Wednesday 30 October 2019

वह ग़मज़दा लड़की.....

draft :

वह ग़मज़दा लड़की,,,,
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वह करती रही तैयार मुखौटे
खातिर खुद के
देख कर वो चेहरे
जो मिला करते थे हर रोज़ उसको  :
दोस्त ओ दुश्मन
अहल ओ अयाल
सिन्मा की वो हसीन अदाकारा
वो ताक़तवर सियासतदाँ खातून
यूनिवरसिटी की वो ज़हीन उस्तानी
टेलिविज़न पर तक़रीर करती वो अल्मा अदीबा
उसकी पाकीज़ा माँ,शोख़ बहन और मगरूर भाभी
यहाँ तक कि कोई फ़ैशनबाज पड़ोसन
वो लड़की भी जो हर सुबहा
उसके दरवाज़े पर
अख़बार और पाव रोटी दिया करती थी,,,

वो हँस लेती थी ख़ूब
लोगों के घटिया चुटकलों पर,
हिला देती थी सिर अपना
जब भी हिलाते थे वे अपने सिरों को
कभी बेवक़ूफ़ी...कभी सादगी में,
देखा था समझा था जाना था उसने
फजूल के दिखावों को
लोगों की नादानी और बेइल्मी को
झूठी अना और बनावटीपन को
अहसासे कमतरी और बढ़तरी को...

किया था मंज़ूर उसने
उनके मुस्तहकम जाबिता ए इखलाक और सलीकों को
कोशिश भी की थी अपनाने की उनको
उन्हें जीने की भी,
ये इखलाकियत थी
उन्ही लोगों की
जो लालच ओ हिक़ारत से घूरते थे
झीने लिबास में ढके
किसी औरत के मांसल जिस्म को
चबाते हुए मटन का टुकड़ा
बेशर्मी और बेसब्री से,
ये अदबो क़ायदे थे
उन्ही लोगों के जो
लबों पे तवस्सुम....दिलों में ज़हर रखते हैं
मुँह में राम बग़ल में छुरी रखते हैं
लोक लिहाज़ से सच कहने में डरते हैं
जो किसी के साथ जीते नहीं उन्हें हाँकते हैं,,,,

की थी भरपूर कोशिश उसने
घुलमिल जाने की
उन लोगों में
जो कराते थे हर घड़ी महसूस उसको
कभी जानकर कभी अनजाने में
तरह तरह से जताते हुए
के वो उनमें से एक नहीं
करते थे जो नाकाम कोशिश
साबित करने की
के
बिना उनके उसका कोई वजूद नहीं,,,,

और आज की रात
जब वो गैलनों आँसू बहा रही थी
जान चुकी थी वो कि उसका दर्द और उदासी
महज़ उसकी अपनी थी
उस बेपनाह दर्द को बाँट लेने के लिए उसके साथ
महज़ उसका बिस्तर और तकिया था
और जब भी तकती उपर की जानिब
उसकी साथी हो जाती
वो सूनी सूनी छत उसकी तरह ही
एक इबारत के उतरने के इंतिज़ार में,,,

अल्मा अदीबा=विदुषी, अहल ओ अयाल=परिवार, बेइल्मी=अज्ञानता, अदाकारा=अभिनेत्री, सियासतदाँ=राजनीतिबाज, खातून=महिला,ज़हीन=मेधावी, उस्तानी=महिला प्रोफ़ेसर, मगरूर=घमंडी, अना=अहम, कमतरी=inferiority, बढ़तरी=superiority, मुस्तहक़म=कड़ी
जबिता ए इखलाक=नैतिकता, अदब..क़ायदे..सलीक़े =सभ्यता

Wednesday 16 October 2019

समापन नहीं...

शब्द सृजन : मृत्यु, अवसाद आदि
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समापन नहीं,,,
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यह समापन नहीं
मृत्यु भी नहीं
प्रत्युत
हैं कुछ और
है कुछ और,,,
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होते हैं ना
कुछ पल
जब नहीं कर पाते हम
अनुभूति रचनात्मक वर्तमान की
परिकल्पना सकारात्मक भविष्य की,,,

पड़े होते हैं हम
ताकते हुए
उन्ही दीवारों को
उसी छत को,
होते हैं आसपास
वे ही शब्द
जिनमे और कुछ नहीं
बस समाहित होते हैं
वे ही भाव चिंतन और स्पंदन
विगत के
खोखले
ख़ाली ख़ाली
सुस्त पीले पीले से,,

लगता है जैसे
कोई कारण नहीं
चलते रहने के
होने देने के
यहाँ तक कि कुछ भी तो
पर्याप्त और सक्रिय नहीं होता
यहाँ तक कि
'असफल' हो जाएँ
उसके लिए भी,,,

होता है ना 'आगत'
प्रवेशाकुल
किंतु नहीं होते हम प्रस्तुत
स्वागत थाल लिए,
नहीं होना चाहते हम शुमार
उसके अभिनंदन उत्सव में,
ऐसी मनस्थिति
जिसमें बस रोक देना चाहते हैं
सब कुछ
बस बैठ जाना चाहते हैं
जड़ हो कर,
नहीं है मौत यह, क़त्तई
यदि होती वह मौत
तो स्थायी होती है ना...
किंतु यह कुछ तो है
बिलकुल सन्निकट उसके,
लगता है मानो
समापन है
श्वासों के गमनागमन का,,,

करते हैं हम महसूस
एक रस्सा गर्दन से लिपटा
एक चाक़ू कलाई पर
गोलियों का कसेला सा स्वाद जिव्हा पर
करते हैं हम
कल्पना मात्र इनकी
हालाँकि स्वयं नहीं होते निश्चित कि
चाहते हैं ये सब
अंतर्मन से,,,

क्षणिक भवोद्वेग़ है
ये तो
जिन्हें ना जाने क्यों
पाते हैं हम स्वयं
अपने छद्म अस्तित्व सा,
(और)खोलते हैं द्वार
बिना थप थपाए
अहसासे कमतरी के
कुंठाओं के
अवसाद के,,,,

अभीष्ट हो हमारा
पहचान कर
स्वयं को
अपने वजूद को
अपने सारतत्व को
होकर सजग और स्पष्ट स्वयं में
होकर तत्पर
स्वीकारने सम और विषम को
सम भाव से
समस्त आग्रहों से परे...
पाने को ख़ुद को
और
जीने को स्वयं को,,,,

हीन भाव : विजया

शब्द सृजन : कमतरी
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हीन भाव (अहसासे कमतरी)
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सोचती हूँ कभी कभी
करूँ क्या मेरे उस हिस्से का
जो बार बार कहता है
चिल्ला कर
"मैं हूँ कुछ तो....मैं हूँ विशेष
मैं हूँ निराली...मैं हूँ मेधाशाली..,,

कभी कभी सोचती हूँ
कहलाती हूँ मैं
नन्हा सा तारा नभ में गुम
खोयी हुई चमक लिए
हज़ारों लाखों की भीड़ में...

सोचती हूँ कभी कभी
सर्वोत्तम विकल्प है मेरे लिए
लम्बा सा मौन...
क्यों परेशान होना
क्यों झंझट मोल लेना
कुछ भी करने के लिए,
क्या रखा है मेरे ख़ातिर
लोगों के
इस निर्दय शोर शराबे वाले
घने से झुंड में...

कभी कभी मैं मेरे अपनों को
किए डालती हूँ सशंकित
अपने होने के बारे में भी,
मैं क्यों ? अभी क्यों ? यहाँ क्यों ?
अस्पष्ट है इन सब के कारण मेरे लिए
इसीलिए
कुछ भी तो नहीं रह गया है
कहने को मेरे पास....

क्यों सुने मेरी ?
कहा किसने है उन्हें
मेरी परवाह करने को ?
यह जो दुनिया है ना
बहुत संगदिल,
कुछेक प्रतिभाएँ ही तो
चमक पाती है यहाँ,
क्या रखा है यहाँ मेरे लिए...

सोचती हूँ कभी कभी
क्या किया जाय
मेरे जीवन के उस भाग का
जो तरस रहा है..तड़फ रहा है
खिन्न है...उदास है
होकर ग्रसित हीन भाव से

कह दो ना
प्यार है तुम को मुझ से
दिलाओ ना मुझे भरोसा
कि तुम करते को परवाह मेरी
मत गिरने दो मुझे इन सघन अंधेरों में
कहो ना होंगे तुम संग मेरे
हर क्षण हर घड़ी
और दोगे साथ मेरा
हर हाल में....

Tuesday 1 October 2019

बचपन और बचपना,,,



फ़र्क़ बस इतना है
बचपन और बचकानेपन में,
होता है एक
अन्तर की सहज गहरायी में
मीठा सा एहसास
दीखता है दूसरा
हिचकोले खाता हुआ
तैरता सा
'होने' की ऊपरी सतह पर
पहले मीठा फिर कसेला...

रहस्यमयता की धुँध : विजया

थीम सृजन : साहिल और समंदर
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रहस्यमयता की धुँध....
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खो गया है सागर
रहस्यमयता की धुँध में
नहीं बताता है अब वो
कुछ भी मुझ को
सीपियों में भी नहीं है
फुसफुसाहटें उसकी
नहीं है कोई प्रतिध्वनियाँ भी
किनारों से,
कैसे करें हम
वाद विवाद पवन से
कैसे करें हम
मोल तोल आकाश से,
क्या हुआ जो
पहाड़ के संग सट कर खड़े हम
देखते हैं ज़िंदगी और मौत को
और करते हैं
आलाप और विलाप भी...

भाग रहा है ना जीवन
काटता है चिकौटी भी
चीख़ता और चिल्लाता भी है
ज़ोरों दरवाजे भी थप-थपाता है
उपद्रव हैं जो नहीं खाते तरस कभी
कष्ट है जो नहीं हो पाते नरम कभी
सब कुछ तो होता रहता है दैंन दिन
कैसे कर पाऊँ नज़रंदाज़
इन सब को....

ऊब रहे होंगे आप
मेरे विराम रहित प्रलाप से
कर रही हूँ ना चुग़लियाँ मैं लगातार
महा सागर की,
मत सोचना
क्यों नहीं करते
लौंग वाली चाय पर
आजकल हम गुटुरगूँ ?
ऐसा नहीं है क़त्तई
कि नहीं पट रही इन दिनों हम में
बहुत कुछ है हमारे पास
एक दूजे को कहने और सुनने को
किंतु ये शब्द हैं ना....
ये तो बने हैं पानी से
और लिखे हुए हैं लहरों पर,
और....लहर का प्रवाह
जब जब होता है निम्न
लगता है ना समंदर है दूर
बहुत दूर
अपने तट से,
मगर हुए हैं क्या अलग कभी
साहिल और समंदर
अटूट है
परस्पर अस्तित्व जिनका....

(धन्यवाद साहेब याने मेरे आत्म सखा और जीवन साथी का जिसके  midas touch से यह रचना इस रूप में मैं प्रस्तुत कर पा रही हूँ. Mystic (रहस्यदर्शी) Mysterious(रहस्यमय)और Mystery (रहस्य/रहस्यमयता) को पल पल जीने के अनुभव और अनुभूतियाँ....परिभाषित जीवन के बीच अपने आप में एक विलक्षणता और विशिष्टता है....मेरी लगभग सभी रचनाओं में अमिट प्रेम के बिम्ब है जिसे पानी से बने शब्द बयान नहीं कर सकते.)

मौन में पले स्वप्न,,,

छोटे छोटे एहसास
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मौन में पले स्वप्न
होते हैं जब साकार
लगती है
सुखद पुनरावृति
उन पलों की
जो जीये गये थे
बिन बोले !