का राणा महल जो काठमांडू में बागमती नदी के उत्तर में स्थित है.

Sunday 19 February 2023

चौथे सेंटर का प्रेम : विदुषी सीरीज़

 विदुषी का विनिमय सीरीज़ 

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चौथे सेंटर का प्रेम 

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[फ़लसफ़े(दर्शन)और नफ़्सियात (मनोविज्ञान) का ताउम्र तालिबे इल्म (विद्यार्थी) ...चीजों को ज़रा अलग ढंग से देखने की फ़ितरत...भुस के ढेर में सुई कहाँ छुपी है यह देख पाने की कुव्वत... इंसानी रिश्तों के मुसल्सल तजुर्बे....बड़े क़िस्से हैं मेरे पास. किरदारों से भी इन्पुट्स हासिल होते रहते हैं....उस पर थोड़ा असली घी मसालों का तड़का. यह दास्तान भी कुछ ऐसी ही है.]

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मीतू को प्लानिंग कमीशन में होना चाहिए था, खूब दिमाग़  चलता था उसका "फूल प्रूफ़ प्लान" बनाने में. हब्बी ज़रा दफ़्तर के काम से कोई दो सप्ताह के लिए मुल्क से बाहर गए हुए थे ऐसे में विदुषी को कोई एडवेंचर प्लान करने की खलबली मच गयी.


नंद से उसकी मुलाक़ात सोसल मीडिया पर हुई थी. दोनों ही शायराना तवियत के थे. ब्लोग्रस जगत में दोनों ही शिरकत करते थे. परिचय का दायरा ज़रा और बढ़ा. दोनों जी टॉक पर चैट करने लगे. फिर फ़ोन नम्बरों का विनिमय हुआ और उसके बाद तो विविध विषयों पर इन'रेक्शन होने लगा. इश्किया कविताएँ सुनी और सुनायी जाने लगी. नंद जार जार रो देता था मीतू की कविताएँ सुनकर और मीतू भी भावुक हो जाती नंद की रिसेप्टिवनेस को देख कर. बड़े दुःख सुख होते दोनों के बीच देर रात तक. म्यूचूअल प्रेज क्लब का उद्घाटन और संचालन परवान चढ़ गया. अरे हाँ, जैसे नंद का नामकरण विदुषी ने किया था वैसे ही विदुषी को नंद ने मीतू नाम दिया ..प्यार में नाम परिवर्तन भी एक आवश्यक स्टेप होता है रेट्रो कल्चर में.  अब हम भी हमारे नायिका और नायक को मीतू और नंद ही कहेंगे.


दोनों  ही अपने फ़ोर्टीज़ में, इसलिए नातजुर्बेकार नहीं. मीतू और नंद के शहरों के बीच कोई overnight journey का अंतर था. इंटर्नेट पर आरम्भ हुए संसर्ग ने रूबरू का रूप ले लिया था. दोनों प्यासे अब एक दूसरे को परोक्ष से प्रत्यक्ष जल सेवा देने लगे थे. करेला और नीम चढ़ा, जब अधूरे ज्ञानियों का मिलन होता है तो ऐसे रिश्तों में लम्बी चौड़ी दार्शनिक बातें भी होती है, ओशो रजनीश की किताब का शीर्षक ज़रा उल्टा हो जाता है समाधि से सम्भोग (Superconsciousness Talks to Sex).....राम से काम. खूब रोमांस और आध्यात्म झड़ता था. यह फ़ेज़ भक्ति और ज्ञान योग के यौगिक का था, इसकी सारी डिटेल्स फिर कभी.


हाँ तो मीतू ने एक पक्का प्लान बना लिया कि दोनों प्रेमी नैनीताल की वादियों में मिलेंगे और प्रकृति की गोद में साथ साथ टाइम स्पेंड करेंगे, घूमेंगे, फिरेंगे...और मौज मस्ती करेंगे. आपसी अंडरस्टेण्डिंग बढ़ाएँगे. 


मीतू को नैनीताल के भूगोल का पता था. इतिहास भी जिया था उसने.  दो तीन दफ़ा वह वहाँ अपने हब्बी जी के साथ आ चुकी थी जिस बेचारे के साथ उसका हर समय ज्वलंत भौतिक और मानसिक कम्पैटिबिलिटी इश्यू था, हालाँकि उसकी कमाई और खर्च पर ठाठ -बाठ से जीने में कोई भी इश्यू नहीं. हर बात के लिए ऊपरा ऊपरी लोजिक और जस्टिफ़िकेशन वह खोज निकाल लेती थी. 


मीतू नंद को लेकर उसी होटेल में जा पहुँची, जहां पिछली ट्रिप में अपने हब्बी जी के साथ ठहरी थी. होटेल्स में आइ.डी. की ज़रूरत उस समय भी होती थी लेकिन आजकल जैसी कड़ाई नहीं थी और फिर विदुषी ओह नो मीतू ठहरी स्मार्ट और वाक चतुर मेनेज कर लिया और पति-पत्नी के तौर पर दोनों उस होटल में चेक इन कर लिए.


नंद निम्न मध्यम सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से था तो मीतू मध्यम से उच्च मध्यम स्तर पर प्रोमोट हो चुकी थी. दोनों के रहन सहन और नज़रिए में काफ़ी फ़र्क़ था. सम्बन्धों के संदर्भ में जहां नंद उतावला और क्रूड था वहाँ मीतू ज़रा स्लो, टेस्टफूल और पोलिश्ड. नंद ठहरा अव्वल दर्जे का 'दूसरी तरह का चालाक',  सो उसने खुद को सरेंडर कर दिया एक सोची समझी रणनीति के तहत ताकि उसके जीवन और बौद्धिक स्तर की कमियाँ कवर अप हो जाए और मीतू का ईगो भी खूब बुस्ट हो सके. नंद की आँख हमेशा अर्जुन की तरह चिड़ियाँ की आँख पर रहती तो मीतू एक वन की चिड़ियाँ बन कर उड़ती रहती. मीतू में गुरुडम का उदय हो गया था उसका inferority complex superiority complex में तब्दील हो गया था. नंद एक आज्ञकारी शागिर्द की तरह ज़ुबानी ज्ञान लेने लगा था और एक समर्पित कमजोर प्रेमी का रोल अदा करने लगा था, जो एक तरह का इंटेलेकचुअल फ़ोर प्ले था. 


चाय के प्यालों से भाप उड़ रही थी. मीतू और नंद सोफ़े पर सट कर बैठे थे. अर्थ तो व्यय हो ही रहा था, स्पर्श काम को जगा रहा था और धर्म व मोक्ष का कोकटेल मीतू साक़ी बन कर अपने भाषण और गेसचर्स के ज़रिए परोस रही थी...जो नंद जैसे छप्पन छेद वाले इंसान में उड़ेलने के साथ साथ ही बाहर बह जाता था.


मीतू कह रही थी : "समान्यत: हम सब तीन सेंटर्स से संचालित होते हैं. आध्यात्मिक उत्थान में चौथा सेंटर ऐक्टिव होता है. वही प्रेम का केंद्र है."

नंद के ख़यालों में बस एक मात्र सेंटर था जिसे वह परिधि में भ्रमण करते करते भी देख पा रहा था. दत्तचित्त होकर सुनने का अच्छा ख़ासा नाटक कर रहा था वह. चेहरे पर आश्चर्य और अनुमोदन के भाव ले आया था नंद. उसने मीतू का हाथ अपने हाथों में ले लिया था. नव आध्यात्म के लिए देह से अधिक क्या सुचालक हो सकता है.


उत्साहित हो कर मीतू आगे कहने लगी, "मैं तुम्हें प्रेम दूँगी तो वह चौथे सेंटर का ही होगा, क्योंकि मेरा प्रवाह चौथे सेंटर का है. तुम्हारा दूसरा तल ज़रा कमजोर है, पहला और तीसरा पुरुषेण अहंकार से भरा हुआ है...उसका रिफ़ाईनमेंट ज़रूरी है. चूँकि मेरा प्रवाह चौथे सेंटर का है, हम मिल कर चौथे सेंटर का प्रवाह संग संग अनुभूत करेंगे." 


नंद को लेने और देने दोनों की थ्योरी और प्रैक्टिकल आते थे. कुशल खिलाड़ी था नंद इस खेल का और उसके लिए मीतू अंधे के हाथ बटेर जैसी थी. दोनों के बीच का गेम Win Win वाला था. अच्छा सौदा वही जिसमें दोनों को नफ़ा हो.


मीतू को आत्माओं और हृदयों के एकत्व की बातों की राह दैहिक सम्बन्धों में उतरना अच्छा लगता था तो नंद को "डिरेक्ट एक्शन" में रुचि थी. ज़रूरतें बड़े बड़े कॉम्प्रॉमायज़ करा देती है सो यह अल्पक़ालीन प्रेम फलने लगा था नैनीताल के उस होटल के कमरे में...दोनों ही चौथे सेंटर के प्रेम की अनुभूति के अभियान में प्रयाण करने लगे थे. नंद को कथित केंद्रों की परिभाषायें  जानना बेमानी लगता था उसके तजुर्बे ने उसे अच्छी तरह जता दिया था कि मीता मा का टार्गेट कौनसा केंद्र है.


सुअवसर पाकर दोनों ने अपनी आध्यात्म-पिपासा को भरपूर मिटाने के उपक्रम किए किंतु प्यास बढ़ती गयी ज्यों ज्यों मय का अनुपान किया ('दर्द बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की' के तर्ज़ पर).


दोनों का एनर्जी लेवल कम्माल के स्तर पर था.

मुझे इस ट्रेट से निजात पाना है : विदुषी सीरीज़

 विदुषी का विनिमय सीरीज़ 

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मुझे इस ट्रेट से निजात पाना है...

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हम शारीरिक दृष्टि से एक व्यक्ति भले ही दिखायी दें, मानसिक स्थिति यह है कि हम एक में अनेक होते हैं. याने एक शख़्स में  में बहुत सी शख़्सियतें छुपी होती है.


विदुषी का यह वैयक्तिक सोच था कि दुर्भाग्यवश वह पुरुष 'प्रेम'और 'संसर्ग' से वंचित है और यह उसके जीवन को खोखला व असंतुलित कर रहा है, उसे एक स्त्री होने के नाते यह पूरा अधिकार है कि वह जीवन के इस पहलू को एक्सप्लोर करे. विदुषी के छोटे मोटे अभियान इस क्रम में होते रहते थे. 


एक दर्शन और मनोविज्ञान का संतुलित अध्ययन करने वाला बिना जजमेंटल हुए चीजों को जस को तस देखने वाला बंदा उसका सोसल मीडिया पर दोस्त बन गया था जिसे वह 'फ़्रेंड फ़िलोसोफ़र और गाइड' के ख़िताब से अपनी ज़ुबान से नवाज़ चुकी थी. उसकी लोजिकल और अनुभवजनित बातों को सुनती थी, सहमति भी जताती थी. उसकी भलमनसाहत का मुसल्सल दोहन भी करती थी, लेकिन अपने ट्रेट्स से चाहकर भी मुक्त नहीं हो पाई थी या होना नहीं चाहती थी.


जहां भी प्रेम और सेक्स के पोईंट उठते है बुद्धिजीवी मानव मानवी स्पिरिचूऐलिटी का कवर लेते हुए ओशो के साहित्य और आश्रमों की तरफ़ मुख़ातिब होते हैं मानो वहाँ ये सब Knor के सूप्स और Maggie की नूडल्स की तरह इंस्टेंट मिल जाएँगे. विदुषी की चिंतन धारा भी कुछ ऐसे ही प्रवाह में बह चली थी. 


हाँ तो दिल्ली में आयोजित होने वाले एक ओशो-शिविर में विदुषी ने शिरकत करने का तय किया ध्यान सीखने के प्रकट मक़सद से, हालाँकि बेक ओफ़ माइंड में वही सोच और ट्रेट थी जिसका ज़िक्र में ऊपर कर चुका हूँ. 


दोस्त ने बताया था कि ऐसे शिविरों में अधिकांश सहभागी गम्भीर और जिज्ञासु लोग होते हैं जो अपनी आध्यात्मिक यात्रा पर होते हैं और बातों को समग्रता से युक्तिसंगत रूप में ग्रहण करते हैं. दोस्त ने फिर आगाह किया था कि इन शिविरों में कुछ ऐसे स्वामीजी और मायें भी होती है जिनका मूल उदेश्य ऐसे साथी तलाशना होता है जो ओशो के शब्दों में ध्यान और आध्यात्म से अधिक खुले सेक्स को देखने की मनसा लिए होते हैं और पार्ट्नर्स की तलाश में रहते हैं. 


तीन दिवसीय शिविर में विदुषी की मुलाक़ात एक "स्वामीजी" से हुई जो ज़िंदगी को भरपूर जीने वाले थे, एक वाकपटु व्यक्ति जिनको ओशो की टॉक्स के वे अधूरे हिस्से आकर्षित करते थे जिनमें प्रेम और सेक्स का ज़िक्र हुआ करता था. स्वामीजी और विदुषी के विचार विनिमय इन प्रिय विषयों पर वहाँ सविस्तार खूब हुए थे. 


विदुषी अपने एक रिश्तेदार के यहाँ ठहरी हुई थी वहाँ का पता स्वामीजी ने सानुरोध लिया था और आपस में मोबाइल नंबर्स का भी आदान प्रदान हुआ था. स्वामीजी ने इजहार किया था कि वे बहुत impressed थे हमारी विदुषी जी के शारीरिक सौष्ठव, खुद को कैरी करने के ढंग और इंटेलिजेंस से. प्रशंसा के पुल बांधे थे उस शविरार्थी ने. विदुषिजी ने भी बहुत अच्छे वाइब्स अनुभूत किए थे. स्वामी जी  ने इच्छा ज़ाहिर की थी कि वे विदुषी को 'हग' करना चाहेंगे और कहीं बैठ कर कुछ बौद्धिक विषयों पर चर्चा भी करना चाहेंगे. और इसके लिए वे शाम को उस कॉम्प्लेक्स में आकार विदुषी को फ़ोन करेंगे ताकि दोनों मिल सकें.


विदुषी ये सब बातें उत्साहित हो कर फ़ोन पर अपने उस "दोस्त" से शेयर कर रही थी अपने अनुसार शब्द देकर. हालाँकि वह मनोवैज्ञानिक बंदा बात बात में लगभग सब कुछ extract कर चुका था. 


अचानक स्वामी का काल आने लगा, विदुषी ने काट कर उस से बात की और वापस काल मिलाकर स्वामीजी के पदार्पण की ख़बर दोस्त को दी. दोस्त ने बिना जजमेंटल हुए आगे पीछे का ज़मीनी सच विदुषी को एक्सप्लेन किया, विदुषी ने कहा वह अच्छे से समझ गयी है और स्वामी को चलता करेगी. फ़ोन रखते ही विदुषी की ट्रेट फिर से उस पर हावी होने लगी थी. अपनी खुद की समझी और मानी हुई बातें उसको दोस्त का interference लगने लगा था.


नाना प्रकार के इंटेलेकचुअल जस्टीफ़िकेशन अपने लिए उसके ज़ेहन में आने लगे थे. विदुषी अपनी आज़ादी का परचम फहराने के लिए अपनी ताज़ा तलाश से मिलने फटाफट ड्रेस चेंज कर, टच अप कर, 'अजोरा' स्प्रे  कर के कॉम्प्लेक्स के ग्राउंड फ़्लोर में चली आयी थी जहां स्वामी अपनी स्कोडा में उसका इंतज़ार कर रहा था.


दूसरे दिन विदुषी फिर से उस दोस्त से फ़ोन पर पछतावे के साथ कह रही थी-तुम सच कहते थे...मैं ही बह गयी. जो हो गया सो हो गया, अब मुझे सम्भालो, मुझे टोको...मुझे रोको. मुझे अपनी इस ट्रेट से निजात पाना है.

बदलते साथी कार्यक्रम : बिंदु बिंदु विचार

 बिंदु बिंदु विचार 

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🔹जिन्होंने आपका  जी भर के फ़ायदा उठाया वो अक्सर ज्ञान देते और दिलवाते हैं कि आप उनके "True color" expose होजाने पर कुछ भी रीऐक्ट ना करें, देवता बन कर जो कुछ हुआ उसे भूल जाए. 


🔹जिन्होंने हमेशा सब कुछ manipulate किया और अपने जीवन को संकीर्ण सोचों और ख़ुदगर्ज़ी पर जिया, अपने नज़दीक से नज़दीक व्यक्तियों को "taken for granted" लिया वो  आपको उपदेश देते  और दिलवाते हैं कि उदार बनिए आदर्शवादी बने रहिए.


🔹ये चतुर चालाक और वाकपटु लोग selective बातें करके दूसरे संवेदनशील लोगों को अपने फ़ेवर में  प्रभावित कर लेते हैं इस बात का फ़ायदा उठाते हुए  कि सामनेवाला इंसान इतना  शरीफ़ है दूसरों को पूरी बात शायद ही बताएँ. इनके इस नोशन को ग़लत साबित करना ज़रूरी होता है. यथासमय इनकी असलियत सप्रमाण इनके नए पुराने समर्थकों के सामने लाने में कोई हिचकिचाहट नहीं रखनी  चाहिए. 

हाँ इसे पूर्णकालिक अभियान भी नहीं बना लेना चाहिए. प्राथमिकताओं का सही चुनाव ही सफलता का सूत्र है, विगत के इन क़िस्सों को बस सफ़ाई करके डस्ट बिन को सुपुर्द करने तक का सोच रखना चाहिए. होशमंदी यही होगी कि इन्हें "नकारात्मक यथार्थ"  समझते  हुए ही डील किया जाय जैसे कि अच्छी फ़सल के लिए झाड़ झंकाड़ की निराई करते हैं.


🔹बिना विलम्ब ऐसे लोगों को अपने जीवन से बाहर कर देना चाहिए भूलकर कि इनका  अमुक व्यवहार अमुक हालात के तहत हुआ होगा.....इस बात में कोई भी रियायत देना समझदारी नहीं. 


🔹ऐसे प्राणी यह भूल जाते हैं वे दिन जब "त्राहि माम त्राहि माम" करते थे और हर undue फ़ेवर माँग कर लेते थे. 


🔹भूल जाते हैं वो फिसलनें, वो फँसना जहां से rescue किया गया था. ऐसे वाक़ये जब ये अपनों को धोखा देते थे और अपने कुकृत्यों पर पर्दा डलवाने में आपकी मदद लेते थे इस प्रतिज्ञा के साथ कि आइंदा ऐसा नहीं होगा, बस इस बार इस जंजाल से निकाल दीजिए...आप सद्भावना में god sent savior हो कर उनका साथ देते हैं जबकि वो आपको महज़ इस्तेमाल करते हैं.


🔹भूल जाते हैं ऐसे जंतु वो झूठी माफ़ियाँ जो बार बार उन्होंने माँगी थी  इसीलिए कि आप से लाभ मिलना जारी रहे, आप उनके चंगुल में फँसे रहें. इनके इन सब व्यवहारों से आपकी मासूमियत को सुकून मिला होगा लेकिन आपको यह मानना होगा कि रिश्तों में आपका चुनाव ग़लत था. आपने पीतल को सोना समझा.....अब करेक्शन करना आपकी अपने प्रति ज़िम्मेदारी है. 


🔹भूल जाते हैं वे intiimate dialogues जो महज़ होठों से बोलते रहे थे. वो आंसू जो किसी के कोमल हृदय को प्रभावित करने के लिए आँखों से झरते रहे थे....और यह उपक्रम उनका बहुतों के साथ at one time होता रहा था. ऐसे शातिर लोग आत्म मुग्ध (narcissist),attention seekers और toxic  होते हैं. 


🔹अपने आर्थिक, सामाजिक, दैहिक, अहमजनित मतलब के लिए ऐसे लोग तरह तरह के आवरण औढ कर शिकार करते हैं और उस शिकार को नोच नोच कर खाते है. 

समय पर पहचान कर दूरी बना लेना उचित, नहीं तो बहुत बड़ा विनाश हो सकता है. 


🔹सौ सुनार की एक लौहार की...ऐसे लोगों पर गहरी चोट लगा कर उन्हें सबक़ देना ज़रूरी ताकि औरों को ना ठग सके, अपने प्यार और दोस्ती की नौटंकियों से बाज आए. जो किया है उस पर सोच सके.


🔹कभी कभी तो नाम और प्रमाणों सहित उनके करतबों को पब्लिक कर देना भी अनुचित नहीं होता, लेकिन आपकी बुनियादी शालीनता रोक सकती  है. हाँ यह आख़िरी कदम होना चाहिए ताकि दूसरे कम से कम इन manipulative narcisst self centered प्राणियों के चक्कर में न पड़े.


🔹संस्कृत की नीति सूक्ति : शठेय शाठ्यम समाचरेत...बिना मन का आपा खोए ऐसे लोगों को expose करना कृष्ण नीति है...आदर्शों के जंगल में  ना भटक कर गीता के उपदेश को याद करते रहना चाहिए जब जब ऐसे लोगों के असली चेहरे reveal होते है. उन्हें उनकी असलियत को याद दिलाते रहना चाहिए उन गुनाहों को भी जो उन्होंने किए और आपकी शरणागत हो कर बच गए.


🔹एहसान फ़रामोश और बेवफ़ा लोगों को माफ़ करना उनका हौसला बढ़ाना होता है...उन्हें यह जताना ज़रूरी होता है कि वे लोगों को बेवक़ूफ़ बनाने में सफल नहीं हुए थे बल्कि लोग उदार और संवेदनशील थे.


🔹बहुत ही अच्छा उसूल है, "नेकी कर दरिया में डाल"...हम बिना कर्ता भाव अपनाए लोगों का भला करें, बदले में प्रतिदान की आशा अपेक्षा ना करें...मन की शांति देता है. लेकिन शब्दकोश में कृतज्ञता, अहोभाव, कृतघ्नता,नाशुक्रा, व्यवहार, परस्परता, शालीनता आदि शब्द भी हैं जिनके अर्थों को जीवन में नकारा नहीं जा सकता. हमारा सहज दैनिक जीवन Give एंड Take के आम  सिद्धांत पर चलता है जिसे नकारना वास्तविकता के प्रति आँख मूँद लेना है. सिद्धांतों के इन झीने अंतरों को समझने के लिए कृष्ण का जीवन और गीता सहायक हो सकते हैं जो हमें चीजों को होशमंदी के साथ देखने में सहयोग देते हैं अन्यथा हमारे सोच एकांगी हो कर हमारे लिए ही उपद्रव का कारण बन जाते हैं.


🔹अहम (मैं-मैं) और यथार्थ स्वाभिमान में फ़र्क़ होता है, अहंकार अवांछित होता है लेकिन स्वाभिमान की पुनर्स्थापना अपने स्वयं के समग्र व्यक्तित्व के लिए अपेक्षित होती है . इसलिए किसी भी शब्द जाल में ना फँस कर निर्लिप्त भाव से इस स्वच्छता अभियान और स्वयं के अस्तित्व को क़ायम रखने पर बिना किसी guilt के काम करते रहना चाहिए.


🔹Word of Caution : इसे पूर्णकालिक अभियान भी नहीं बना लेना चाहिए. प्राथमिकताओं का सही चुनाव ही सफलता का सूत्र है, यह सकारात्मक सोच के साथ किया गया रेचन होता है जो सही कम्यूनिकेशन और मानसिक स्वास्थ्य को बरकरार रखने में मददगार होता है.


🔹ऐसे प्राणी साम-दाम-दंड-भेद सभी तरीक़े आज़माने में माहिर होते हैं और अपने अलावा सभी को मूढ़ समझते हैं. चूँकि कोई conviction नहीं होता इसलिए बहुत स्लिपरी होते हैं, किसी भी कन्सिस्टेन्सी की उम्मीद इनसे नहीं रखनी चाहिए. एक जगह ये घोर सैद्धांतिक दिखा देंगे खुद को दूसरी जगह प्रेक्टिकल, पहले दिन जिसके प्यार और आदर में क़सीदे पढ़ेंगे दूसरे दिन उसी को बहुत ख़राब बताने लगेंगे. इनके कुछ दिन के बोल व्यवहार से इनके बारे में फ़ैसला कर के निजात पा लेना ही हमारे सुकून के लिए अनुकूल होगा. इन्हें सहानुभूति देना या benefit of doubt देते हुए रियायत देना साँप को दूध पिलाने के समान होता है. इनकी दोस्ती जी का जंजाल होती है, सच में ये बदलते साथी कार्यक्रम चलाने वाले किसी के कुछ भी नहीं होते.

काँच की दीवार : आकृति जी

 काँच की दीवार 

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तुम्हारे और मेरे बीच 

हुआ करती थी 

एक काँच की दीवार 

जो होती थी 

मगर दिखती नहीं थी 

यह दीवार चलती थी 

हर वक्त हमारे साथ साथ...


देखा जा सकता था 

सब कुछ होता हुआ 

इस पार और उस पार 

इशारे भी हुआ करते थे 

शब्द भी बोले जाते थे 

जो पहुँचते थे 

पतली दीवार के उस पार

अलग अलग ही थे हम 

दिखा करते थे बस साथ साथ...


अचानक तुम बिफर गए 

हाथों में पत्थर उठा लिए 

औरों के हाथों में दे दिए 

बरसने लगे थे पत्थर 

बिखर कर उछल रही थी किरचें

लहू-लुहान थी मैं इस पार

टूट गयी थी दीवार,टूटे थे भ्रम 

सब कुछ हो गया था साथ साथ...

बस ग़लत को क्रॉस करो : बिंदु बिंदु विचार

 बिंदु बिंदु विचार 

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🔹हम सब के साथ कभी ना कभी ऐसा ज़रूर हुआ होगा/होता है बस देखना यह है कि इस से क्या सबक़ लें.


🔹छोटी क्लासेज़ की बात है, नया नया पेन इस्तेमाल करना शुरू किया था. होम वर्क में लिखे में गलती हो जाती. टीचर को देने से पहले उसे इरेज करना बहुत मुश्किल होता था. 


🔹मैं एक टाइप इरेज़र से उसे मिटाने की कोशिश करता, कभी कभी पुरानी शेविंग ब्लेड से भी घिसने की चेष्टा करता मगर काग़ज़ कट जाता.


🔹मै ने चॉक से ग़लत लिखे को कवर करने का प्रयास किया मगर वह भी उतर जाता और जो ग़लत हुआ होता वह फिर से सामने आ जाता.


🔹मेरे टीचर मुझे समझाते मगर मुझ पर कोई असर नहीं होता था.


🔹मुझे लगता था मैं बहुत चतुर-चालाक हूँ और अपनी ग़लतियों को छुपा सकता हूँ.


🔹ग़लतियाँ थी कि होती ही जाती रही, क्योंकि अप्रोच उन्हें आवरण औढा देने, छुपा देने, मेनेज कर लेने का खेल खेलने की हो गयी थी.


🔹घर तक बात ना जाए इसके पुख़्ता इंतज़ाम भी मैं करने में माहिर था. जैसे पड़ोसी क्लासफ़ेलोज को टाफी चूरन कंचे वग़ैरा देकर मुँह बंद करा देता, किसी को डरा देता, किसी की लफ़्फ़ाज़ी से तारीफ़ कर देता. टीचर से कभी माफ़ी कभी तोहफ़ा देना, चापलूसी कर लेता. फिर मेरे ख़ानदान के रसूख़ का असर भी था वो भी एक strong पोईँट था. 


🔹फिर मैने एक तरीक़ा और ढूँढ निकाला. अपने थूक से उसे मिटाने की कोशिश की. स्याही फैल जाती, फिर उँगली से या स्केल के कोने से उसे मिटाने की कोशिश करता काग़ज़ में छेद हो जाते.


🔹मेरी ये सब हरकतें पकड़ी जाती. थूक वाली बात को लेकर तो मैं पूरे स्कूल बदनाम हो गया था. मुझे एक गंदा लड़का समझा जाने लगा. 


🔹इस बीच किसी दोस्त या टीचर ने शायद दादीसा तक बात पहुँचा दी थी या दादीसा को खुद आभास हो गया था. 

एक रविवार को दादीसा की रेड पड़ी. कॉपीयां किताबें उनके सामने थी, और मेरे भेद भी.


🔹दादीसा ने पूछा : ऐसा क्यों करते हो ?


🔹मैंने कहा था : मैं नहीं चाहता कि लोगों को मेरी ग़लतियाँ पता चले इसलिए उन्हें इरेज़ या कवर कर देता हूँ.


🔹दादीसा ने कहा था : इस तरह ग़लतियों को मिटाना तुम्हारी कॉपी में छेद कर देता है. ज़्यादा से ज़्यादा लोग ना केवल तुम्हारी ग़लतियों को जान जाते हैं बल्कि तुम्हारी फ़ितरत और मूर्खता के लिए सामने चाहे कुछ भी ना बोले पीछे से तुम्हें दाग़दार और बेईमान ही समझेंगे और मखौल उड़ाएँगे.... चाहे तुम कितने ही मासूम क्यों ना हो.


🔹मैंने पूछा था : तब मैं क्या करूँ ?


🔹उन्होंने कहा था  : और कुछ भी ना करो,  बस ग़लत को क्रॉस कर दो. सही लिखो और आगे बढ़ जाओ. तुम देखोगे कि ग़लतियाँ होना ही बंद हो जाएगा.