Thursday 11 September 2014

कुछ अशआर (मेहर)

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कौन समझेगा तासीर हमारे तल्ख़ अश्कों की,
इनमें मातम मौत का नहीं ,ज़िन्दगी का है 
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रूठे हैं मुझ से या टूटे हैं ज़माने से ये इल्म नहीं ,
सुना है अशआर मेरे लफ्ज़ दर लफ्ज़ पढ़ा करते हैं वो.
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हम नहीं तो क्या हमारा अफसाना उनके दिल में है 
बाज वक़्त खुद को खुद ही नश्तर चुभाया करते हैं वो.
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हमारी तौबा का औरों को क्या खुद हमको ऐतबार नहीं. 
हम उनसे नहीं तो उनके अपनों से मिला करते हैं,

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तेरा ख़याल भी तुझ सा ही  दिखाई देता है,
चाहे तुझे जो भी ,वही  अपना दिखाई देता है.
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चाहता है दिल से जो उनको  ,नज़र आता है उनसा ही  
अक्स देख कर उसका उसी में , खुश हुआ करते हैं हम.

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