Monday 24 July 2023

उत्तर माँगती है हर स्त्री : विजया

 उत्तर माँगती है हर स्त्री 

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सीता तू संस्कारी ही रही 

और 

राम, ना जाने क्यों 

आप रहे मात्र पुरुष परम्परावादी ?


स्वीकारा था वनवास आपने 

पितृ आज्ञा की परंपरा निबाहने 

चल दी थी सीता 

छोड़ कर सब सुख वैभव 

साथ आपका देने...


आया था एक समय 

सुन कर किसी की अनर्गल बात 

भेज दिया था आपने 

हे "मर्यादा पुरुषोत्तम" !

सिय को अकेले अरण्यवास को 

क्यों नहीं गए गर्भवती निरीह स्त्री संग

छोड़ कर सिंहासन अयोध्या का ?


क्या नहीं थी सीता 

एक प्रेयसी 

एक सहधर्मिणी

एक संगिनी 

एक सहचरी,

अरे आप तो ठहरे 

राजधर्म के नशे में चूर एक पुरुष 

समूह के मनोविज्ञान के अन्तर्गत 

आदर्शों को जीने का उपक्रम करने वाले, 

दे देते न्याय जानकी को 

कम से कम प्रजा समझ कर ?


उत्तर माँगती है हर स्त्री आज 

अपने इन अबूझ प्रश्नों का...

Friday 21 July 2023

आग सावन की : आकृति



आग सावन की 

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भीगे तन 

भीगे मन 

भीगे नयन,

होता है तरल ईंधन 

रंगहीन गंधहीन 

ठंडा ठंडा लगता 

कहलाता है जो पानी 

सावन रूत में बरसा 

किंतु लगा देता है अगन 

जल जल जाते 

तन, मन और नयन.

कृष्ण नीति : आकृति

 कृष्णनीति 

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नहीं समझते कोई दोष श्री कृष्ण 

अधर्मी को मारने में

छल हो तो छल से, 

कपट हो तो कपट से,

अनीति हो तो अनीति से,

अधर्मी को नष्ट करना ही 

होता है  "ध्येय" कर्म योगी का


इसीलिए दी थ्री शिक्षा 

केवल कर्म करने की 

कृष्ण ने अर्जुन को


धँस गया जब 

कर्ण के रथ का पहिया 

कीचड़ में 

देख कर संभावना और तत्परता 

प्राणहन्ता वार की अर्जुन द्वारा 

संकट में घिरे कर्ण ने 

कहा था अपनी ऊँची ध्वनि में 

"यह तो "अधर्म "है !

अधर्म है यह"


कहा था श्री कृष्ण ने,

अभिमन्यु को घेर कर मारने वाले,

और द्रौपदी  को भरे दरबार में 

वेश्या कहने वाले के मुख से 

नहीं देता शोभा 

आज धर्म की बातें करना


और कह दिया था श्री कृष्ण ने,

अर्जुन ! मत दो ध्यान 

कर्ण के विलापों पर 

आ गया है अब अवसर 

कर देने का अंत 

छद्म नैतिकता के भ्रम को

जीने वाले इस कौरव सेनापति का 


और 

नहीं चूका था 

अर्जुन महाभारत का

नज़रिया : विजया

 नज़रिया 

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एक घड़ा 

जल से भरा 

एक कटोरी 

घड़े को ढके,

दोनों ही अर्थपूर्ण 

दोनों का ही काम 

महत्वपूर्ण...


घड़ा जानता था 

बहुत ही अहम है 

कटोरी का रोल 

वह ना हो तो 

जल में हो जाए 

रोलम पोल...


घड़ा भी जल संग्रह कर 

औरों की प्यास बुझाता था 

ख़ाना बनाने के लिए 

शुद्ध पानी मुहैया कराता था...


कोई किसी ने 

लगाया होगा पलीता 

कुछ रही होगी 

कटोरी की  स्वयं की 

श्रीमद्भ्रमगीता...


कटोरी को ना जाने क्यों 

आ गया था 

हीन भाव एक दिन 

मैं क्यों रहती हूँ हमेशा 

जल बिन...


बोली थी कटोरी उस दिन घड़े से 

आता है प्रत्येक बर्तन 

जो भी पास तुम्हारे 

भर देते हो उसे 

शीतल नीर से बिना कुछ बिचारे...


बोली : तुम्हारा रवैया है 

पक्षपात भरा 

याद है क्या, तुम ने कभी भी 

मुझे जल से भरा...


सुन कर बात कटोरी की 

घड़ा था मुस्कराया 

उसकी मंद मुस्कान देख 

कटोरी का पारा था चढ़ आया...


तुम ने ना देकर जवाब मेरे सवाल का 

हंसी मेरी है उड़ाई 

होकर आग बबूला 

कटोरी थी चिल्लायी...


मैने ना तो किया पक्षपात 

ना ही तुम्हारी हंसी उड़ायी 

ज़रा सोचो और देखो ध्यान से 

समझो बात की गहराई...


जो भी बर्तन आता है पास मेरे 

पाने को दान जल का 

झुकता है होकर विनीत 

नहीं करता है दंभ पल का...


तुम हो कि होकर चूर गर्व से 

मेरे सिर पर ही डटी रहती हो 

क्यों झुकूँ मैं नीचे 

बस इस ग़ुरूर में फटी रहती हो...


नीचे उतर देखो तनिक झुक कर 

भर जाओगी तुम भी शीतल जल से 

होकर परिपूर्ण एक दफ़ा 

शायद तुम्हें ना होगी शिकायत मुझ से...


अपने को भूल कर 

करना तुलना औरों से 

है निशानी हीन भावना की 

तू मेरी रक्षक मेरी सरताज 

संगिनी मेरी चाहना की...

Sunday 9 July 2023

सुहानी हरियाली : विजया

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दोस्ती  उस से भी पहले की है और आज भी वही प्राथमिक है .हाँ आज से ५२ साल पहले हम दोनों के रिश्ते पर समाज और परिवार की मुहर लगी थी. ये पाँच दशक सब रंगों से भरे रहे और अब भी जारी है. कुछ लिखा उसे "साहेब" को डेडिकेट कर रही हूँ. आप सब का साथ बहुत मोटिवेटिंग है.

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सुहानी हरियाली 

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हरा है रंग कुदरत के जन्म का 

घूमता है जीवन इन्ही रंगतों के चहूँ ओर

प्रिय ! चले आओ 

और ले लो टुक महक 

इस कोमल शबनमी दूब की...


याद है ना तुम्हें 

गर्मियों के वो दिन

हम दोनों होते थे खुले आकाश तले 

और दिखते थे हमारे नाम लिखे हुए बादलों पर

अटूट और अनसुने, हम एक ही तो थे 

ढूँढ लिया था चैन और सुकून हमने अपने लिए 

इस खूबसूरत और अलग सी दुनिया में...


ख़ुद में एक जश्न थी 

कुदरत की दरियादिली

और चारों जानिब फैली हुई हरियाली 

कितना आनंद था 

खुली घाटियों और पहाड़ियों में दौड़ने में 

बढ़ जाता था जो और 

बारिश के बाद आकाश में उभरे  इंद्रधनुष से 

वो प्यार भरे आग़ोश और दर्द का काफ़ूर हो जाना 

बहुत से बूटे और अनगिनत ख़ुशबूएँ 

कर देती थी प्रफुल्लित मेरे संवेद और संवेगों को 

याद करो उन सुहाने  दिनों को 

कितना जवान मस्त और अल्हड़ था 

जीवन हमारा 

घूमा करता था जो इर्द गिर्द पेड़ों के...

अक्स

 

अक्स 

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ऐसा ही अक्स कुछ देखता था मैं 

जब हाथ में हाथ लिए 

सड़क पार किया करते थे हम 

तुम्हें इमली, लपसी और हलुआ बेर पसंद थे 

तो मुझे गोंदपाक, लालमोहन और छुरपी

साझा ही ख़रीदते और खाते थे 

ज़्यादा हिस्सा होता था 

खाने में मेरा और खर्चने में तुम्हारा...


ना जाने कब फ्रॉक 

सुनहरी पट्टी वाली साड़ी में बदल जाती थी 

हरा मख़मली जंपर 

टीस्यू सिल्क की किरमची साड़ी 

कानों में झुमके 

गले में ख़ानदानी हार 

नाक में बाली 

आँखों में काजल 

अधरों पर लाली 

भाल पर बिंदी 

केशों को यूँ ही समेट कर लगाई 

गुलाबपत्तियों से बनी वेणी

गरिमा भरा आभामंडल 

गहनता के स्पंदन...


याद है ना 

बाबर महल* की दीवार पर लगी 

राजा रवि वर्मा की वह पेंटिंग

दिलों में बस गई थी 

तुम अपलक उसे देख रही थी 

और मैं तुम को

हम दोनों ही बिन बोले 

खुली आँखों से एक सपना देख रहे थे

इस बात से नितांत अपरिचित 

कि स्त्री-पुरुष प्रेम क्या होता है 

बस यही मालूम था और महसूस भी होता था 

साथ साथ जीना ही ज्यूँ सर्वोपरि 

यह एहसास तब भी था और आज भी है 

परिभाषाओं को जीते हुए भी उनसे परे भी...


कितने ही दशक का सफ़र 

कर आये हैं हम पूरा 

जारी है आज  भी 

साथ चलते रहने का यह ख़ुशगवार सफ़र 

सब कुछ का बदलते रहना कुदरतन है 

मगर इन सब के बीच 

ना बदली है तो एक सच्चाई 

बचपन, जवानी, मध्य वय, वरिष्ठता 

विपन्नता-संपन्नता, दूरियाँ-नज़दीकियाँ 

कभी ना रोक पाती है 

मुझे तुम में यह अक्स देखने से...


*नेपाल का राणा महल जो काठमांडू में बागमती नदी के उत्तर में स्थित है.

तवक्कों मेरी : विजया



तवक्को मेरी 

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जुदा हो सकता है ना 

'जस का तस'  हर एक का 

पैंट कम्पनी के इश्तिहार के 

'मेरे वाले  पिंक' के मुआफ़िक़..


क्यों भूल जाते हो 

सवाल नज़र और नज़रिए का 

वक़्त और हालात के सच को

और हक़ीक़त ज़ेहनी हुदूद की..


माना कि हटते ही मलबे के 

उभर आना है सच को

मगर ग़ैर मुनासिब तो नहीं 

तवक्को मेरी सब्र और मोहलत की...


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जेहनी हुदूद = मस्तिष्क की सीमायें

तव्वको=अपेक्षा

उसूल प्यार के : आकृति

 उसूल प्यार के...

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1)


झूठ है ये 

के पहली मोहब्बत 

औरत की होता है मर्द 

सच फ़क़त ये 

के आईना को हासिल है 

नसीब पहले महबूब होने का...


2)


नाम आने लगा था मेरा 

बेरोज़गारों की फ़हरिश्त में 

रखने को मशरूफ़ ख़ुद को 

चाहने लगी मैं तुझ को...


3)


अजीब होते हैं 

ये मुए मर्द भी 

करने लगते हैं मोहब्बत 

देख कर जिस्म औरत का...


होती कहाँ है जनाब 

ये औरतें भी कम,

दिखा कर जिस्म मर्दों को 

रखा करती है उम्मीद 

इज़्ज़त की...


4)


सीखो ना चमन से तुम 

प्यार के उसूलों को 

ज़ख़्म देते नहीं जहां काँटे 

अपने हमसाया फूलों को...