अमृत और विष
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शिव शम्भू !
किंम्वदँती है
तुम पी जाते हो विष,
रोक कर उसे निज कंठ में
और
कहलाते हो नीलकण्ठ.....
भोले !
विष कहाँ रहता है विष
हो जाता है वो भी अमृत
पाकर स्पर्श तुम्हारा,
उसी प्रभाव से ही तो
तुम तुम हो
हम हम हैं...
किंतु कभी कभी
क़तिपय विषसिक्त पदार्थ, प्रकल्प और परिजन
हो जाते हैं प्रस्तुत
अमृत के रंग-गंध-स्पर्श-स्वाद-वचन लेकर....
किन्तु अज्ञेय !
हलाहल को अमृत समझ
अपनाने मात्र से नहीं हो पाता
वो जहर
सहज समग्र अमृत....
सच तो यह है कि
तुम्हारी सहजता
नहीं कर पाती है भेद
अमृत और विष में....
हे अज्ञेय !
जरा सोचो और आत्मसात करो,
होता है भाव अंतर
विष के अमृत संग
या अमृत के अमृत संग
स्पर्शन और ग्रहण में.....
स्यात् तुमसे होता रहा था
अनुपान निशि दिन
सुधा समझते हुए
किसी ग़रल को....
हुआ होगा अनायास ही
अनावरण वस्तुस्थिति का
और करने लगे होंगे
तुम भी विष वमन....
कर ना दे यह कहीं
निखिल वातावरण को
विषमय और विषाक्त
और तुम अनासक़्त को
कुंठित, विकृत और विरक्त...
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