Wednesday 3 January 2018

अमृत और विष : विजया



अमृत और विष
+ + + + + +
शिव शम्भू !
किंम्वदँती है 
तुम पी जाते हो विष,
रोक कर उसे निज कंठ में 
और 
कहलाते हो नीलकण्ठ.....

भोले !
विष कहाँ रहता है विष 
हो जाता है वो भी अमृत 
पाकर स्पर्श तुम्हारा,
उसी प्रभाव से ही तो 
तुम तुम हो 
हम हम हैं...

किंतु कभी कभी 
क़तिपय विषसिक्त पदार्थ, प्रकल्प और परिजन
हो जाते हैं प्रस्तुत
अमृत के रंग-गंध-स्पर्श-स्वाद-वचन लेकर....

किन्तु अज्ञेय !
हलाहल को अमृत समझ 
अपनाने मात्र से नहीं हो पाता 
वो जहर 
सहज समग्र अमृत....

सच तो यह है कि
तुम्हारी सहजता 
नहीं कर पाती है भेद 
अमृत और विष में....

हे अज्ञेय !
जरा सोचो और आत्मसात करो,
होता है भाव अंतर 
विष के अमृत संग 
या अमृत के अमृत संग 
स्पर्शन और ग्रहण में.....

स्यात् तुमसे होता रहा था 
अनुपान निशि दिन 
सुधा समझते हुए
किसी ग़रल को....

हुआ होगा अनायास ही 
अनावरण वस्तुस्थिति का 
और करने लगे होंगे 
तुम भी विष वमन....

कर ना दे यह कहीं 
निखिल वातावरण को
विषमय और विषाक्त 
और तुम अनासक़्त को 
कुंठित, विकृत और विरक्त...

दोस्ती दो ध्रुव : विजया


दोस्ती : दो ध्रुव

++++++++++
सोच रही थी 
रिश्तों में ज़ज़्बात और समझ की
अनूठी सी कीमिया
हम बना पाते हैं 
अपने दिल और दिमाग में 
संतुलन करके या
देकर किसी अधूरी वांछा को
कोई कवितात्मक रूप देकर....

देखे हैं में ने अनगिनत
उतार और चढ़ाव 
खुद के ही रिश्तों में 
मगर पाया है सुकून ओ लज़्ज़त
एक ऐसे इंसान के संग
जो जिया करता है ज़िन्दगी
दिल ओ दिमाग की प्रतिबद्धता से
स्वयं के साथ
औरों के साथ
अस्तित्व के साथ
अपनी सोच, भावों और सपनों को
जमीनी तामीर देकर......

गुज़ारे हैं हमने ये कुछ लम्हे इन दिनों 
उस जैसे ही एक इंसान के संग
जिसके लिए मिशन है 
अपनों की ज़िंदगी को संवारना
बिना किसी लफ़्फ़ाज़ी 
और दिखावे के,
जोड़ना टूटे हुओं को
राह दिखाना भटके हुओं को
रिश्तों में कोरी भावुकता से हट कर 
मज़बूत भावनात्मकता और संवेदना देकर....

बिन बोले बहुत कुछ किया है 
महसूस में ने 
जिस जिस को देखा
बिना किसी आग्रह के 
खुशियां जीते हुए,
उन दो इंसानों को बिन बोले
एक दूजे को सालों से समझते हुए 
मौत और ज़िन्दगी से 
एक सा झूझते हुए 
दोस्ती को एक नए मायने देकर
जिसमें साथ घूमना फिरना
खाना पीना बाहरी मनोरंजन नहीं
बस साथ रहते हुए
साथ बैठे हुए
काम करते हुए
दो ध्रुव मगर मिल जुल कर......

लिख रही हूं ये चंद लाइने
सनद रहे उन 
भीतरी तजुर्बों की 
जिन्हें मुश्किल है 
कह पाना पूरे पूरे अल्फ़ाज़ देकर....

(जयपुर एयर् पोर्ट और इन् फ्लाइट....चेन्नई को)

एक सफा ज़िन्दगी का,,,,,: विजया


एक सफा ज़िन्दगी का....

+ + + + + + + +
महज एक वादे पर
लुटाने चले थे तुम वो सरमाया
जिसे सहेजा था कैसे कैसे
और हम तुम ने मिल कर
हो जाओ कहीं न जोगी
निकला था बामुश्किल ये डर
नहीं सोचा था
ज़ज़्बा ए रजपूती देगा दस्तक
एक बार फिर तेरे दर पर...

वो चाय की प्यालियों पर होने वाली बहसें
वो मेरे तकरार भरे शिकवे 
वो तेरे इसरार भरे दिलासे
तेरी आँखों में बसे
सुकून के समंदर
वो तेरे संजीदा दोस्त
या यारां मस्त कलंदर
कभी खिज़ा नहीं हरदम बहार
प्यार ही प्यार बेशुमार
मेरा बताना और तुम्हारा सुनना
टहनी पर बैठी नन्ही चिड़िया के किस्से
और भी ना जाने कुदरत के 
कितने जाने अनजाने हिस्से
फूलों के रंगों को पहचानने की पहेलियाँ
मेरी बचपन की या आज की सहेलियां
गानों के किरदार पर पैसों की हार जीत
हर किसी को भाती तेरी मेरी प्रीत
मेरी जरा सी उदासी देख
तेरी अजीब सी कोमेडियां ओ कहकहे
वोे गुदगुदा देने वाले तेरे वाले जोक्स
और दिल से निकले ठहाके
कुछ तेरी कुछ मेरी अनकही बातें
तेरी तेरे चाहने वालों से सॉलिड मुलाक़ातें
घर लौटते हुए पूछना क्या लाऊँ
बिन बताये मगर मैं मनपसंद ही पाऊँ
खबरों,फिल्मो,इंसानों और देश दुनिया पर
ना ख़त्म होने वाली चर्चाएं
कभी कुरान की आयतें
कभी वेदों की रिचाए
एक अडिग भरोसा की तुम रहोगे
तुम ही बन कर
तेरा हर एक करतब होता 
सूझ बूझ से छन कर
तेरी कोमल सी नज़्मे
या सीधी सपाट फिलोसोफी
हर बात मन भावन
क्या ओरिजिनल क्या कॉपी
तू रहता गीतों ग़ज़लों और किताबों में
दौलत और शोहरत से दूर
उम्दा ज़िन्दगी के ख्वाबों में
हर शै से मोहब्बत
हर मज़लूम से हमदर्दी
सुहाना तेरा साथ 
गर्मी हो या सर्दी
न जाने किस ,'तत्व चर्चा' की
वेदी पर बलि चढ़ गये थे
तुझे प्यार करने वाले भी
तुम से दूर होते चले गये थे
ज़िन्दगी के इस दौर में कोई भी
तुम जैसे नहीं थे
तुम होने लगे थे वो
जो तुम कभी भी नहीं थे....

ना जाने कैसे रास आया था
तुम को वो सब खतो किताबत
करते रहे थे ताजिंदगी
जिसकी तुम ही खिलाफत
अचानक तुम में कोई और उभर आया था
ज़ज़्बात, इल्म और अना से बनी
उस मय का तुम पर असर हो आया था
खोज रही थी फिर से मैं
तुम ही में तुम को
लगने लगा था
कहीं खो ना दूँ फिर से मैं तुम को...

ओ हमनवा ओ रहनुमा !
गुलिस्तां और आसमां !
सज़दे में झुक जाऊं 
ऐसे हो तुम एक मुज्जस्मा
ले आओ वो खुशियां 
ऐ मेरे अर्मुगां !
तुम हो जैसे रहो 
मेरे मेहरबां के हमजुबां !
आना तेरा मुबारक
औ लौट आने वाले
खुशिया मना रहे हैं 
तुझे दिल से चाहने वाले...

(हमनवा=दोस्त, मुज्जस्मा=मूर्ति, रहनुमा=रास्ता बताने वाला, गुलिस्तां=बगीचा, हमजुबां=दोस्त,अर्मुगां=उपहार)


संग बन सहचर न चलता कोई,,,,,,, : विजया



संग बन सहचर ना चलता है कोई....(Hinglish)
+ + + + + + +
हिलने में है मशक्कत 
चलने में थकन है
साथ चलना ए डिअर
तो मौजू है दिल का,
चिमटों से फुल्के सेक लेता हर कोई
संग बन सहचर ना चलता है कोई...

मॉल्स में शौपिंग
प्लेक्सेज की होप्पिंग
कैंडल लाइट में चरना
ललचाना और मुकरना
लव आजकल का ना पायी ना खोई
संग बन सहचर  ना चलता है कोई...

इंटेलेक्चुअल चर चर
इमेजिनरी एडवेंचर
शब्दों के लंबे व्यापार
तेरे मेरे होते हैं विचार
पकवान हैं फीके, ऊँची दूकान के कनोई !
संग बन सहचर ना चलता है कोई....

मिस यू माई डिअर
बिन तुम ना कोई चीयर
चले सब बदस्तूर
ना उदासी ना बेनूर
हिसाब बस जुबानी जुमलों का होई,
संग बन सहचर ना चलता है कोई...

यारों कैसी है यह इंटिमेसी
सोचें हैं वेस्टर्न जीना है देसी
टच और छूअन की बातें बेचारी
जस' फ्रेंड पड़े हैं कमिट पे भारी
चरा लो चला लो झुका डाली को गोई
संग बन सहचर ना चलता है कोई...

(शब्द स्पष्टीकरण : चिमटों से फुल्के सेकना(राजस्थानी कहावत) : बिना तक़लीफ़ उठाये ऊपरी काम करना, कनोई राजस्थानी में हलवाई को कहते हैं, गोई याने छुपा कर)


रिश्ता शौहर और बीवी का : विजया


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Dedicated to my Loving Companion, friend, philosopher and guide who introduced me to many an unknown aspects of human life)
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+ + + + + +
होते हैं ये समाजी रिश्ते
स्पाउसेज के भी
माटी के सूखे दीये की मानिंद
होता नहीं जो रोशन 
पड़े ना जब तक तेल
मुहब्बत,समझ 
और एहतिराम का...

बाज़ वक़्त ये रिश्ते
होते हैं खड़े
सहारे बैसाखियों के
जिन्हें कह देते हैं
मज़हब, दौलत, कतरे ब्योंते कानून
दे सकते हैं
जो सुख गुलामी का,
नहीं मिल पाता है मगर
वरदान मन की पीड़ा का
एहसास आज़ादी का...

अगन हवन की
थमा देती है हाथों में
एक अदद रिश्ता,
नहीं पहुँच पाती मगर
कभी भी लौ उसकी
मन के अँधेरे कोनों तक,
और इस तरहा
रिश्तों की किसी भी हद से
बाहर हो जाता है
हर यक कोना
वुज़ूद का.....

रस्मे कसमे और कायदे
बाँध सकते है
दो जिस्मो को,
रख सकते हैं वे किरदारों को
चार दीवारों से घेर कर
नीचे एक छत के
मगर
खातिर रूहों के जुड़ाव के
ज़रूरी है मिलना
दिल ओ जेहन का....

कितना अजीब है
यह रोज़गार शादी का
शौहर और बीवी
लग जाते हैं
अपने अपने ओहदों पर
और
बिना किसी तरक्की के
बने रहते हैं ताजिंदगी
बीवी और शौहर
मानो बस यही है
आगाज़ ओ आखिर
इस ज़िन्दगी का...

काश हो जाये
खाविंद और मन्कूहा से
दो दोस्त वो दोनों
और
बन पाये दोस्त से
खुदा फिर,
मनाने को जश्न
धरती पर
सूरज, चाँद सितारों के नीचे
दो ज़िस्म और दो रूहों के
मिलन का...

(मन्कूहा : ब्याहता)

(यह राईट अमृता प्रीतम जी की कहानी 'मलिका' और उपन्यास 'एक खाली जगह' से प्रेरित है. अमृताजी हम सब की मोस्ट फेवरिट रचनाकारों में से एक हैं.)


अनकहा सा,,,,,,


छोटे छोटे एहसास 
==========

अनकहा सा कह देते हो जब तुम 
ख़ुद का क्या,मौसम भीग जाता है 
तुम चुप रहो या कहो कुछ भी 
ये दिल मेरा..सब जान जाता है 😊.

दूसरा बेहतर वर्ज़न :

छोटे छोटे एहसास 
==========

अनकहा सा कह देते हो जब तुम 
मैं तो क्या,मौसम भी भीग जाता है 
खामोशियाँ लब की,गुफ्तगू नज़रों की 
ये दिल मेरा..सब जान जाता है 😊.

दर्द के सोते,,,,,,,


छोटे छोटे एहसास 
=========

दर्द के सोते 
फूटे ज़मीं से 
के बरसे आसमाँ से, 
बहा ले जाते हैं 
सब कुछ 
उफनता 
एक सैलाब बन कर,,,,,

(ज़मीं से अर्थ दिल से हैं और आसमाँ आँखों को कहा गया है .)

छोटे छोटे एहसास,,,,,,


छोटे छोटे एहसास 
==========

१.
ज़ालिम ऐसा है की क़ाबू में नहीं रहता
सब सहता है मगर कुछ भी नहीं कहता...

२. 
अब एक जुगलबंदी एहसासात की :

खामोश लबों से कहता तो बहुत कुछ है
ये तो बस हम हैं कि अनसुना कर देते हैं,,,
                                (Not Mine)

क्या कहें फ़साने उनकी शोख़ नादानियों के
दिल मिरे को वो यक झुनझुना कर देते हैं,,,

३.
उम्र का क्या कट ही जाती यूँ भी 
वो आए तो रोशन मेरा जहाँ हो गया,,,

रूठ है खुदा तुम से,,,,,,,




रूठा है खुदा तुम से,,,,,,

##########
फ़ासले दिल के ज़ुबां से ना भर 
रास आए  ना प्यार की ये नज़र.

उम्र होती हैं मोहब्बत की भी यक 
ज़िंदा रहेगी हर पल ग़ुमां ना कर.

ज़ख़्म होते है हरे  फ़ितरत उनकी 
लगने दे खुली हवा मरहम ना कर.

क़ुबूल है हर गुनाह किया ना किया 
क़ातिल तेरा मुंसिफ़ गिला ना कर.

लिखी है ख़ुशियाँ जिया है उनको 
ग़म आएँ जो दर पे शिकवा ना कर.

दीद नम से बहे जाता है दर्दे दिल 
संभाल ले ख़ुद को उम्मीद ना कर.

क़तरा ए ख़ून से लिख दे तू ग़ज़ल
रूठा है खुदा तुझ से  दुआ ना कर.

मुहबत नहीं तो फिर क्या है



मुहब्बत नहीं तो ये इरादे फिर क्या है,,,,,,
############
छू ना पाऊँ जो उसको साथ फिर क्या है
जुदाई का सबब ना है तो ये फिर क्या है.
लगी है आग बहरे दिल में जब से मेरे
लौ दिए की या आबे दीद फिर क्या है.
हो जाते हैं शिकवे भी मुहब्बत  में याराँ
मुहब्बत नहीं तो ये इरादे फिर क्या है.
हमने तो जिया है हर लम्हे फ़क़त उनको
मुझ पे एहसासे इज़ा हिज्राँ फिर क्या है.
लब चुप है अताब सोज़ ओ गुदाजाँ  है
चश्म ज़ाहिर बी से ये देखा फिर क्या है.
क्या कहूँ  मख्मूर हूँ मैं रात और दिन को
कैफियत ऐसी कि मेरी खुदी फिर क्या है.
मक्सूब जो था क्या यूँ ही गँवा डाला मैंने
मसला ए मक्सूम ओ अलैह  फिर क्या है.
डर है न निकल जाए मुंह से मेरे हर्फ़े राज
बंदये गयूर हूँ शक्लो शमाइ फिर क्या है.
मायने :
बहरे दिल=ह्रदय का सागर, आबे चश्म=आँख का पानी, इज़ा=कष्ट, हिज्राँ=विरह, अताब=क्रोध, सोज़=जलन
गुदाजाँ=पिघलता हुआ (रोने के सेंस में)चश्म ज़ाहिर बी=ऊपरी आँख,
मख्मूर=नशे में चूर, कैफियत=दशा, खुदी=गर्व, हर्फ़े राज=भेद की बात, बंदये गयूर=शर्मीला मर्द/ स्वाभिमानी पुरुष, शक्ल=सूरत शमाइल=स्वभाव, मक्सूब=अर्जित, मक्सूम= भाज्य याने  dividend, अलैह=divisor याने जिस नंबर से भाग देन