Saturday 30 June 2018

तुम्हारी कविताएँ : विजया



तुम्हारी कविताएँ....
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पढ़कर तुम्हारी कविताएँ
खो जाती हूँ मैं
ना जाने किन किन ख़यालों में
खोजने लगती हूँ ख़ुद को
तेरे उन किरदारों में जो
कहते हैं बातें मेरी ही
और सुनते भी है कहा तेरा
मेरी ही तरह...

और
कभी कई और साये भी
आन खड़े होते हैं
आकारहीन मूरतों की तरह
जो दिखती नहीं
मगर महसूस होने लग जाती है...

करने लगती हूँ
'फिट' उस साँचे में
एक अजीब से जुनून के संग
तेरे आसपास की सूरतों को
जो कल आज और कल
तुम से जुड़ी जुड़ी सी
लगने लग जाती है....

सच कहूँ
कोई भी माटी तेरे उस साँचे की
'शेप' नहीं ले पाती
किसी का कुछ
किसी का कुछ
बाहर रह जाता है,
कई कोने और 'साइड्स'
दिखने लगते हैं ख़ाली ख़ाली से....

तलाश कर हर सू
थक हार लौट आती हूँ मैं
आग़ोश में तेरे
पाने एहसास बार बार
उस अनगढ़ सच का
जो था, जो है और रहेगा
तेरे मेरे बीच...


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