Saturday 30 June 2018

नदिया....



नदिया,,,,,
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बहे जा रही है
उछलती कूदती
गिरती सम्भलती
चपल नदिया
अपने सागर की ओरi
गुजरती हुई
चट्टानों,पत्थरों
शिलाखंडों, कंकड़ों
बालू और कीचड़ के ऊपर से,
गाती हुई
मधुर रागिनीयाँ
कभी होले से फुसफुसा कर
तो कभी गरज भरे स्वर में,,,,

उतरता जाता है
उसका दिव्य संगीत
मनोमस्तिष्क में
शान्त करते हुए
असमंजस भरे
अस्तव्यस्त सोचों को
जो आ जा रहे होते है
अंतर में,
नहीं होता है अंत
सरि नाद का
किनारों पर
उसकी मंज़िल तो है
समा जाना उस दिल में
जहाँ होता है
प्यार ही प्यार बेशुमार
उसके लिये,,,,,

हो जाते हैं शिथिल
समस्त तनाव
करते हुए तुष्ट
अंतरात्मा को,
भर जाता है सुकून
अंतस की गहराइयों में
देखता है जलधि जब
कल कल कल्लोल करते
सारंग नीर को
सरकते हुए
साँसे लेते हुए
अर्पित होते हुए,,,,

नहीं रहती यह चंचला
कभी भी ठहरी हुई
बहती रहती है
निशि-दिन सबल
हर गर्त, छिद्र और मार्ग होकर
नए प्रवाह के संग
करके परिपूर्ण आनन्द से
आत्मा को
और कर देती है
दीप्त सागर सत्व को,,,,


तुम्हारी कविताएँ : विजया



तुम्हारी कविताएँ....
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पढ़कर तुम्हारी कविताएँ
खो जाती हूँ मैं
ना जाने किन किन ख़यालों में
खोजने लगती हूँ ख़ुद को
तेरे उन किरदारों में जो
कहते हैं बातें मेरी ही
और सुनते भी है कहा तेरा
मेरी ही तरह...

और
कभी कई और साये भी
आन खड़े होते हैं
आकारहीन मूरतों की तरह
जो दिखती नहीं
मगर महसूस होने लग जाती है...

करने लगती हूँ
'फिट' उस साँचे में
एक अजीब से जुनून के संग
तेरे आसपास की सूरतों को
जो कल आज और कल
तुम से जुड़ी जुड़ी सी
लगने लग जाती है....

सच कहूँ
कोई भी माटी तेरे उस साँचे की
'शेप' नहीं ले पाती
किसी का कुछ
किसी का कुछ
बाहर रह जाता है,
कई कोने और 'साइड्स'
दिखने लगते हैं ख़ाली ख़ाली से....

तलाश कर हर सू
थक हार लौट आती हूँ मैं
आग़ोश में तेरे
पाने एहसास बार बार
उस अनगढ़ सच का
जो था, जो है और रहेगा
तेरे मेरे बीच...


भावाश्रित


भावाश्रित.....

# # #
मैने किया
सर्वस्व अर्पित,
समझा तू ने
भावाश्रित,
ना समझा तू
बात ह्रदय की,
कर दिया
सब कुछ
विस्मृत...

परिभाषाओं के
इस अंतर ने,
कैसा खेल
रचाया,
भ्रम के परदे के
कारण
अपना बना पराया...


मौसमी योगी : विजया

आशु रचना 769
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(पसली : 678 : उमेदजी)

मौसमी योगी...
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आज का अखबार
भरा भरा सा है
योग दिवस की
सुर्खियों से.....

तस्वीरें भरी है
मौसमी योगियों की
नाना प्रकार की मुद्राओं में
अगवाड़ मुद्रा
पिछवाड़ मुद्रा
मेकअप मुद्रा
रीबॉक और नाइके मुद्रा
कृत कृत मुद्रा
कृतार्थ मुद्रा
भक्त मुद्रा
भगवान मुद्रा
इतनी मुद्राएं कि
लिखते लिखते हो ना जाये
योग मुद्रा सहस्त्रनाम !

आम आदमी रत है
कितनी ही मुद्राओं में दैनंदिन
प्रातः जल योग याने
नल के सामने ऊंघते हुए ध्यान योग,
रात्रि में विद्युत योग
बिजली गुल और पंखा झेलना,
रोजाना का जाम योग
शहर के जुलूस धरनों  झांकियों और ट्रैफिक के
जोग संजोग,
स्वच्छता योग
काम वाली गैर हाजिर्
घरवाली करे
झाड़ू पौंछा और डस्टिंग....

किसान, गृहणी, पेंटर, कारपेंटर,
ब्लैकस्मिथ, ठठेरा,कसेरा,
योगी ही तो है
जो प्रतिदिन अपने 'होने' के लिए
सुबह से रात तक
करते रहते हैं नाना योगासन,
पूछो तो जरा
देखा है कभी तोंद वाला लोहार
मोटा ताज़ा मेसन,
ना जाने योगियों में
कौन असली कौन नकली
कितनी कायायें हृष्ट पुष्ट
कितनी है भई डेढ़ पसली
ना जाने कितनी छातियां है
बिना नपी
और कितनी फेशनी आबादी है
बिना तपी.....
😂😂😂😂😂😂😂

I

मूल सोच : विजया


मूल सोच....
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माता,पिता,गुरु,मित्र
प्रेमी, प्रेमिका और ईश्वर
ऐसे किरदार जीवन के
जो बस दिए जाते हैं
नहीं करते
उम्मीद लेने की,

क्यों नीयत कर रहे हो
कोई एक दिन
केवल मात्र
याद कराने को
उनके वजूद को
या उनके हाथों में
कुछ थमा देने के लिए,

ये ऐसे रिश्ते हैं
जो जीने के लिए हैं
मापने तौलने
और
दिखावा करने के लिए नहीं,

बदलते परिवेश में
जो भी नया है
उसे अपनाएँ ज़रूर
मगर
मूल सोच को साथ लिए....