Monday 15 September 2014

IF (हिंदी भावानुवाद के साथ)

IF (हिंदी भावानुवाद के साथ)

(by Rudyard Kipling)

# # # # # #
If you can keep your head when all about you 
Are losing theirs and blaming it on you;
If you can trust yourself when all men doubt you,
But make allowance for their doubting too;
If you can wait and not be tired by waiting,
Or being lied about, don't deal in lies,
Or being hated, don't give way to hating,
And yet don't look too good, nor talk too wise:

If you can dream—and not make dreams your master;
If you can think—and not make thoughts your aim;
If you can meet with Triumph and Disaster
And treat those two impostors just the same;
If you can bear to hear the truth you've spoken
Twisted by knaves to make a trap for fools,
Or watch the things you gave your life to, broken,
And stoop and build 'em up with worn-out tools:

If you can make one heap of all your winnings
And risk it on one turn of pitch-and-toss,
And lose, and start again at your beginnings
And never breathe a word about your loss;
If you can force your heart and nerve and sinew
To serve your turn long after they are gone,
And so hold on when there is nothing in you
Except the Will which says to them: 'Hold on!'

If you can talk with crowds and keep your virtue,
Or walk with Kings—nor lose the common touch,
if neither foes nor loving friends can hurt you,
If all men count with you, but none too much;
If you can fill the unforgiving minute
With sixty seconds' worth of distance run,
Yours is the Earth and everything that's in it,
And—which is more—you'll be a Man, my son! ...

यदि ...
# # # #
यदि तुम अपना मस्तिष्क संतुलित रख सकते हो
जब,सभी आपा खोने लगे हों और
तुम्हें ठहरा रहे हों दोषी!
यदि तुम कर सकते हो स्वयं पर विश्वास
जब सभी करते हों तुम पर अविश्वास
और दे सकते हो इसकी अनुमति भी !
अगर तुम कर सकते हो इसकी प्रतीक्षा
वह भी विलम्ब की थकान से दूर
या कर सकते हो झूठ का सामना
और नहीं शामिल होते हो छद्म -तंत्र में
या घृणित माने जाकर भी रहते हो
तुम इससे पूर्णतः अविचलित
फिर भी नहीं दिखते हो अत्यधिक अच्छे
न प्रस्तुत करते हो स्वयं को ज्ञाता...

यदि तुम बन सकते हो स्वप्नद्रष्टा
नहीं बनने देते हो सपनों को नियंता
यदि तुम सोच सकते हो निरंतर
और सिर्फ विचारों को नहीं बनाते लक्ष्य
यदि तुम सामना करते हो जय-पराजय का
और रखते हो दोनों-छलावों को समकक्ष
यदि तुममें साह्स है सुनने का
जिसे तुमने कहा था वही सत्य
पर धूर्तों ने बना दिया उसे असत्य
बिछाने एक जाल मूर्खों के लिए
या उन कर्मों पर निगरानी करने
जो तुमने किए हैं समर्पित ,और
आबाद किया अपने जर्जर औजारों से
वंचितों और सीमांत लोगों का जीवन...

यदि तुम बना सकते हो एक गट्ठर
अपनी तमाम विजय और उपलब्धियों का
और लगा सकते हो त्वरित उसे दांव पर
सब खोकर शुरू कर सकते हो शून्य से यात्रा !
वह भी दीर्घ निःश्वास भर शब्द उच्चारे बिना!
यदि तुम रख सकते हो नियंत्रित हृदय
मस्तिष्क और अपनी मांस पेशियों को
चुकने के बाद भी बहाते हो परिहास धारा
और.. सहेजकर रख लेते हो सब कुछ
जब तुम्हारा अंतस है ख़ाली,नहीं है कुछ
बाकि रह गई है एक अलौकिक तमन्ना
जो सबसे कहती है "प्रभावशाली रहो"

यदि तुम कर सकते हो भीड़ को संप्रेषित
और जीवंत रख सकते हो सदाचार ,सदगुण
या राजाओं के साथ-साथ रहकर भी
नहीं भूलते हो आम आदमी की संवेदना
यदि तुम नहीं होते हो किंचित भी प्रभावित
अपने शत्रु या मित्रों के विकिरण से
यदि तुममें है भाव समानता का
नहीं है किसी के प्रति पक्षपात
यदि तुम किसी के लिए न रुकने वाले
निर्मम पल के मिनट को भर सकते हो
साठ सेकण्ड में तय दूरी से
तब वह सब कुछ तुम्हारा है
धरती और भीतर -बाहर समाहित संसार
और उससे भी कहीं पारदर्शी सत्य -
मेरे बेटे!तुम बन जाओगे एक मानुष !

THE ARROW AND THE SONG (हिंदी भावानुवाद के साथ)

THE ARROW AND THE SONG
BY HENRY WADSWORTH LONGFELLOW
(With Hindi Bhavanuvaad)

# # # # #
I shot an arrow into the air,
It fell to earth, I knew not where;
For, so swiftly it flew, the sight
Could not follow it in its flight.

I breathed a song into the air,
It fell to earth, I knew not where;
For who has sight so keen and strong,
That it can follow the flight of song?

Long, long afterward, in an oak
I found the arrow, still unbroken;
And the song, from beginning to end,
I found again in the heart of a friend.

तीर और नगमा

# # # # #
छोड़ा था
मैं ने
एक तीर
हवा में
गिरा था जो
जमीं पर,
मगर नहीं जानता था मैं
--कहाँ ?
क्योंकि
उड़ा था वो
इस तेज़ी से
नहीं दौड़ पायी थी
नज़र
उसके पीछे..

सरसराया था
मैं ने
एक नगमा
हवा में
गिरा था वो भी
जमीं पर,
मगर नहीं जानता था मैं
--कहाँ ?
क्यों कि
हो सकी है किसके पास
वो पैनी और गाढ़ी नज़र
जो कर सके पीछा
एक नगमे की उड़ान का ?

बीता था
एक लम्बा अर्सा
और मिल गया था
मुझ को
वो ही तीर
बिना टूटे
अटका हुआ
एक शाह बलूत में
और मिला था
वही नगमा
हुबहू
आगाज़ से आखिर तक
समाया हुआ
एक दोस्त के दिल में..

Thursday 11 September 2014

OCEAN AND WAVES / समुद्र और लहरें (नजमा)

OCEAN AND WAVES
# # #
Wind blew,
Appeared the millions of waves,
You called
The waves
The Ocean,
No ocean, no waves,
No waves but the ocean:
The silent Ocean,
The non-waving ocean,
The surface, the waves
A product of an incident
A result of an accident,
Why to cling to surface
I am meant for the depth,
Where the ultimate lives
Where the absolute dwells,
Where I will meet
With my substance..


*****************
बहते ही हवा के
उभर आई थी
लाखों लहरें ,
कहा था सिर्फ लहरों को
समंदर तुमने,
होता नहीं है
कोई अस्तित्व
लहरों का
बिना समुद्र के
किन्तु
रहता है सागर
विद्यमान
लहरों के ना होने पर भी:
शांत सागर ,
बिना लहरों का सागर..

होती हैं
लहरें
बस सतह पर,
उपज एक घटना की
परिणाम
किसी दुर्घटना का ,
व्यर्थ है
चिपका रहना
सतह पर ,
मैं तो हूँ
उन गहराईयों के लिए
जहाँ रहता है
चरम
जहाँ स्थित है
परम
जहाँ मिलती हूँ मैं
अपने तत्व से
अपने सत्व से .....

Let Us Tighten Our Fists / कस लें हम मुठ्ठियाँ अपनी (नजमा)

Let Us Tighten Our Fists /  कस लें हम मुठ्ठियाँ अपनी
Let Us Tighten Our Fists...
# # #
Let us
Tighten
Our fists
To make our
Veins
Slinky
and
Spright...

Then...
Let us
Search for
Our efforts
Those have lost
In the soil,
Yesterday...

May be
Some of them
Have
Spread
Their roots
In the virgin land
That became wet
With our
Whole-souled
Sweat and toil...

*************
क्यूँ न
कस लें हम
मुठ्ठियाँ अपनी
करने हेतु
नसों को
अपनी
चुस्त और जीवंत

फिर
करें खोज
उन प्रयासों की
खो गए हैं
दब कर जो
विगत की
माटी में

संभव है
उनमें से
किन्ही ने
फैला दी हो
जड़ें अपनी
कुंवारी धरा में
जो हुई थी नम
हमारे
हृदायतः
श्रम और पसीने से ...


-मुदिता

चाहिए मुझको बस मेरा राँझा.. (मेहर)

चाहिए मुझको बस मेरा राँझा..
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सूफी संत कवि बुल्लेशाह का नाम और कलाम परिचय का मोहताज़ नहीं. बुल्ला ईश्वरीय प्रेम के पक्षधर थे, ऐसा प्रेम जिस में उतरकर कर मनुष्य मात्र कि नैय्या पार लगती है और वह इस दुनियां में भी श्रेष्ठ मानव के रूप में जाना जाता है.
प्रस्तुत रचना बुल्लेशाह के 'इक रांझा मैनूं लोड़ीदा' का भावानुवाद करने का प्रयास है. राँझा से तात्पर्य सदगुरु से है. अहद शब्द प्रतिज्ञा, वचन, जमाना, युग और समय जैसे शब्दों को व्यक्त करता है. अहमद का अर्थ है बहु-प्रशंसित. इस नाम से पैगम्बर मुहम्मद साहब को भी पुकारा जाता है.
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चाहिए मुझे बस मेरा राँझा
चाहिए मुझे बस मेरा राँझा.....

आयत एक पवित्र कुरान की 
कहा खुदा ने -हो जा, हो गया*,
प्रेम है चिरंतन ना है कोई लुका चोरी
सब जग़ ज़ाहिर हो गया.

राँझा खुद तो चला गया है
लेकर संग में अपने भैंसे,
हम अकेले जब जब जाएँ
हम को क्यों वो रोके ऐसे ?

ऐसा है यह गहरा नाता
रांझें सा कोई हमें ना भाता,
वो जाएँ/हम रोकें उसको
दिल मिन्नत कर कर हर्षाता.

अनुनय भरी मनुहार औ रब्बा
नयन मानिनी के बड़े सलोने,
सर पर प्यार का लाल दुपट्टा
अरमान भरे हैं कोने कोने.

अहद और अहमद में
फर्क नहीं कुछ पाया हम ने,
'म' लगा कर बस होले से
बना दिया है अहमद हम ने.

चाहिए मुझे बस मेरा राँझा
चाहिए मुझे बस मेरा राँझा.....

*कुन फ़यकुन

अद्वैध--(मेहर)

अद्वैध--

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सांझ तो अब
ढलने को आई,
क्यों ना
नग्मा
मैं लिख पायी ?

सहरा में वो
मुझे मिला था
चमन में
रंगीं फूल खिला था,
मैं थी वैसी
क्या
दिख ना पायी,
क्यों ना
नग्मा
मैं लिख पायी ?

लिखी थी मैंने
नज्में सारी,
गायी थी
गज़लें भी
मनोहारी,
इकरार इसरार
सभी थे मेरे,
फिर भी मैं क्यूँ
टिक ना पायी,
क्यों ना
नग्मा
मैं लिख पायी ?

माला हो ना सकी
क्यों पूरी,
टूटी बिखरी
रही अधूरी,
किसने किस से
नज़रें फेरी
आज तलक मैं
समझ ना पायी,
क्यों ना
नग्मा मैं लिख पायी ?

मैं इष्ट आज
आराधक मैं हूँ,
माली और फुलवारी
मैं हूँ,
द्वैत नहीं/
नहीं है
माया,
मुझमें उसका
नूर समाया,
हिय अद्वैध्य ने
धूनी रमाई,
क्यों ना
नग्मा
मैं लिख पायी ?

(अद्वैध्य=जिसका विभाजन नहीं किया जा सकता)

Many Moons Ago...(मेहर)

Many Moons Ago...
##############
Many moons ago,
You touched
My being,
Revealed
My essence to me,
Showed me
My existence,
Made me feel
Proud of
Myself...

Many moons ago,
Wordlessly
You unfolded
My mystery to me
That I loved you,
And without saying
An iota of an alphabet
You expressed
Your love for me...

Many moons ago,
We rose in love
Oh No..
I fell in love
Caring just for
My happiness of getting
Never felt that
There is joy in giving
Bliss in loving
Not just in love living...

Many moons ago,
You yielded to
All my wildness
All my foolishness
All my waywardness
Just on one pretext
That made me happy...

Many moons ago,
I lived on my whims,
And you on your own creation of norms
Which on the face were ideals
And in reality
A slow poison for me,
An elixir to annihilate me...

Many moons ago,
You never put your foot down
To stop me from wandering
On the path of thorns
Though I took that
A path of flowers.....

Many moons ago
You slaughtered me
Committed suicide yourself,
What to call you,
A martyr ?
A murderer ?
A lover ?

कुछ अशआर (मेहर)

# # # #
कौन समझेगा तासीर हमारे तल्ख़ अश्कों की,
इनमें मातम मौत का नहीं ,ज़िन्दगी का है 
                  * * * * * * *
रूठे हैं मुझ से या टूटे हैं ज़माने से ये इल्म नहीं ,
सुना है अशआर मेरे लफ्ज़ दर लफ्ज़ पढ़ा करते हैं वो.
                 * *  *  *  *  *
हम नहीं तो क्या हमारा अफसाना उनके दिल में है 
बाज वक़्त खुद को खुद ही नश्तर चुभाया करते हैं वो.
                 * *  *  *  *  *
हमारी तौबा का औरों को क्या खुद हमको ऐतबार नहीं. 
हम उनसे नहीं तो उनके अपनों से मिला करते हैं,

                 * *  *  *  *  *
तेरा ख़याल भी तुझ सा ही  दिखाई देता है,
चाहे तुझे जो भी ,वही  अपना दिखाई देता है.
                   * *  *  *  *  *
चाहता है दिल से जो उनको  ,नज़र आता है उनसा ही  
अक्स देख कर उसका उसी में , खुश हुआ करते हैं हम.

उदास पतझड़ (मेहर)

उदास पतझड़
###########
उदास पतझड़, 
डाल सूखी 
रो रही
बुलबुल अकेली,
बस गया क्या 
दूर वन में 
मधुमास मेरा 
ऐ सहेली !

पीले पत्ते 
झड़ रहे हैं,
कलियों ने 
सौरभ गंवाई, 
रूपराशि 
मिट चुकी
निस्तेज  है 
मेरी लुनाई.

तेज पवन 
बहती अरी री,
शब्दों की सर सर  
भयंकर,
लग रहा 
सब सूना सूना 
प्यासा है 
मेरा मन मधुकर.

बंसी के 
छिद्रों में भर कर,
फूंकती हूँ 
गीत अपने, 
बिखरे हैं 
सातों सुर मेरे 
जैसे मेरे 
टूटे सपने .

आएगा 
ना आएगा 
लौट कर 
मौसम बसंती,
करते करते 
सतत प्रतीक्षा 
मिट ना जाये 
मेरी हस्ती.

दर्द अनोखा.....(मेहर)

दर्द अनोखा.....

############
पाल रहे  क्यों मेरे उर में, दर्द अनोखा अपना...

नयन बरसते रहते निशि दिन
अधरों उलझे गीत 
साँसों में तुम आते जाते 
कैसी है यह प्रीत 
रातों करवट बदल बदल कर, देखूं क्यों तेरा सपना....

वान्छाओं को राख बना कर 
छिड़कूँ जड़ में खाद 
किन्तु सदा फिर भी पत्तों में 
पलता क्यों अवसाद 
कोंपल दुःख की फूट रही, क्यों लगता सब अनमना....

आहों में तू लेता रहता 
मादक मधुर सुगंध 
पलकों के झूले में खाता   
सुखद हिंडोले मंद 
मेरी बगिया में हरदम तेरा,क्यों बन सुमन पनपना...

स्पष्ट मुझे निर्देश जो देते......(मेहर)

स्पष्ट मुझे निर्देश जो देते......
###########
"तुम को चलना है इस पथ प़र ही",
स्पष्ट मुझे निर्देश जो देते.

आग्रही थी माना मैंने यह
कुंठा से प्रतिबद्ध नहीं थी,
साधक थे तुम जाना मैंने 
मैं भी  कोई सिद्ध नहीं थी,
पाओ सच को इस पथ चल कर 
क्यों ना यही आदेश जो देते.

तुझे खोजना होगा निज पथ 
बार बार यह वाक्य सुनाते, 

अपने दीपक बनो स्वयं ही
बार बार मुनि शाक्य दिखाते,
राह चलाते हाथ पकड़ कर 
साथ मेरा यह विशेष जो देते.

मौन रहे मैं जब जब चूकी 
कभी नहीं था टोका मुझ को, 

जब जब मैं च्युत-मार्ग  हुई थी 
कभी ना तुमने रोका मुझ को, 
इतने क्या दृढ थे निजत्व में 
काश मुझे उपदेश जो देते.

तस्वीर तेरी फलती है ! (मेहर)

तस्वीर तेरी फलती है ! 
# # # # # 
कैनवास इसी पुरातन प़र 
तिरछी कूची चलती है 
कुछ भी मांडना चाहूँ तो  
तस्वीर तेरी फलती है !

दर्पण कितने लायी चुन कर 
प़र अक्स तेरा ढलता है,
लहरें करवट ले कोई भी ,
चाँद तू ही बनता है, 
पहलू में सोया हो कोई,
रात तेरी ढलती है !

कितनी लाचार मेरी उंगलिया
अभ्यास नया कैसे हो, 
तुलिका का भी दोष नहीं 
सोचे जैसा वैसे हो, 
शक्ल तेरी में कैद है तन मन 
कब मेरी क्या चलती है !

कितनी बार सोचा मैंने था 
दूजा एक चित्र बनाऊं, 
मन के माफिक हो सके जो 
ऐसा  कोई मित्र बनाऊं, 
दीप, तेल, बाती हो कोई
ज्योत तेरी जलती है !

पहले अपनी छवि को अंकवाने 
बहुतेरे इच्छुक आये, 
प़र अब मुझको दीवानी कहकर 
पास ना कोई आये,
इस एक  निंदा में देखो 
निष्ठा मेरी  पलती है !

एकतरफा एहसास.....( मेहर )

एकतरफा एहसास.....
########
सुनो !
इस सुहानी सुबह में 
घर के आहाते में 
खड़ा यह पेड़ 
कितना करीब हो गया है
मुझ से, 
लिए हुये 
अपनी कोमल कोंपलों
हरी भरी नाज़ुक पत्तियों को,
देखो ना 
घोसले से झांकते नयन 
कितने स्नेहिल लग रहे हैं 
मुझ को,
मेरी नासिकाएं 
भर गयी है 
रूहानी महक से,
लगने लगा है 
सब कुछ 
अपना अपना सा
लगता है अनायास ही 
मिट गयी है दूरी, 
अरे, मेरी नज़र तो 
कहीं धुंधली ना हो गयी,
या  
आज मैं 
बैठी हूँ झरोखे में 
किसी और कोण से, 
उफ्फ !
अचानक आये अंधड ने 
हिला दी है 
पेड़ की सब टहनियाँ 
बेतरतीब सी,
और जता दिया है 
वक्त की करवट ने,
अरे ये सब तो मेरे 
महसूस किये
एकतरफा एहसास है 
पेड़ के खातिर...