Monday 11 May 2020

संयोग या प्रारब्ध : विजया


संयोग या प्रारब्ध...
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अपने पूर्वग्रहों
निर्बलताओं
अहंकार
एवं आडम्बरों को
लपेट कर आड़े तिरछे शब्दों में
दे डाला था नाम तुम ने
संयोगों का...

कतराये तलाशने में तुम
कार्य और कारण का सटीक सम्बंध
क्योंकि निष्कपट गवेषणा
कर देती ना तुम्हें नितांत नग्न
देह से कहीं अधिक आत्मा से,
कैसे कर पाते साहस ?
तुम जो रहे थे सदा से ही
झूठ की  कुधातु से मूर्तियाँ गढ़ने वाले
ताश के पत्तों का महल बनाने वाले...

बिखरी बिखरी सी
आकस्मिक घटनाओं के बीच
बिंदुओं को जोड़ कर
देख पाती थी मैं स्पष्ट संदेश
तर्कयुक्त मस्तिष्क से पार जाकर,
सुन लेती थी मैं
फुसफुसाते हुए बोल रहे
उन सूक्ष्म बिंदुओं के अतिसूक्ष्म हृदयों को
पकड़ पाती थी मैं
अस्तित्व के साथ 'ट्यूनिंग'से
अचेतन में साँझा होती
'फ़्रिकवेन्सियों' को
विगत के काल और दूरी से पार होकर
देख लेती थी मैं
क्रमशः संकालन होती प्रेम धूलि को,
पूछती रहती थी मैं स्वयं से
आख़िर क्या हैं ये सब नाते ?
संयोग,प्रारब्ध,विधि के विधान या कुछ और,
और मेरा भी हृदय होले से कह ही देता था
'प्रारब्ध' किंतु तुम्हारा,
शायद बला टली समझ कर
हो जाते हो संतुष्ट तुम भी....

Notes:

1. ट्यूनिंग के लिए समस्वरण और फ़्रिकवेन्सियों के लिए आवृत्ति की जगह अंग्रेज़ी मूल के शब्द ही लिए हैं....sychronise के लिए प्रयोग स्वरूप संकालन शब्द का उपयोग किया है किंतु अभी भी लगता है की 'सिंक्रोनाइज' शायद बेहतर होता.
2. तुम और तुम्हारा gender neutral के रूप में प्रयोग हुआ है...'साहेब'को कम से कम सम्बोधित नहीं है 😂😂😂.

वो और मैं,,,,,


वो और मैं,,,
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वो : खो कर तुम्हें 
      दिख रहा हूँ बुझा बुझा सा 
      सुलग रहा है अलाव भीतर मेरे,,,
मैं :  गँवा कर तुम्हें 
      मिट गयी है तपिश तन मन की,
      ताज़गी ओ तरावट है 
      अब मेरे दिलो रूह में,,,
         
वो :  तुम्हें खो देना, 
       जैसे भर गया हो दर्द सारा 
       ज़िंदगी की कच्ची सुराही में,,,
मैं :  गँवा कर तुम्हें 
       हुआ एहसास
       बह रहा है प्यार ही प्यार हरसू,,,

वो :  तुम्हें खोने में 
       डरा रहा है आसमाँ घनघोर काला 
       हो रही है बारिश भी मुससल 
       संग बिजली की कड़क के,,,
मैं :   तुम्हें गँवाया तो जाना 
       बताया है कोई नया फ़र्ज़ 
      अत्ता करने को परवरदीगार ने,
      और  छू रही है बारिश की सुखद बूँदें 
      मेरे तपते बदन को,,,,
      
वो :  तुम्हें खो देना 
       करा रहा है महसूस 
       जैसे खोखली हो 
       कायनात सारी,,,,
मैं :  गँवा कर तुम को 
      भरने लग गया हूँ मैं 
      अपने भीतर के 
      अनगिनत छेदों को,,,

वो :   तुम्हें खोना 
       लगता है ज्यों 
       टूट जाना टाँकों का 
       सीवन पर,,,
मैं :   गँवा कर तुम्हें 
       लगता है ज्यों 
       सजा रहा हूँ ज़िंदगी 
       टाँक कर 
       एक नए मक़सद को,,,
     
वो :  तुम्हें खोना 
       जैसे हो चीख 
       किसी ठुकराए हुए बच्चे की
       ढूँढ रहा हो ज्यों 
       कुछ अनजाना अनसमझा,,,
मैं :  गँवाना तुम्हें लगता है 
      जैसे दे रही हो सदा
      मंज़िले मक़सूद 
      बुलाने को जानिब खुद के,,,

तुम :   तुम्हें खोना 
         लगता है जैसे मेरी उँगलियों में 
         हो रही हो 
         नींव चूर चूर,,,
मैं :    तुम्हें गँवाना 
        महसूस करा रहा है मुझे, 
        बनाना है मुझे फिर से 
        ख़ुद को,,,

वो :  खो देना तुम्हें 
       कर रहा है ज़ाहिर रोष 
       मेरे अपने होने के मर्म से,,, 
मैं :   गँवा कर तुम्हें 
        हो गया है बामक़सद 
       मेरा हर काम और अमल
       अमन चैनो सुकूँ के साथ,,,

वो :  खोकर तुम्हें 
      आ रहा है मेरे दिलो ज़ेहन में 
      तोड़ डालूँ हर उस चीज़ को 
      जिसे समझा था पाक मैं ने,,,
मैं :  तुम्हें गँवाने से 
      समझ पाया मैं 
      कि कैसे होती है परस्तिश
      हर मुक़द्दस की
      ज़िंदगी में,,,

वो :  तुम्हें खोना 
       ऐसा लगता है 
       जैसे हो आया है क़हत कोई
       और बेहाल है हर कोई 
       भूख से,,,
मैं :  तुम्हें गँवाना 
      जैसे 
      बोया था एक बीज मैं ने 
     उपजाने को फसल 
     पूरे आलम की ख़ातिर,,,

वो :  तुम्हें खो कर 
      लगता है जैसे 
      हो गयी हो एक जंग 
      मानो यह ज़िंदगी,,,
मैं :  तुम्हें गँवा देना 
      बना रहा है मुझको 
      एक नया मुजाहिद
      जीतने को जंगे जिंदगानी,,,

वो :  खो देना तुम को 
       है मेरी मौत जैसा 
       न लौट के आने के लिए,,,
मैं :  गँवा देने ने तुम को 
      खोल दिए हैं नए दरवाज़े 
      मेरी ज़िंदगी में 
      लगता है मुझे हो गयी है ज़िंदगी 
      और ज़्यादा मानी खेज़,,,

(क़हत=दुर्भिक्ष, मुजाहिद=योद्धा, आलम/कायनात=ब्रह्मांड, मुकद्दस=पवित्र, मानी खेज़=सार्थक, परश्तिस =पूजा, मंज़िले मक़सूद=अंतिम उदेश्य/गंतव्य)