Sunday 20 September 2015

अनेकता : विजया

अनेकता 
+ + + + 
मानव 
मनोविज्ञान 
दर्शन
स्पष्टता
सजगता
विवेक
युक्ति
समूह
ध्यान
मुक्ति
शब्द ही तो है
अभिव्यक्त करने के,
निमित मात्र
जानने बताने जताने
उसको
जो सम्मिलित है
तुम्हारी दैन्दिन चर्या में,
चुना है मैं ने भी
आज
एक शब्द 'मिथक',
किया है प्रयास
देखने का उस को
तुम्हारे ही जीवन में,
हो रहे हैं दृष्टिगोचर
जीने में तुम्हारे
भारतीय मिथक के
बहुत से चरित्र,
बन कर राम
करते हो तुम
निर्वाह मर्यादाओं का
रचा लेते हो
बन कर कृष्ण
अनूठी रास लीला,
उतार देते हो
यदा कदा
गीता ज्ञान
जब जब होता है
आभास
कुरुक्षेत्र का
आन खड़ा होता है
कोई अर्जुन
समक्ष तुम्हारे,
नहीं हिचकिचाते तुम
फूंकने से भी
पांचजन्य
करते हुए उद्घोष
किसी महाभारत का,
बनकर शिव
मिटा देते हो
भेद विभेद,
डोला देते हो
अवनी-आकाश
बन कर नटराज
करते हुए तांडव,
ब्रह्मा बन
रच देते हो
पुराण और वेद,
कल्पना के अश्व
दौड़ाने के उपक्रम में
नहीं आता तुम को
कभी भी स्वेद,
सोच लो जरा
क्या कहते हैं
आधुनिक मनोविज्ञानी
जब एक ही व्यक्तित्व में
जाती है
ऐसी अनेकता
पहचानी...

बरफ....


सुणो सा साजण आज
बरफ क्यूँ ठंडी घणी,
(वा जाणे)
पाणी बीं रो भूत
पाणी भविषत रो धणी...

आया खाली हाथ
जास्यां खाली हाथ ले
रीस रोस घमंड
बळस्यां स्याणा साथ ले..