Friday 23 July 2021

मेरे जीवन की स्त्रियाँ...

 थीम सृजन : स्त्री 


मेरे जीवन की स्त्रियाँ 

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अखिल ब्रह्मांड स्त्रेण और पुरुषेण गुणों का समन्वय, सम्मिलन या योग है. स्त्री उतनी ही महत्वपूर्ण जितना पुरुष...बल्कि स्त्री अधिक महत्वपूर्ण : स्त्री ब्रॉड्ली वह सब कुछ कर सकती है जो एक पुरुष कर सकता है लेकिन पुरुष बहुत कुछ वो नहीं कर सकता जो स्त्री कर सकती है. 😊

 'स्त्री' से मैं और मेरी कलम कुछ 'विशेष' रिलेट कर पाते हैं. आज खंडन-मंडन, तर्क-वितर्क से परे मैं अपने जीवन में नाना रूपों में आई कुछेक 'स्त्रियों' पर लिख रहा हूँ, जस का तस..सार संक्षेप के रूप में, बतौर सैम्पल....इस फ़ेज़ में जन्म से लेकर टीन ऐज में एंट्री से पहले तक को कवर कर रहा हूँ, वक़्त आने पर बाक़ी आगे का भी 😊😊


(१)

उसको देखा नहीं 

महसूस किया है 

जिस्म के हर हिस्से को 

छूने से एहसास है उसका 

नस नस में बहते खून में 

रवानी है उसकी 

फ़र्क़ नहीं है कोई 

अल्लाह, आद्या और उसमें....


(२)

अंकुर को बूटा बनाया 

उसके प्यार की सींचन ने 

धूप छाया खाद 

निराई गुड़ाई 

सब कुछ भी तो किया उसने,

रक्त सम्बन्धों और स्वार्थों से परे 

इंसानियत क्या होती है 

पाया उसके हर रूप में,

प्रेम, करुणा, विवेक के 

सारे सबक़ सीखे हैं उस से

उसके तसव्वुर की तस्वीर हूँ मैं

मेरे हर रंग में समायी है वो...

स्त्री : चंद सवाल - विजया


स्त्री : चंद सवाल 

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पुरुष प्रधान व्यवस्था में 

स्त्री कहाँ कर पाई है साबित 

अपने होने को 

सदियों के संघर्षों के बाद भी ?


औढ कर अस्तित्व 

दोयम दर्जे का

पाल कर भ्रम 

बराबरी का 

कब तक जिये जाएगी स्त्री ?


लपेट कर आवरणों में 

लुभावनी सनदें भले ही दे दे 

सचमुच उसे 

उसके न्यायपूर्ण अधिकारों को 

क्या दे पाएगा पुरुष ?


ज़ाहिर है देह और मन का अंतर 

मर्द और औरत का 

लेकिन नहीं है यह अंतर 

कमतरी और बढ़तरी का,

कब स्वीकारेगा इस सच को 

यह झूठा समाज ?


भरम रजामन्दियों का 

ख़ामियाज़ा पाबंदियों का

क्यों उठाएगी 

इक्कीसवीं सदी की 

सक्षम और होशमंद स्त्री ?


मर्द को सब कुछ मुआफ़ 

औरत को सजा अनकिए गुनाह की

कब होगा निराकरण 

शताब्दियों की 

इस विसंगति का ?


आज़ादी के मायने 

कुछ और हैं मर्द के लिए 

बंधी हुई आज़ादी ही 

मयस्सर है औरत के लिए 

मिट पाएगा यह फ़र्क़ 

क्या कभी भी ?

अपनी दास्ताँ.....


अपनी दास्ताँ....

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कभी कभी 

ऐसी भी कुछ बात होती है,

जिंदगी बीते वक्त से ज्यादा 

ना जाने क्यों, हसीन होती है...


पता नहीं राज क्या है 

बातें चंद अनकही होती गई 

गुजरते वक्त के साथ 

मेरी नब्ज सही होती गई....


मुहब्बत जो पुरानी थी, 

नई नवेली होती गई

ताज़गी का आलम ना पूछो 

हर पल मैं नई होती गई...


बेमानी थी गिनती उम्र की 

धड़कने दिल की जवाँ होती गई

क़िस्मत से तू मिला मुझ को ऐ साथी ! 

जमाने में दास्ताँ अपनी बयां होती गई...

सुर आठवाँ भी मगर...: विजया

 

सुर आठवां भी मगर...

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लिख डाला था 

मोहब्बत में 

एक दीवान मैं ने,

ऐसा गुरुर के

पढ़कर भी न पढ़ा 

तुमने एक भी हर्फ़ को...


नाकाम रहा 

साजे दिल से निकला 

संगीत मेरा,

पिघला ना सका 

पत्थर सी जमी 

दिल की बर्फ़ को...


सजाया था 

सातों सुरों से

बज्मे मोहब्बत को,

सुर आठवाँ भी मगर 

छू ना पाया 

प्यासे जर्फ़ को...


(विलंब के लिए क्षमा प्रार्थना)

सुर ओ ताल जुदा जुदा....

 पेंटिंग : सहज सृजन 

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सुर ओ ताल जुदा जुदा....

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बिखरा बिखरा है सब कुछ 

जीवन अज़ाब हो चला है 

ना जाने ज़िंदगी में 

ये कैसा ज़हर पला है…


दोपहर हो चली अब 

सूरज फिर भी हल्का है 

हर शै में समाया ज्यों 

धुँधलका ही धुँधलका है…


जो बसाए थे गाँव हमने 

आज वहीं से जिलावतन है 

बाग़बाँ थे हम जहां के 

उजड़ गए वो चमन है…


रिश्तों में ठगे गए हम 

मोहब्बत के भी तो मारे हैं 

जमाने ने ठुकराया तो क्या 

खुद तो खुद के हम प्यारे है...


महफ़िल सजी धजी है 

साज़िंदे भी तो माहिर है 

सुर और ताल जुदा है सबके 

फ़क़त शोर ही बज़ाहिर है…


हैरां न हो ए साक़ी 

ग़र टूटे सभी पैमाने हैं 

चल दिए पावों पे मैकश 

मुबारक तुम्हें मैखाने है...