Sunday 23 December 2018

मैं आऊँगी निकल कर ज़िंदा : विजया

  
   

मैं आ जाऊँगी निकल कर ज़िंदा.....
+++++++++++++++++
क्या मतलब है रोने का 
जब एहसासों पर लगे हो ताले 
सतह पर ही,
हो गए हैं शुमार मेरे जज़्बात 
मेरे ही नन्हे आँसुओं में 
आँसू, खो देती हूँ जिन में 
मैं ख़ुद को.....

क्या मतलब है 
चोट लगने का 
जब खरोंचे दी हुई हो उनकी 
जो नहीं जानते तुम को 
हालाँकि देखा है जिन्होंने 
बड़ा होते तुम को,
मतलब क्या है 
तुम भी कहीं करते हो महसूस 
प्यार उनका 
मगर जो नहीं जानते तुम्हारे 
वास्तविक आंतरिक रूप को.....

जब भी हुआ करती हूँ मैं 
सोये हुई गहरी 
देने लगती हूँ उलाहने 
तुम्हारी जगह रख कर ख़ुद को
हालाँकि तुम को तो 
नहीं होती शिकायत 
कभी भी किसी से,
दौड़ जाती हूँ मैं 
एक सुनहरे हरे निखलिस्तान में 
जहाँ पाती हूँ तुम को 
बाँट लेने के लिए 
मेरे संग सच्चे प्यार को 
मगर जाग जाती हूँ फ़िर से 
तो पातीं हूँ अकेला ख़ुद को....

चमकाओ ना बिजली 
ले आओ ना बरसात,
नहीं होती ना सच्ची ज़िंदगी
बिना ज़रा सी पीड़ा के 
चल मैं ही बन जाती हूँ बिजली 
मैं ही हो जाती हूँ बरसात 
जान गयी हूँ ना मैं भी अब रोना 
इसीलिए रह लूँगी 
गुज़र कर बेइंतेहा दर्द से.....
करती हूँ स्वीकार 
लगी है जो चोट मेरे अंतर को 
अंतर्द्वंद ही कराएँगे मुझे मुक्त उससे 
चाहिए मुझे थोड़ा दर्द संग ख़ुशियों के 
लिखने के लिए मेरे दिली एहसासों को,
नहीं है मुझे ज़रूरत
समझो तुम मेरी टूटन को 
बस जान लो सिर्फ़ इतना 
मैं आ जाऊँगी निकल कर ज़िंदा
बिसरायी हुई धड़कनों के साथ....


Saturday 22 December 2018

सुलगते उलाहने,,,,,,


सुलगते उलाहने,,,,
########
खुले हैं आज
बरसों से दराजों में बन्द
दस्तावेज़....
छोड़ा था जिस दिन
तुम ने मुझको
छोड़ दिया था मैं ने भी तुम को,
फिर भी ना जाने क्यों
बार बार सुन रहा था तुम को
यह कहते हुए
लौट आना चाहिए मुझ को
फिर से तुम्हारे पास,
करना चाहिए मुझे भरोसा तुम्हारा
नहीं करता मैं अगर ऐसा
तो कहा जाता यही ना
रचा बसा है अहम मुझमें
हाँ यह बात जुदा है कि
तुम्हीं ने तो जगाया था
उस शैतान को मुझ में,,,,

घुस गया था मेरे दिलोज़ेहन में
वो शैतान ऐसा
थोपते हुए अपने इरादों को मुझ पर
करते हुए दूषित मेरी अच्छाइयों को
मेरी उन सारी अच्छाईयों को
जो रख छोड़ी थी सर्वोपरि मैंने
तुम्हारे मेरे प्रेम की ख़ातिर,
लगा था नोंचने जैसे ही वो
मेरे  पंखों को
लगा दिया था तुम ने
महिमामण्डन का घेरा
इर्दगिर्द मेरे
ताकि बना रहे सबब
मेरी बुराइयों को लगातार
याद दिलाते रहने का,
नोंच डाले थे उसने मेरे पंख सारे
तब तक बन गया था ताक़त
मेरे उड़ने की खुशफहमियों की
निरंतर मेरे अहम को पोषना तुम्हारा,,,,,

नहीं जानता मैं सचमुच अब
कैसे करूँ दिल से मुआफ़ तुम्हें
नहीं जानता मैं यह भी कि
कर सकूँगा ऐसा या नहीं,
नहीं हो ना तुम
मेरी मोहब्बत से परे
किसी भी कलंक से ऊपर
दूर मेरे उलाहनों से,
ज़ायज है मेरा ग़ुस्सा भी
वाजिब है मेरी कोफ़्त भी
लाज़िमी है मेरा दुखी होना भी
सच बात तो यह है
मुझे ख़ुद को
उस अहम के पिशाच से
आज़ाद करने के लिए
होना होगा आज़ाद
तुम्हारे ख़यालों से,
भुलाकर सारे उलाहने
शिकवे और शिकायतें
जो रख छोड़े हैं सुलगते से मैंने
तब से तुम्हारे लिए,,,,

Thursday 20 December 2018

मुझ को जैसे : विजया



मुझ को जैसे....
++++++++

ख़याल आते हैं मुझे
कुछ थमे थमे से
मेरे बन्द होंठों के पीछे
हो कोई क़ैद जैसे....

मेरा स्पर्श
कर पाता है क्या
पुलकित तुम को
कर देती है रोमांचित
छुअन तुम्हारी
मुझ को जैसे...

क्या मेरी तपती मुस्कान
पिघला पाती है
उस बर्फ़ को
जमी है जो
इर्द गिर्द तुम्हारे दिल के,
गरमाहट तुम्हारे तबस्सुम की
पिघला देती है
मुझ को जैसे .....

किसी ग़ैर के अधरों पे
मेरे नाम की आवाज़
जगा देती है क्या
तुम्हारे सोये कोनों को,
हो जाता है जगराता सा
दिलो जिस्म में
मुझ को जैसे....

क्या देता है मेरा होना
सुख-चैन तुम को,
देता है सुकून
साथ होना तुम्हारा
मुझ को जैसे....

ख़याल आते हैं मुझे
कुछ थमे थमे से
मेरे बन्द होंठों के पीछे
हो कोई क़ैद जैसे....

मेरी रूह,,,,,

थीम सृजन
======
(ख़यालों का सफ़र)

मेरी रूह,,,,,
######
कह दिया था उसको मैंने,
मेरी रूह है 
एक अगाध कुआँ ,
जहाँ रहते हैं ख़याल 
पेचीदे से 
फलती फूलती है 
बुरी बुरी बातें 
जैसे कि विचार
उत्पीड़न के
पीड़ा के 
स्वामित्व के 
स्वार्थ के 
प्रतिशोध के 
सिर्फ़ लेने के....
बताया था उसको 
ऐसे ऐसे ख़यालों के बारे में 
पगला दे जो
सामान्य मानव को,,,,,

बोली थी वो 
मापनी है मुझे तो 
गहराई इस कुँए की,,,,

नहीं घबरायी थी वो 
सुनकर,
चल कर देख लो 
इस कसे हुए रस्से पर
नटनी की तरह 
पंजों के बल 
कुंऐ के आर पार,
हाँ गिर पड़ी अगर तो 
पाओगी और कुछ नहीं 
सिवा इन सब ख़यालों के,,,,

हाँ कहा था यह भी मैंने 
उसी साँस में,
नहीं मानती तुम तो 
लगाओ ना छलाँग 
कर लो महसूस 
गिरने के आतंक को
जो होगा महसूस
पीठ पर उबलते हुए पानी की जलन सा 
सोच लो 
नहीं है दिल मेरा सोने जैसा,,,,

दी थी चेतावनी उसको,
यह रूह मेरी है आग की तरह 
हिंसक और ऊष्ण 
और मैं हूँ एक अधूरा इंसान 
जो सींवन पर 
करता है महसूस 
फटा हुआ, 
खोपड़ी जिसकी भरी है 
बुरे बुरे सपनों से 
परित्यक्त सोचों और अचम्भों से 
जो नहीं स्वीकारती किसी को भी
जो दिल को दिल से प्यार करे,,,,,

साफ़ किया था उसको,
चूँकि तुम हो यहाँ 
तुम को मज़े तो नहीं होंगे 
मगर मैं ले आऊँगा ज़रूर 
मुस्कान तुम्हारे अधरों पर...
हँसा भी दूँगा 
उन सब बातों के लिए 
डरती हो तुम 
जिनका सामना करने में,
वैसे मेरी आत्मा है 
एक हतोत्साहित करने वाली जगह !

और ना जाने क्या सोच कर 
कूद पड़ी थी वो अचानक,
डूब गयी थी कुँए में
तैरना तक भूल कर,,,,,,

Monday 17 December 2018

मेरी मर्ज़ी : विजया



मेरी मर्ज़ी....
++++++
करते हैं हम बहुत कुछ
अपने दिलो ज़ेहन के ऊपर 
कभी किसी की ख़ुशी के लिये
जो होता है अपना, 
कभी किसी के कहने से 
जिस पर करते हैं भरोसा,
कभी किसी मज़बूरी से
नहीं होता जो कोई चारा,
कभी इस सोच के साथ भी 
क्या कहेंगे लोग ?

सुनते हैं ये बेबाक़ इजहार 
"मेरी मर्ज़ी... मेरी मर्ज़ी"
उन मुँहों से जो शायद 
नहीं समझ पाते 
ज़िंदगी नहीं है नाम 
बस अपनी मर्ज़ी का करने का,
हर अनचाहा हो जाना 
होता नहीं सबब यल्ग़ार का,
इंक़लाब नहीं सरकशी है 
आँख मूँद कर ख़िलाफ़त करना, 
आज़ादी बिना ज़िम्मेदारी के 
नासूर है अना के लगाए ज़ख़्म का 
नहीं कहती मैं 
सहे जाए हम ज़ुल्मों सितम ज़माने के 
मगर रुक कर सोच तो लें 
बसा है ख़ुशियों का ज़हान
उस सिरे से आगे 
जहाँ से हुआ करती है शामिल 
बिना किसी दलीलो-मन्तिक और जवाज के 
मर्ज़ी 'उसकी' 
कभी हमारी मर्ज़ी के साथ 
कभी हमारी मर्ज़ी से कहीं आगे...

(सबब=कारण, यल्ग़ार=आक्रमण, इंक़लाब=क्रांति, सरकशी=उद्दंडता/बलवा, अना=Ego, ज़ख़्म=घाव, नासूर=हमेशा रिसने वाला घाव जो कभी भी ठीक नहीं होता, सिरा=बिंदु/point, दलील=argument/तर्क, मन्तिक=युक्ति/logic, जवाज़=औचित्य/justification)








आख़िर हैं ना सिपाही हम,,,,


शब्द सृजन
======
(इज़हार)

आख़िर हैं ना सिपाही हम सब,,,,
#############
"नामालूम कितने दफ़ा
बचाये रखा है ख़ुद को मैंने
बिन बताए किसी और को"

करता  हूँ महसूस इतना गहरा
किसी के इस इज़हार को
दगते रहते हैं जिस से ये अल्फ़ाज़
मेरे जिस्म की हरेक नस से,,,,

सोचता हूँ बार बार
हम में से ना जाने कितनों ने
किया होगा महसूस
कुछ ऐसा ही,,,,

ना जाने कितनी रातों
लड़ते रहे हैं हम
ख़ुदकुशी के सोचों से
काट डालने के आवेग से
रेचन की उत्कट अभिलाषा से
भाग जाने की प्रवृति से
छुप जाने की ललक से
अकेले ही
क्योंकि भयभीत हैं हम
हमारे ही 'अपनों'की परेशानी से,,,

ना जाने कितने ही
दिन और रात
रहे हैं हम प्रताड़ित
हो कर कैद
अपने ही अंधेरों में,,,,,

लड़ा करते हैं हम जैसे लोग
ऐसे समर
नहीं ले पाता है कोई भी
थाह जिनकी
नहीं देख पाता कोई भी
इन लड़ाइयों को,
सच तो यह भी है
हम भी तो नहीं करते
ज़ाहिर इसको
सामने किसी के भी,,,

लड़ा हूँ मैं ख़ुद भी
बचाया है मैंने ख़ुद को भी
बहुत सी लम्बी रातों में
बिलकुल अकेले,
हुआ करती थी
ऐसी भी रातें
जब हार जाता था मैं
खुद अपनी ही जंग में
मगर उठता था फिर से
जीने को ,लड़ने को
किसी ना किसी तरह,,,,,

अनुमान है मुझ को
कैसे रखते हैं हम
चलायमान स्वयं को
क्योंकि जितनी बार भी
होते हैं रणछोड़ हम
उभर आते हैं
और अधिक सबल होकर,,,,

भिड़ते रहते हैं
स्वयं के सोचों से,
कमजोरियों से,
हम सब
हराते भी रहते हैं ख़ुद को
उस आख़िरी मक़ाम तक
जब तक नहीं हो जाते माहिर
ख़ुद को बचाये रखने के लिये
ख़ुद को बनाये रखने के लिये,
आख़िर है ना सिपाही हम सब,,,,

"नामालूम कितनी दफ़ा
बचाये रखा है ख़ुद को मैंने
बिन बताए किसी और को...."

आज इस रात,
बता पा रहा हूँ सब कुछ तुम को,,,,
बचाया है मैं ने ख़ुद को,
तुम भी तो हो यहीं
पढ़ रहे हो मेरे इस बयां को
क्योंकि बचाया है
तुम ने भी तो ख़ुद को,
आसान नहीं है ना
ज़िंदा रख पाना ख़ुद को,,,,

फ़ख़्र हैं मुझे तुम्हारी बहादुरी पर,,,,,


Friday 14 December 2018

जीवन को फिर से जी लें : नीरा



जीवन को फिर से जी लें....
++++++++++++++

हँस बोल कर आओ 
ये पल हम गुज़ार दें,
बेरंग सी हो इस ज़िन्दगी में 
रंग इन्द्रधनुषी भर कर,

होठों पे सज़ा ले तबस्सुम 
हँसलें और हँसा दें 
वक़्त की सुई को 
कुछ देर और थाम कर,

यादों की डायरी से उठा कर 
खोये कुछ पल जी लें फिर से,
अनकहे ख़यालों को 
लफ़्ज़ों में पीरो कर,

हो गया राख आशियाँ 
ज़रूरतों की आग में जल कर 
जगा लें फिर से अरमां 
नयी सी मुलाक़ात कर,

बना लें तस्वीर ख़ूबसूरत 
जीये हुये हर पल छिन की 
हासिल कर लें एक केनवास 
यादों के टुकड़े सजा कर,

संगीत फिर रचा लें 
धुन दिलकश बना लें 
गीतों को नये सुर दें 
महफ़िल नयी सजा कर,

जीवन को फिर से जी लें 
सोलह सिंगार कर लें 
यादों की संदूकची से 
ज़ेवर अपने निकाल कर....

नीरा २०१८
❤️❤️




हर मंज़र आना जाना है ,,,,,,,



हर मंज़र आना जाना है,,,,,
#######
बोलों में एक तराना है
ख़ामोशी में भी तराना है
सुन लो तुम यह गीत मेरा
एहसास का एक यगाना है,,,

गुज़ारिश बादेसबा से है
दामन को हवा दे देख देख
आतिश ख़ुद में ही जज़्ब किये
एक जला हुआ परवाना है,,,,

मस्जिद मंदिर और ख़ानख़ाह
सब एक है मुझ पर अब यारों
मैं हुआ हूँ तब से आवारा
छोड़ा जब से मैखाना है,,,,

पलकें चूमे रुख़सारों को
गेसू लहराये घटा हो ज्यों
ये हुस्न है मौजू नज़रों का
हर मंज़र आना जाना है,,,,,

अपनों से उम्मीदें क्यों हो
कब गुहर सदफ के काम आया
भरम महज़ मन का है ये
कोई अपना कोई बेगाना है,,,,

मुझपे जो कर्ज़ हुआ करते
कब के तो वो बेबाक़ हुये
दर पर दस्तक हर रोज़ है क्यों
बाकी अब क्या अफ़साना है,,,,,

(बादेसबा=पुरवाई, खानखाह=आश्रम, यगाना=स्वजन, बेबाक़=चुकता, सदफ=सीप, गुहर=मोती)

शाश्वत लहरें



शाश्वत लहरें
#######
खींच लेता हैं 
एक अजीब सा असर
मेरे दिल को 
दूर समंदर की तरफ़,
आती जाती रहती है मन में 
सीगल्लों के 
क्रँदन की आवाज़ें,,,,,

बनी रहती है जीवन में 
शाश्वत लहरों की दास्तान
रगड़ते पीसते हुये चट्टानों को 
रेत को ले जाते हुये 
कटार सी तीव्र समुद्री हवाओं के बीच
रखते हुये विद्यमान फिर भी 
शांति और प्रेम 
उपद्रवों और अस्तव्यस्तता के बीच,
और हिजरी है फ़िट 
सागर और तट की भिड़ंत 
दस्तानों जैसी ही,,,,,

बाँट देता है संगीत मुझे 
दो अविभाज्य हिस्सों में 
बस यही तो गाथा है मेरी 
बिलकुल खाड़ी जैसी ही, 
रखूँगा किंतु मैं संजोकर 
अपनी रूह में वो तराना 
जो बजता रहा था
सागर किनारे,,,,,,

सुन सकता हूँ आज भी मैं 
उन लहरों को जो 
टूट गयी थी तट को छूकर,
माना कि 
मैं चला आया हूँ बहुत दूर 
फ़िर भी पहुँच ही जाती है 
वो ही समयातीत लहरें 
मेरी यादों का अवशेषों बन कर,,,


कटु तराना : विजया



कटु तराना
*******
क्या हम सब
नहीं है भयातुर
पीड़ा से,
कटु सत्य है यह
सो नहीं पाते हम
धड़कते कांपते
सोचों के स्पंदनों से
जो बनाये रखते हैं
अनसोये हम को,
यही तो है ना
अनिद्रा का कटु तराना
एक बिन भूला अफ़साना....

अनिद्रा=insomenia

Thursday 13 December 2018

ले चल साथ मुझे : विजया

थीम सृजन 
(अंधेरे उजाले)
********
ले चल मुझे अपने साथ...
++++++++++

ले चल मुझे 
अपने साथ,
उन सपनों तक 
जो छूते रहते हैं 
तुम्हारे दिन को,

उन रंगों तक 
जो भर रहे हों 
तुम्हारी आँखों को,

उन लमहों के 
उजालों तक 
जो रोशन करते हैं 
तुम्हारे दिल को,

मैं प्यासी हूँ 
उस अमृत की 
जो बह रहा है 
तुम्हारे दिल की 
गहराइयों में.....

ले चल मुझे 
अपने साथ, 

अपनी रातों के 
उन अंधेरों तक भी 
जो गुम है तुम्हारे 
वजूद में,

नवाजों मुझे 
अपने दर्द
अपनी मासूमियत 
अपनी तकलीफ़ों के 
अफ़सानों से....

ले चल मुझे 
अपने साथ,

ख़रगोश के बिल सी 
अपनी संकीर्णता तक 
और फ़िर 
अपनी आसमान सी 
विशालता तक,

ताकि समझ सकूँ 
मैं तुम को 
और ज़्यादा....

मैं चाहती हूँ देखना
कैसे तुम्हारी 
व्याकुल रूह 
हो जाती है स्थिर और शांत,

देखना है मुझे 
कैसे समा लेती है 
तुम्हारी आँखें 
हर अंधेरे और उजाले को 
ख़ुद में.....

बरस रही है 
मेरी आँखें 
दुख से नहीं,
महसूस कर के 
एक आनन्द 
सुख और शांति को 
जो तेरे साथ होने के 
एहसासों का है....












अन्धेरे उजाले



अंधेरे उजाले
#######
कितने अंधेरे हैं ये
बाहर के उजाले,
चकाचौंध में जिनकी
बन्द हो जाती हैं आँखें
मैं लगता हूँ खोजने उनमें
इन्हीं बंद आँखों से
वही सब कुछ
जो मेरे अवचेतन के किसी कोने में
बसे हैं
बार बार नज़रसानी के बावजूद भी,,,,,

भीतर के उजालों में
खुली आँखों से
देखते ,जानते ,समझते हुए भी
नहीं निकाल बाहर करता मैं
उन सबको जो बेमानी से हैं,,,,,

सजा देता हूँ फिर से
निरख कर
महसूस कर
करीने से पोंछ कर उनको
अपने वजूद के छोटे से कोने में,
जहाँ मिलता है अंधेरे से उजाला
देते हुये पहचान समग्रता की
भेद और विभेद के परे,,,,,

शायद यही तो है 'इंसान' होना
शायद यही है 'भगवान' ना होना,,,,


Thursday 6 December 2018

जानलेवा घाव : विजया



जानलेवा घाव
++++++++

कुछ यादें होती है
स्क्रीन शॉट
उस पल की घटनाओं का
जब वो घटित होती है
सब छोड़ चुके होते हैं जगह
मगर
हमारी ज़ख़्मी अना
पग जमाये
डट कर खड़ी होती है....

कहाँ थमा है वक़्त
किसी के इंतज़ार में
हालात ने
किया है लिहाज़ कहाँ
किसी के सरोकार में,
चिपकाए रखते हैं
सीने से
उन मर चुकी यादों को
ज्यों फिरती है बंदरिया
चिपकाए हुये छाती से
अपने मरे हुये बच्चे को....

नतीजा होता है
जानलेवा घाव
बदबूदार मवाद भरा,
काश छोड़ पायें हम
देखना माज़ी को
आतिशी शीशे से
लिए हुये बौझा
अधूरेपन का
एहसासे कमतरी का
बिगाड़ देता है जो
आज को भी
कल को भी....

Wednesday 5 December 2018

रूह से मिला दिया : विजया



रूह से मिला दिया...
++++++++++
तेरी छुअन ने कुछ ऐसा
जादू जगा दिया
जिस्मो ज़ेहन को तुम ने
रूह से मिला दिया....

जानती थी तुझको
ज्यों अजनबी कोई
छूकर के मुझको तुमने
अपना बना लिया.....

ख़ामोशियाँ होती है
ज़ुबान जिल्दों की
सरग़ोशियाँ ऐसी हुई
नग़मा बना दिया...

महबूब हो मेरे
मगर संगतरास हो
पत्थर की परतें खोल कर
अरमाँ जगा दिया...

गरम आग़ोश तुम्हारे
पिघलाते रहे मुझे
पानी थी मैं मामूली
अमृत बना दिया...

मेरे हर ज़र्रे में
समाये हो जानेजाना
छुआ जो वजूद मेरा
जन्नत बना दिया....

तोहफ़ा हसीन पाकर
हूँ आसमां पर मैं
शुक्रिया मोहब्बत का
दिल से सुना दिया.....

तुम्हारे इन हाथों ने
सहेजा है इस क़दर
बिखरी हुई माटी को
मूरत बना दिया..

तेरी नज़रों के साये में
रूखसती मुझे मिले
दम आखिरी को ऐसा
मर्हला बना लिया....

जिल्द=skin, मर्हला=मंज़िल, रूखसती=छुट्टी(यहाँ मौत के सेन्स में)

Monday 3 December 2018

साथ यहीं-अभी : विजया



साथ यहीं-अभी....
+++++++++
नज़र के सामने हो, फिर भी
आँखों से ओझल लगते हो
हो तुम साथ यहीं-अभी
बीते पल से क्यों लगते हो....

मंदिर के परिसर में क्यों
ख़ुद देव तुल्य ही दिखते हो
मूरत ज्यों तुम को देख रही
ध्यानी अचल से लगते हो...

चंचल बन क्रीड़ा करते हो
कभी मौन गहन तुम धरते हो
कभी दिखते सागर ठहरे से
कभी बहते जल से लगते हो....

तेरे इन सारे रूपों में
नन्हे मासूम से दिखते हो
जिस साँचे में मैं चाहती हूँ
बेझिझक उसी में ढलते हो....

छलिया मायावी तुम कितने
भ्रम सदा बनाये रखते हो
जिस जिस से जुड़ जाते हो
ख़ुद को अटकाये रखते हो....

पीड़ा ख़ुद की पीकर तुम
सब घाव सहलाते रहते हो
समझ सकूँ कैसे तुम को
कठिन सबक़ से लगते हो...

सहज हो तुम इतने प्रीतम
ख़ुद ही सोच ना पाती हूँ
जटिल भी हो उतने ही
समझ नहीं कभी पाती हूँ ....

जो भी हो तुम मेरे हो
नज़रों में समाये रहते हो
मन मन्दिर अपने में साजन
तुम मुझे बसाये रखते हो....

रिश्तों में भी : विजया



रिश्तों में भी.....
+++++++
आया था पैग़ाम
बहुत ग़मज़दा है वो
आँसू है कि थम नहीं रहे
खाना नहीं खा रहा
गुमसुम है
खोई खोई नज़रों से
ना जाने क्या
देखे जा रहा है....

लगा लिया था गले से मैं ने
शायद मेरा प्यार भरा आग़ोश
पिघला दे उसकी उदासी को
जो जम गयी थी अंदर उसके
बर्फ़ की कड़ी चट्टान बन कर,
वरना मेरा चुलबुला सा
शरीर मासूम
ऐसा तो नहीं है....

पूछा था मैंने हुआ क्या ?
"कुछ नहीं"
यही तो होता है पहला जवाब
फिर खोदने से आती है
असलियत जुबाँ पर
ना भी आये
मुनहसिर है सब कुछ
कुदाल की नोक पर
खोदने वाले की कुव्वत पर....

हैम्स्टर ने दिये थे बच्चे
खा गयी थी माँ दो को
गटक गया था बाप एक को
सुना था मैंने यह भी कि
एक ही माँ की औलाद थे
नर और मादा.....

बेहद जुड़ गया था ना वो
अपने नन्हें दोस्तों
जूलीऔर जान से,
नाजों से रखता था उनको
मादा हुई थी जब हामला
रहता था इंतज़ार
नये मेहमान के आने का
तोड़ के रख दिया था
जो भी हुआ उसने
एक मासूम दिल को.....

हिला दिया था
मुझ को भी
उसके उस मासूम सवाल ने
दुनिया भर की दवाओं की रीसर्च में
आजमाईस की जाती है ना हैम्स्टर पर
बहुत कुछ मिलता जुलता है ना
इंसान का इनसे
क्या रिश्तों में भी ?

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हैम्स्टर(hamster): एक नन्हा सा प्राणी जो जिसकी शक्ल चूहों/भालू से मिलती है....लोग पालते है.https://en.m.wikipedia.org/wiki/Hamster
मुनहसिर=निर्भर, कुव्वत=ताक़त, हामला=गर्भवती .

Saturday 24 November 2018

आग्रह और आत्म लघुता...,,

आग्रह और आत्मलघुता : ' ए नोट टू माईसेल्फ'
********************************

######
जीवन के कटु, मधुर,स्नेहिल,आश्चर्य मिश्रित अनुभवों से कुछ बातें तुरत मस्तिष्क में आती रहती और कुछ बातें पढने के दौरान मन को छू जाती है....कई समय वो ही कविता का रूप ले लेती है.

आग्रह,,,,,

# # # # #
साथ रहते हुए
स्नेह ,आकर्षण और
स्वामित्व की भावनायें
हो जाती है
उमड़ते उफनते
समुद्र के ज्वार के सदृश
बढ़ता जाता है
यह लगाव
तूफानी वेग से,
आपसी आदर और सम्मान
प्रतीत होतें हैं
केवल औपचारिकतायें
और
सर्वोपरि हो जाता है
बस समेट लेने का
आग्रह,,,,,

आत्मलघुता,,,,,

# # # # # #
होती है आत्मलघुता
अति-दुखदायी.
हीन-भावना ग्रसित व्यक्ति
करता है अनुभव
यातना
एक रमणीक,
संपन्न,
मनमोहक
वातावरण में भी,,,,

(आत्म लघुता : Low Self Esteem, हीन भावना : Inferiority Complex)


क्या हो गया प्यार मुझ को....



क्या हो गया है प्रेम मुझ को ?

###########
झाँका था दर्पण में
जब उसने ,
दृष्टि में झिझक
और कंपकपाहट अधरों पर
स्वाभिमान में थे भाव
आत्मलीनता के
पूछ बैठी थी वो अनायास
स्वयं से
क्या हो गया है प्रेम मुझे ?

इंगित था
पलकों के झुकाव में
नयनों में बस जाना
किसी का
मौन में थी व्याकुलता
मुखर हो उठने की,
अदाओं में थी चंचलता
चंचलता में थी लज्जा
लज्जा में भी थी चपलता
चितवन में था नटखटपन
मन्द स्मित फूट रहा था
ज्यूँ अंग प्रत्यंग से
पूछ बैठी थी वो अनायास
स्वयं से
क्या हो गया है प्रेम मुझे ?

शरारत सी दौड़ रही थी
सपनीली आँखों में
ना जाने क्यों फिर भी
एक हिचकिचाहट सी थी
देखने और दिखाने में
सहम सा गया था
साहस ज्यों ,
गहन गांभीर्य में
घबराहट सी थी
स्थिरता में भी
सरसराहट सी थी
उजागर थी हक़ीक़त
नयनों के सुंदर वातायन से
बेकाबू थी धड़कन
स्पंदनों की छुअन से
पूछ बैठी थी वो अनायास
स्वयं से
क्या हो गया है प्रेम मुझ को ?

चाँदनी रात में
किया था महसूस
अकेले ही छत पर
अपनी अलकों को
उसके सीने पर
पाया था सन्निकट
कपोल द्वय को
अगन की दहन थी
ज्यों जल रहा था
अंतर धू धू
टीस थी पीड़ा भी थी
अधरों पर घुटी घुटी आहें थी
वो बहकी बहकी
भीगी सी निगाहें थी
पूछ बैठी थी वो अनायास
स्वयं से
क्या हो गया है प्रेम मुझ को ?

दर्द उसका
छू लेता था
अपना ही दर्द होकर
छा जाती थी
ख़ुशी उसकी
अपनी ही ख़ुशी बन कर
व्यग्रता थी बाँट लूँ
हर्ष और विषाद को
होना उसका स्पष्ट था
हर उतार और चढ़ाव में
साथ उसका मुहैया था
हर प्रवाह और ठहराव में
ना हो कर भी
हुआ करता था इर्द गिर्द
कह बैठी थी अनायास
स्वयं से
हो ही तो गया है प्रेम मुझ को !!!!

😊😊😊

अँगड़ायी आइने की...


अंगड़ाई आईने की
######
दिखाता रहा था
जो जैसा था उसको वैसा ही
सच का मैं पुजारी
रखता था ख़ुद को वैसा ही,
चले आते थे मेरे क़रीब
निहारने वो शोख़ ख़ुद को
देख कर अक्स अपना
किये थे नज़रे सानी ख़ुद को,
ख़ूब सँवारा सजाया था
बनाया था हसीन खुद ने
खुदा भी पूछता था के
इनको बनाया किसने?
खिला देता था संग मेरा
जिस्म ज़ेहन ओ रूह को
ख़ुश होकर तहे दिल से
वारा था मुझ पे ख़ुद को,
यकायक उनके ख़ातिर
अंधा हो गया था ये आईना
शायद उनके क़द से
छोटा पड़ गया था आईना,
चल दिए थे दूर मुझ से
लगे थे जहाँ पे मेले
सोचा किया था मैंने
रह कर निपट अकेले,
ले ली थी उस दिन यारों
मैंने भी एक अँगड़ायी
टूटा था कई टुकड़ों में
मेरी थी अब बन आई,
हर टुकड़े में दिखता था
अक्स जुदा सा अपना
कोई सूरत हक़ीक़त की
कोई चेहरा था मानो सपना,
मैंने भी रुख़ सोचों का
कुछ ऐसा बदल दिया था
जो जैसा दिखना चाहता
उसे वैसा दिखा दिया था,,,,

मेरे दूसरे प्यार ने ....



मेरे दूसरे प्यार ने....

#######
प्यार की राह का
मैं एक मुसाफ़िर,
रुकना नहीं है फ़ितरत मेरी
तलाशता रहा ठिकाना अपना
कितनी ही मंज़िलें छूकर
क्या हो सकी पूरी
मेरी फेरी,,,,

मेरे दूसरे प्यार से
सीखी थी मैंने स्वाधीनता
और जान लिया था मैं ने
आँखों से बातें करना
सिखाया था उसी ने मुझे
आकर्षक होना
मौज में जीना,,,,,

मेरे दूसरे प्यार ने
उभारा था मुझमें मेरे सर्वश्रेष्ठ को,
समझाया था मुझको
क्या होता है
दूसरों में भी सर्वोत्तम को उभारना,
सीखा था मैंने
सामना करना अपने भीतर के भय का,
जाना था मैंने
सब कुछ दाँव पर लगा देना
फिर भी नाकामयाब न होना,
हुआ था परिपक्व मैं
इसी दौर में ही
सीखा था मैं ने कभी कभी
बेपरवाह होना,,,,

फ़िर एक दिन......
दिखा ही दिया था उसने
कैसे बदल जाते हैं लोग
जुदा होकर चले जाने को
दूर बहुत दूर
और नहीं आते हैं वे
लौट कर फिर कभी,,,,

(प्रेम एक स्थिति है क्रिया नहीं, स्वयं प्रेम हो जाना ही तो प्रेम है.जीवन में घटित 'प्यार की दस्तानें' आयेगी "मेरे दूसरे प्यार ने " "मेरे तीसरे प्यार ने" इत्यादि शीर्षकों के साथ.)

---------------------

उत्सव आज का चलो मना लें....


उत्सव आज का चलो मना लें,,,,
##########
बीत चली कल की रजनी है
उत्सव आज का,
चलो मना लें...

विगत की बातें कारण ग़म का
उलझी सोचें पात्र गरल का
अटक गए बीती बातों में
जीवन बिगड़ा सहज सरल का ,
बीत गए पर क्यों पछताएं
उत्सव आज का,
चलो मना लें...

आज है केवल सत्य हमारा
लखते जिसको निज नयनों से
वर्तमान अपना लें दिल से
परे रहे जो सब चयनों से
जी कर पल पल अभी यहीं के
उत्सव आज का,
चलो मना लें...

रात गए जो स्वप्न हुआ था
भोर हुई और बीत गया वो
जिसने आज का सपना देखा
सच मानो तुम जीत गया वो
विजय गान गाकर के मितवा
उत्सव आज का,
चलो मना लें...

गुल्फ़िसाँ....


ग़ुल्फ़िशाँ
######
नूरे निगाह उसकी असर कुछ कर गयी
दिल के अंधियारों को रोशन कर गयी,,,,

कर दी मुनादी बादलों ने गरज कर
मुद्दतों के बाद वो किसी दर पर गयी,,,

हो गयी उजली मेरी मावस की रात
छोड़ कर सब कुछ , वो मेरे घर गयी,,,,

खिल उठी है चाँदनी हर ज़र्रे में
ज़मीं से आसमां को निहानी नज़र गयी,,,

खिल गये गुलशन में गुंचे बेशुमार
ओस बन बूटों पे जब वो झर गयी,,,,

तसव्वर में हर लम्हे मैं क्यूँ डूबा रहा
वो दो घड़ी भी दूर मुझ से गर गयी,,,

दिखने में मासूम ओ गुलरुख़्सार थी
हुई ग़ुल्फ़िशाँ छूकर जब अख़्गर गयी,,,

(निहानी=अंदरूनी, तसव्वर=ख़याल, गुलरुख़्सार=गुलाब के फूलों जैसे कपोलों वाली नायिका, ग़ुल्फ़िशाँ=फुलझड़ी, अख़्गर=चिंगारी)

मेरा तीसरा प्यार.....

थीम सृजन
======
(मुझे कोई डोर खींचे-८.११.१८)

मेरा तीसरा प्यार,,,,,
########
मेरे तीसरे प्यार ने
सिखाया था मुझ को
एक ऐसा प्यार
जो भर सके हर एक घाव को,,,,,

सिखाया था मुझे उसने
कह देना सब कुछ मुँह से,
खोल कर रख देना दिल को
और रखना ख़याल
तहे दिल से किसी का,
करने लगा था महसूस मैं भी
पाया जाना बदले में प्यार का.....

सीखा था मैंने
बिना आघात पहुंचाए
कर देना सब कुछ
किसी के लिए
जो भी है अख़्तियार में अपने,
सीख ही गया था अन्तत: मै
जीवन को तनिक लेना
बहुत ही गंभीरता से ...

मेरे तीसरे प्यार में
जान लिया था मैंने
सुरक्षा को भी
और स्वयं को
नुकसान न पहुंचने देते हुये
ईमानदारी से
जीये जाने को भी

और एक दिन...
मेरे तीसरे प्यार ने
सिखा ही दिया था मुझ को
बस छोड़ सकता है कोई यूँ ही
प्यार करना किसी से
और
नहीं भी लौट सकता है
वह फिर कभी,,,,,

आ सकता है ना
एक दिन ऐसा भी
जब मुझे बता सकेगा कोई
क्या घटित नहीं हुए थे
मेरे तीनों ही प्यार सचमुच !!
क्या नहीं थी कोई डोर वाकई
जो मुझे खींचे चली गयी थी !!
क्यों चला गया था मैं दूर उनसे,
क्यों चले गए थे दूर वो मुझ से !!!!

(प्रेम एक स्थिति है क्रिया नहीं, स्वयं प्रेम हो जाना ही तो प्रेम है.जीवन में घटित 'प्यार की दस्तानें' साझा हुई है यहाँ "मेरे पहले प्यार ने "  "मेरे दूसरे प्यार ने" और "मेरे तीसरे प्यार ने"  शीर्षकों के साथ. वास्तविक है या काल्पनिक इस चक्कर में नहीं पड़ कर रचनाओं का लुत्फ़ उठाएँ, अच्छा लगे तो अपनाएँ नहीं तो भूल जाएँ 😊)

देखता हूँ ऐसा भी....

शब्द सृजन
======
(२.११.१८-ज़ुल्फ़)

देखता हूँ कभी कभी ऐसा भी,,,,,,,,,
##########
तेरी बिखरी बिखरी
घनेरी ज़ुल्फ़ों की
कोमलता का क़ायल
मैं देख लेता हूँ
कभी कभी
ऐसा भी,,,,
बिखराती हो
जब भी
तुम अपने बालों को
याद आता है
तांडव काली का,
पाता हूँ शिव ख़ुद को
क़दमों तले तुम्हारे,,,
दहला देती है
घनघोर घटाएँ
ज़ुल्फ़ों की तेरी
मेरे कायर दिल को
जो जीता है
इस डर को लिए
खो ना दूँ तुम को,
जब जब बिजली सी
गरज के साथ
बरसती है तुम्हारी आँखें,,,,
बिखरे केशों के बीच
लाल बिंदी ललाट पर सजाए
तुम्हारा तेजोमय रूप
लाल पाहाड़ की
ताँत की साड़ी में
क़रीने से लिपटी
तेरी काया
तेरे बेशर्त प्यार का
सरमाया
देता है मुझे भरोसा
सबल है मेरा साथी
मुझ जैसा ही,
थाम कर हाथ
एक दूजे का
कर लेंगे हम सामना
ज़िंदगी की
हर मुश्किल का,,,,
देखता हूँ
जब जब उस ज़ुल्फ़ को
अपने हाथ में
नज़र आती है
बिफरे हुए गजेंद्र की
ज़ंजीर सी
साध पता हूँ जिसे मैं
बन कर महावत
अनूठा सा,
अनुपम है ना अपना
इंकार और इक़रार
तकरार और इसरार
अनुराग और अभिसार
संगीत और सुगंध भरा
यह जीवन्त प्यार,,,,

मेरे पहले प्यार ने.....


मेरे पहले प्यार ने,,,,
#######
मेरे पहले प्यार ने
सिखायी थी मुझ को
अतीव आधिकारिकता*,
पढ़ाया था
पहले प्यार ने ही मुझे पाठ
ईर्ष्या, पीड़ा एवं वेदना का,
बताया था मुझे
प्यार होता है
सिर्फ और सिर्फ मेरा
जकड़ कर रखने के लिए
क्योंकि नहीं है वांछित प्यार में
छोड़ देना आज़ाद संगी को,
प्यार तो है
बस चाह पाने की
एक भय खोने का,
चलाया था
सिलसिला
जाने और लौट कर आने का
सीख कर उसी से मैंने भी
उसी ने तो सिखाया था
रूठना मनाना
क्षमा करना
और देना एक के बाद एक
अवसर ...

फिर एक दिन.....,,
सिखा ही दिया था
मेरे पहले प्यार ने
जुदा हो जाना
बेहतरी के लिए
और
नहीं लौट कर आना
फिर कभी,,,

*अतीव आधिकारिकता=Possesiveness, इज़ाफ़ित,हक़ मालकियत, हक़े ज़मीर, अतीव स्वत्वात्मकता, हावी होने की तीव्र इच्छा, शासन करने की तीव्र इच्छा आदि.

(प्रेम एक स्थिति है क्रिया नहीं, स्वयं प्रेम हो जाना ही तो प्रेम है.जीवन में घटित 'प्यार की दस्तानें' आयेगी "मेरे दूसरे प्यार ने " "मेरे तीसरे प्यार ने" इत्यादि शीर्षकों के साथ.)

रिश्ता ए दर्द....


रिश्ता ए दर्द
#######
मिल गया सरे राह वो,और दिलबर हो गया
हर क़दम वो शोख़ ऐसे, मेरा रहबर हो गया.

रंगीनियों से जगमग रोशन थी महफ़िल तेरी
हो कर सादा तबियत तू मेरा हमनज़र हो गया .

राएगाँ था क़तरा ए आबगूँ पसीना दरअस्ल
खूं ए दिल से मिला बहा और अहमर हो गया.

खिज़ा ने तो किया था बेनूर मेरे चमन को
बहारों का मौसम भी ज्यों सितमगर हो गया.

मैंने जिये बेइंतेहा दर्द जिसके मोहब्बत में
रिश्ता-ए-दर्द से क्यों ही वो बेखबर हो गया.

(रहबर=मार्गदर्शक, राएगाँ=बर्बाद, आबगूँ=पानी के रंग वाला, अहमर=लाल/red)

छोटे छोटे एहसास : विनोद

छोटे छोटे एहसास
==========
१)

आ मिल के जी लें ज़िंदगी
देखता है ये खुदा
कोशिश ये हर पल रहे
भर जाए ख़ुशी से गमकदा,,,,

(गमकदा=दुःख से भरा स्थान)
२)
हासिद अब तू चुप भी रह
करते मोहब्बत शाहो-गदा,,,

हासिद=ईर्ष्यालु, शाह=राजा गदा=रंक

बादल....



बादल,,,,
# # #
लुटाता हरियाली
दुनियां को
बादल,
फ़िर भी बंजर है
आब से भरा
बादल,
दया का सागर है
भावुक
बादल,
दरिया की क़ुसंगत में
बहा दे कई घर
बादल,
हाथ उठे थे
बारिश की दुआ में
बरसा गया चंद संग
बादल,
छील गया
दिल के दरो दीवारों को
राहे आँखों से
बरस गया
बादल,
लगाये बैठे थे उम्मीद
सुकून-ओ-ठंडक की,
आग सावन में भी
लगा गया
बादल,,,,

अपनी ही पहचान ....



अपनी ही पहचान,,,,
########
आता है लुत्फ़ कितना
औरों को भरमाने में
औरों को डराने में ,
खड़े हो जाते हैं हम
दुनियाँ के खेत में
बिजूका बन कर
पहने हुए कपड़े इंसान के
बाँस पर लटकी हंडिया
को बनाकर चेहरा
उकेर कर उस पर
आँख कान मुँह और मूँछ,
आती है धूप, बारिश और सर्दियाँ
खड़ा रहता है अडिग यह पुतला
रहता है अटल
महज़ अना पर ज़िंदा यह नक़ली इंसान
ऊबता नहीं-घबराता नहीं-परेशान नहीं
गुज़र जाते हैं दिन साल महीने
आता है ना मज़ा
दूसरों को डराने में
दूसरों को बनाने में,,,,,,

आता है लुत्फ़ कितना
ख़ुद को ही डराने में
ख़ुद को ही भरमाने में,
पहचान बस यही तो है
झूठे इंसान की
देखता है अक्स हरदम ख़ुद का
औरों की आँखों में,
बस फ़िक्र एक ही
एक ही सोच
दिख रहा हूँ मैं कैसा उन आँखों में
क्या कहते हैं लोग मेरे लिए,
दिखना चाहता है वो
जैसा नहीं था वैसा
जैसा नहीं है वैसा
औढ़े हुए चन्द लबादे
लफ़्फ़ाज़ी की फ़ितरत लिए
होकर गाफ़िल
ख़ुद अपनी ही पहचान से....
कैसा है ये मज़ा
ख़ुद को ही बनाने में
ख़ुद को ही बहलाने में ,,,,

पुकारता है कौन.....



पुकारता है कौन,,,,,
#########
बात बात में निकली
तेरी मेरी बात
बात बात में बीत गयी
तारों वाली रात
दिल दिल के पास है
धड़कने  है मौन
ऐसे में ना जाने मुझे
पुकारता है कौन ?

टूटे दिल की वो सदा
शोर में है दब गयी
हर पल जो मेरे साथ थी
दूर मुझ से कब गयी ?
चुप हुआ है आसमां
धरा भी हुई है मौन
ऐसे में ना जाने मुझे
पुकारता था कौन ?

भूल से जो कह गया
अपने दिल की बात
छूटने लगा है अब
मेरा उसका साथ
मैं यूँही कहता रहा
वो हो गयी है मौन
ऐसे में ना जाने मुझे
पुकारता है कौन ?

जो साथ थे
वो थक गए
जो दूर थे
वो रुक गए
मैं चलूँ या ठहरा रहूँ
यह प्रश्न अब है मौन
ऐसे में ना जाने मुझे
पुकारता है कौन ?

फ़ना : विजया



फ़ना.....
+++++++++
जो टूटा था वैसा ही मोहे फ़िर से साज दे दो
दिल की वो लरजती सी मीठी आवाज़ दे दो...

गुल सी नरम छुअन का फिर से अन्दाज़ दे दो
चाक है रूह मेरी उसे एक नया आग़ाज़ दे दो...

परदा हैं तो क्या आँख तज़ल्ली-साज दे दो
रस्मों का अज़्म टूटा, जीने का दरबाज दे दो..

हबीब हो हमदम हो  दिल के राज दे दो
ग़म ने मुझे है घेरा, मेरा जाँनवाज़ दे दो...

हर अना के ग़ुब्बारे का माक़ूल इलाज दे दो
करना है जिसको बर्बाद उसे बस ताज दे दो...

फ़ना हूँ मिटी हूँ तुझ पर मुझे मेरा नाज़ दे दो
इस अधूरी कहानी को अपने अल्फ़ाज़ दे दो...

(तज़ल्ली-साज=रोशनी देने वाली, आग़ाज़ =शुरुआत, जाँनवाज़=दयालु, कृपालु, दरबाज़=दरवाज़े के सेन्स में इस्तेमाल किया है.


मृत्युंजय का महानिर्वाण : विजया




मृत्युंजय का महानिर्वाण...
++++++++++++

आहत घायल अंगराज ने
दिया दुर्योधन को अपना अंतिम दान
सखे ! कवच कुंडल दे दिये अन्यों को
तुझ को ही दूँगा
मेरा अनुभूत विचार दान,
युद्ध नहीं है हल समस्या का
राजन. रोक दो विनाशी युद्ध !
कर्ण अधर कम्पित हो
उच्चारित करते थे ये शब्द,
व्यथित था मित्र दुर्योधन
श्रवण चिंतन मनन से
कैसे विस्मृत कर त्याग तुम्हारा
हो जाऊँ भयाक्रांत
अपने ही तुच्छ मरण से,
सोचा था योगेश्वर ने
पूछेगा दुर्योधन
अंतिम इच्छा मित्र की
किंतु था दिशाहीन वह
जैसे छूटी हो धुरी
किसी रथ चक्र की,
देह हो रही थी अचल
लड़खड़ा रहा था
दानवीर का श्वास
उखड़ते साँसों से था स्पंदित
विशाल वक्ष
बची ना कोई क्षीण सी आस,
नैतिक दायित्व
अंतिम वांछा पूछने का
श्री हरि ने अपनाया था
कर्ण कर्ण के सन्निकट हो
वचन आत्मीय पहुँचाया था,
कौन्तेय ! बताओ अपनी
अंतिम इच्छा तुम मुझ को
सुन 'कौन्तेय' शब्द प्रभु मुख से
शांति हुई प्राप्त उसको,
नयनों में तैर रहे थे
दो स्पष्ट स्वच्छ अश्रु बिंदु
दुख,पश्चात्ताप,कृतज्ञता
एवं धन्यता के जैसे गहरे सिंधु,
ऋषिकेश ! करना कुमारी भूमि पर
मेरा अंत्य संस्कार
नहीं चाहता अब किसी भी जन्म में
कोई कुंठा और विकार,
चुनना धरा कुछ ऐसी
जहाँ हुये ना हो प्रष्फुठित तृणअंकुर तक
हो विलीन ये पंचमहाभूत
दुख ना उगे
मुखरित ना हो आर्तस्वर तक,
सूर्य बिम्ब पर केंद्रित नील पुतलियाँ
हीन समस्त आड़ोलन से
मुक्त हुआ था वक्ष लोहत्राण
स्पंदन आंदोलन से,
एक प्रखर ज्योति का
हिरण्यगर्भ में विलय हेतु
दिव्य महाप्रयाण हो गया
कुंती पुत्र महायोद्धा
मृत्युंजय महावीर का
महानिर्वाण हो गया.....

अगला शब्द : स्पंदन

करूँगी मैं प्रतीक्षा तुम्हारी : विजया



करूँगी मैं प्रतीक्षा तुम्हारी...
+++++++++++++

मिलना है हमारा कैसा ?
दो भटकी सी लहरों जैसा
खिले हों दो फूल साथ वैसा
क्यों रहे हम संग हमेशा ?
सोचते हो तुम यह सब तो क्या
करूँगी मैं प्रतीक्षा तुम्हारी....

विस्मृत कर सारा स्वामित्व
बोले यदि हृदय से अपनत्व
भूला कर ही अधिकार और दायित्व
संभव है संबंधों का अमरत्व
हमारे मृत प्रेम के पुनर्जन्म तक
करूँगी मैं प्रतीक्षा तुम्हारी....

मेघदूत मुझ से रूठे
गरज गगन घन टूटे
मैत्री वायुदूति से छूटे
स्वप्न सिद्ध हो झूठे
अपने हो जाये पराये तो क्या
करूँगी मैं प्रतीक्षा तुम्हारी.....

उमड़ते रहेंगे सागर
घुमड़्ते रहेंगे बादल
बहेंगे उर बीच पैनारे
तोड़ेगी नदिया किनारे
लौट आना तुम जब मन हो
करूँगी मैं प्रतीक्षा तुम्हारी....

माँ ने दर्पण दिखाया : विजया



[संस्कृत के महान कवि कालिदास के लिए प्रचलित किंवदन्ती को शब्द देने का Semi Free Verse Style प्रयास है, मात्राओं को इग्नोर किया है, छंदात्मकता लय के लिए सहज घटित है.
घटना के सच झूठ होने के पहलू में मेरे अनुसार कल्पना का पलड़ा भारी है किंतु इसका संदेश बेजोड़ है, इसीलिए मैंने इसे रचना का आधार बनाया है ]

===================

🔺माँ ने दर्पण दिखलाया.....🔺
++++++++++++
चमक उभरे हुये ललाट पर
आँखों में सुरूर था
ज्ञान के उस राजा को
ख़ुद पर बहुत ग़रूर था,
सहज हो नहीं करे वो
किसी से कुछ भी बात
शब्द बाण तीव्र अत्यंत
वचनों के घात-प्रतिघात,
राह भटक गया यात्रा में
कवि अनुपम काली दास
पड़ गया था नितांत अकेला
सता रही थी उसको प्यास,
शीतल नीर पिला दे वृद्धा
ग्रसित मैं जल पिपासा से
पुण्य होगा तुम्हें अतीव
ब्राह्मण की पूरित आशा से,
अवश्य पिलाऊँगी अंबु तुझ को
यदि परिचय अपना दे पाओ
मैं हूँ परम ज्ञानी प्रकाँड
गहन ज्ञान तुम भी पाओ,
'कौन हो तुम ?'
'पथिक हूँ'  अविलंब पिलाओ नीर
इतना तो तुम कर दो नारी
नहीं माँगी मैंने खीर,
पथिक मात्र दो है
एक चंदा दूजा सूरज
चलते है निरंतर दोनों
खोए बिना वे धीरज,
कौन हो तुम इन दोनों में
मुझे तुरंत बताओ
शांत करो जिज्ञासा मेरी
शीतल जल तुम पाओ,
मौन हुआ था ज्ञानी तत्क्षण
झाँक रहा था बग़लें
बता परिचय अपना हे ब्राह्मण !
पानी फिर तू पीले,
'अतिथि हूँ'  जाना है मुझ को
जल तू मुझे पिला दे
धन यौवन बस दो ही अतिथि
'कौन तू'..उत्तर मुझे बता दे ,
फ़िर हुआ था चुप वो पंडित
प्यास से आकुल व्याकुल
पूछा तो बोला 'सहनशील'
विप्र हूँ मैं अति उच्चकुल,
सहनशील धरा फाड़ छाती को
स्थान बीज को देती
अन्न उपजता उस से पंडित
सहन सभी वो करती,
सहनशील है वृक्ष दूसरा
खा पत्थर फल देता
छांव पथिक को देता ठंडी
ऋतु रक्षण वो करता,
'दो में कोई एक' झड़ी प्रश्नो की
तू धरा है या कोई तरुवर
निरुत्तर काली दास के आतुर
'पानी दे' 'दे पानी' ये स्वर,
झल्लाने लगा कालीदास
उतरने लगी थी परतें अनेक
पूछा गया इस बार तो बोला
मै तो हूँ बस 'हठी' ही एक,
नख और केश हठी होते बस
क्या इतना तुम ना जानो
जितना काटें फ़िर बढ़ जाएँ
बात ज़रा तुम मानो,
क्या हो तुम कोई एक
चुन बताओ इन दोनों से
क्रोधित विप्र कहे, 'मूर्ख' मैं
उस शांत स्मित गृहणी से,
मूर्ख भी केवल दो दुनिया में
नृप एवम् बुद्धिजीवी दरबारी
बिना योग्यता बना जो शासक
संग झूठे चमचों की भरमारी,
तर्क अपने लागू कर कर जो
मिथ्या को सत्य बताते
मूर्ख राजन से मूढ़ पाखण्डी
मन चाहा प्रतिफल पाते,
कौन है तू इन दोनों से
अब तो तनिक बता दे
नतमस्तक हो बोला माँ
बस पानी मुझे पिला दे,
चरणों पड़े विप्र को माँ ने
वात्सल्य सहित उठाया
मैं तो हूँ साक्षात सरस्वती
वत्स तू था भरमाया,
शिक्षा से प्राप्त मान को
अपनी उपलब्धि माना
अहंकार में चूर हुआ तू
सत्य ज्ञान ना जाना,
विद्या ददाति विनयम का
सूत्र तुम ने बिसराया
अपने थोथे ढोल पीटकर
पंडित तू इतराया,
होश में तुम को लाने हेतु
स्वाँग था मैंने रचाया
प्यासा था तू केवल प्यासा
परिचय क्यों ना बताया,
याचक विनयी बना विप्रवर
माँ ने नीर पिलाया
खुली आँख के अंधे को
माँ ने दर्पण दिखलाया...

ढलता सूरज और मैं : विजया


ढलता सूरज और मैं....
++++++++++
जला डाला था
डूबते सूरज की किरणों ने
नीले बादल का टुकड़ा,
एक ऐसी आग जो
गहरी थी
सूर्ख लाल थी
पीली थी
किरिमजी थी...
दहका कर उसको
ढल गया था सूरज,
हो गये थे सुनहरी
वो मटमैले टीले,
चल गया था रंगों का जादू
सूखी खुरदरी रेत पर,
होने लगी थी सिन्दूरी
हरे हरे पेड़ों की कतारें,
रात के शुरूआती धुंधलके में
हो गयी थी ताम्बई
कच्ची कच्ची कोंपलें,
हो गया था साफ़ शीशे सा
नदी का पानी
जो बहे जा रहा था
राजसी धज से,
लाई थी मैं भगा कर खुद को
बहलाने जरा दिल को
ढूंढने थोडा सा रोमांच,
सोचती हूँ क्या मिला था
मेरे दिल और दिमाग को
मेरे अपने ही रंगों में सुलगती
उस शाम से,
एक पल की रोशनी
प्यास भरी एक छुअन
वासना भरा एक चुम्बन
एहसास को तरसते होठों पर
गहरे प्यार की गर्माहट बिना.....


शांति का पर्याय : विजया


शांति का पर्याय
+++++++++

अर्थ है इस्लाम का
'शांति'
जो पाता है मानव
एक सत्य ईश्वर के
सम्मुख होकर नतमस्तक
समर्पण के साथ,
दुर्भाग्य है मानवता का
'शांति' के इस पर्याय को
परोसा जा रहा है
अशांति और आतंक के मायने देकर
कर दी जा रही है उत्पन्न
ऐसी धारणाएँ, मान्यताएँ और पूर्वाग्रह
सुकोमल बाल मनोमस्तिष्कों में भी
पढ़ा पढ़ा कर ग़लत पाठ उनको
करेंगे यदि विश्लेषण उसका तो
कहलाएगा काफ़िर
दुनियाँ का हर आम और ख़ास इंसान !


धूनी रमा गए : विजया


धूनी रमा गये...
++++++++

अधिकार मुझे तुम थमा गये
न जाने ख़ुद कहाँ समा गये.

हो गया जीवन परम्परामय
हमको पद पर जो जमा गये.

जज़्बात तिज़ारत हो ही गये
खोया किसी ने कोई कमा गये.

चाहत रस्मों में ढल जो गयी
पाकर सब कुछ हम गँवा गये.

आये थे  संग जीने के लिये
जगा अलख वो धूनी रमा गये.

रिश्ते : विजया


रिश्ते...
+++

रिश्ते नाते
भावनाओं के अनुवाद या
अवस्थाएँ व्यवस्था की ?
अलग अलग समय
आन खड़ा होता है प्रश्न ?

क्यों करते हो बँटवारा
इस ख़ूबसूरत
मानवीय आयाम का
ख़ुशी और ग़म
सुकून और दर्द
दिल और दीमाग
आम और ख़ास
समाजी और जाती
और ना जाने
कितने नाम दे कर
जो लूट कर हुस्न इसका
बदल देता हैं इसे
महज़ दर्द के रिश्ते में...

अपनी पहचान खोज लो : विजया


ज़ुल्फ़ : विजया


ज़ुल्फ़
++++
हुआ करती थी
तुम्हारी भी ज़ुल्फ़ें गहरी सी
उस अनूठे मस्तक पर
सजग प्रहरी सी,
उन्नत भाल पर तब भी
विराजती थी यही चमक
स्वरों में होती थी यही गमक,
तुम्हें पाकर क़रीब
होती थी हृदय में यही धक धक
आज तेरा सन्यासी मस्तक
बता रहा है परिचय कौन हो तुम
मेरे बहुत से प्रश्नों पर
क्यों मौन हो तुम,
पागल प्रेमी तुम
आज भी मस्ताने  हो
हर शम्मा ज्यों सोचे
तुम उसके ही बस दीवाने हो
छलिये पर आता है
कभी प्यार कभी दुराव मुझको
लिए जाता है तुम तक सदा
तुम्हारा ही बहाव मुझ को.....

सुकून : विजया


सुकून
++++
खोजती रही थी
बाहर जब तक
उधार में मिलता था
सुकून मुझ को,
माँग लेता था वापस
अचानक कोई
या लौटा देना होता था
मुझ को ही उस क़र्ज़ को
एक मुश्त या किश्तों में,
.....और एक दिन
खोलकर रख दिया था
मैंने दिल को उसके सामने,
सिखा दिया था उसने
बो देना सुकून
मेरे अपने ही वजूद के खेत में
होशमंद होकर
देखते समझते हुए सराहत के संग
करते हुए तस्लीम हक़ीक़तों को
सींचा किया था मैंने
इस नायाब खेती को
मुस्बत नज़रिए के पानी से,
लहलहा रही है अब
हरी भरी फ़सल
और
जी रही हूँ मैं
एक पुरसुकूँ ज़िंदगी
साथ उसके....

सराहत=स्पष्टता, तस्लीम=स्वीकार, मुस्बत=प्रमाणित

तुम्हीं से शुरू हूँ : विजया


तुम्हीं से शुरू हूँ...
+++++++
तुम्हीं से शुरू हूँ
तुम्हीं से हूँ पूरी
तुम बिन ऐ सनम !
मैं कितनी हूँ अधूरी...

सुबह के उजाले हो
धूप तुम दोपहर की
शाम की हो लाली
रौनक़ हर पहर की...

तुम ने ही सीखाया
हर दर्श ज़िंदगी का
सलीक़ा दश्ते इम्काँ का
दवाम बंदगी का.....

मेरी धड़कने तुम्हारी
दिल के काशाना हो
परस्तिश के हो मौज़ू
मेरे काबा ओ बुतख़ाना हो...

एहसास नज़दीकियों का
ना वजूद से जुदा है
बादबान मेरी कश्ती का
तू ही तो नाख़ुदा है...

ना चुरा सकेगा कोई
मेरे प्यार का ख़ज़ाना
करेगा याद आलम
ये लाफ़ानी फसाना....

(दर्श=पाठ/सबक़, दश्ते ईमकाँ=जीवन, दवाम=स्थायित्व/permanence, बन्दगी=उपासना, काशाना=घर, परस्तिश=पूजा,मौज़ू=विषय/subject, क़ाबा/बुतख़ाना=पूजास्थल/मंदिर, बदबान=पाल, नाख़ुदा=नाविक, आलम=संसार, लाफ़ानी=अमर, फसाना=वृतांत)

मुझे कोई डोर खिंचे : विजया


मुझे कोई डोर खींचे
+++++++++++

रिश्तों को निबाहती हुई
देती रही थी मैं
शत प्रतिशत अपना...

कुछ पात्र अक्षम थे
कुछ थे स्वार्थपर
थे कई अबोध और विकासमान
कुछ तो मानो जन्मे ही थे
निर्भर होने को,
भरे पड़े हैं आज भी
घर परिवार, समाज, समूह और कार्यस्थल
ऐसे ही किरदारों से
थी कहीं कहीं मैं भी मोह के आधीन,
किंतु लगता था मुझे
करती हूँ और करती रहूँगी
मैं प्यार सब से....

कहते थे लोग
कितना कुछ करती हूँ मैं
सब के लिए
बाँध रखा है मैंने सब को एक डोर में
मैं भी तो जिये जा रही थी इसी भ्रम में....

कभी सोचती थी माला, मोती और धागों को
कभी पतंग और डोर को
कभी सोचती थी स्वयं को
सात घोड़ों की रासें पकड़े सूरज सा....

फ़िर शनै शनै होने लगा था मुझे एहसास
मैं तो हूँ केवल एक कठपुतली
जिसकी बहुत सी है डोरें
पकड़ायी हैं मैंने ही जिनको
कई एक अपनों के हाथों में
नचा रहे हैं मुझे जो
कभी अकेले कभी साथ साथ
करती हूँ मैं महसूस हर बार ज्यों
मुझे कोई डोर खींचे.....
मुझे कोई खींचे डोर से.....

अस्तित्व : विजया



अस्तित्व.....
+++++

जब भी उठाया था अचानक
तुम एकत्व की बातें करने वाले ने
अपने स्वयं के अस्तित्व का प्रश्न
मुझे भी ख़याल आया
क्या कोई ऐसी सी चीज़
मेरे लिए भी बची है कहीं ?

बना लिया था मैंने
एक मंच
अपने सोचों के
ऑडिटॉरियम में
और बैठ गयी थी सामने
एक मात्र दर्शक बन कर,
शुरू कर दिया था मैं ने
फिर से नये सिरे से देखना,
एक के बाद एक
जोड़े रहे थे स्टेज पर
और अदा करके चले जा रहे थे
नृत्य अस्तित्व का,
देख रही थी मैं
मौन का अस्तित्व है
होने से कोलाहल के
अमृत का अस्तित्व है
होने से हलाहल के
सुख का अस्तित्व है
होने से दुःख के
स्थिर का अस्तित्व है
होने से चलाचल के,
ऐसे ही और बहुत से जोड़े
आ जा रहे थे
साथ साथ किंतु अलग अलग...

सोच ने लगी थी फिर मैं
कोई तो है ऐसा अस्तित्व
जो देता हैं
बीज को अंकुरण
पत्तों को हरियाली
फूलों को ख़ुशबू
कलियों को मुस्कान
पवन को वेग
सूरज को गरमाहट
चाँद को ठंडक
जीवन को सांसें
प्रेमियों को प्रेम
नयनों को स्वप्न
संगीत को सुर
इसको यह
उसको वह,
मुझे हुई थी अनुभूति
तुम मुझ से अलग होते हुए भी
जुड़े हो मुझ से
समा कर मुझ में.....

मैं तो वहाँ होकर भी
वहाँ नहीं थी
निकल गयी थी
एक अंतहीन यात्रा पर
तलाशने अपने लापता
अस्तित्व को
जो कहीं बाहर नहीं
मुझ में ही विद्यमान था
समाप्त ना होने वाली
यात्रा बन कर,
भेद और अभेद
भ्रम है या वास्तविकता
मिल जायेंगे
इन प्रश्नों के उत्तर भी
इस यात्रा में
जहाँ पा रही हूँ हर पल
सहयात्री तुम को....

अग़ला शब्द : संगीत

मुझे बुलाता है कौन : विजया


मुझे बुलाता है कौन...
+++++++++++
दौड़ी चली आयी हूँ मैं
सुन कर सदा तेरी सदा
ना जाने किस घड़ी से तू
सोचता मुझ को जुदा....

सुनती रही हूँ रात दिन
धड़कन तेरे कल्ब की
होकर क़रीब भी दूर तू
मेरी क़िस्मत में बदा....

अँधेरा मेरी नज़र का
क्या तुम बिन दूर हो सके
लड़खड़ा कर गिर गयी
होकर कैसी ग़मज़दा...

उदासियाँ घेरे मुझे
सिंगार फीके पड़ गए
तुम बिन सूना है जहाँ
मोहताज मेरी हर अदा...

मुझे बुलाता है कौन
पूछती हूँ ख़ुद से मैं
जवाब देने आजा तू
मुंतज़िर है मेरा मैकदा...

सदा=हमेशा, सदा=आवाज़, कल्ब=हृदय, मैकदा=मधुशाला, मुन्तज़िर=प्रतीक्षा/इंतज़ार में,
ग़मज़दा=दुखी

निकली हूँ दीपक लेकर : विजया



निकली हूँ दीपक लेकर....
+++++++++++

साथी बन हिम्मत की परछाईं देगा
मुझको अपनी कौन कलाई देगा...

निकली हूँ दीपक लेकर तूफ़ानों में
आम ख़ास हर शख़्स दुहाई देगा...

प्रकाश पहुँच गया अंतरमन तक
तिमिर में हर भेद दिखाई देगा....

धड़का दिल पीले पत्तों का
सन्नाटे में शोर सुनाई देगा.....

आज मेरे इस स्वच्छ दर्पण में
अपना हर एक रूप दिखाई देगा....

उठ गया मेरा एक प्रश्न भी
मुझ को कैसे आज सफ़ाई देगा...

पिटे हुए जुआरी बन के हार रहे हो
बना रहेगा क़र्ज़ कौन भरपाई देगा...

शक्ति पीठ : विजया

शब्द सृजन
*********
(पहचान-14 नव '18)

शक्ति पीठ....
++++++
हमारा भारत देश महान
करे हम इसकी कुछ पहचान
भ्रम विभ्रम मिटे और गूंजे
भारत देश महान......
हमारा भारत देश महान....

प्रजापति दक्ष प्रासाद में
उपनी देवी तनुजा हो कर
शिव से हुआ विवाह अलौकिक
मां रही रुद्र ऊर्जा हो कर....

कनखल में दक्ष नृप आयोजित
वृहस्पति यज्ञ अनूठा था
ब्रह्मा विष्णु इंद्र सुर आमंत्रित
जमाता उपेक्षित रूठा था...

नारद कौतुकी मुनि चपल ने
सती को यूं भड़काया था
नहीं निमंत्रित त्व पति देवी
संवाद यही सरकाया था.....

उसी सांस में बोले नारद
पितृगृह जाओ तुम, हे देवी !
नैहर में संकोच काहे का
अपना ही घर तो होता देवी !

शिव ने मना किया देवी को
प्रजापति पुर को जाने को
हठी भार्या कांत अति भोले
रहे विफल उसे मनाने को....

यज्ञ स्थल पर सती ने
पूछा तात से प्रश्न विशेष
किंतु दम्भी दक्ष अभिमानी
बोला अनेक अपशब्द अशेष....

आहत आवेशित सती ने स्वयं को
यज्ञाग्नि अर्पित कर डाला था
सुन संवाद शिव शम्भु ने
वध दक्ष आदेशित कर डाला था....

काटा मस्तक वीरभद्र ने
भूपति दक्ष प्रजापति का
पहुँचे शिव गणों सहित
करने प्रतिकार अति अति का...

शिव कोप से भयातुर हो
पलायन ऋषि सुरों का घटित हुआ
सती का शव कंधे पर उठा
शिव तांडव तीव्र प्रस्फुटित हुआ....

त्रिलोकी थी कम्पित
रुद्र रौद्र रूप तांडव के स्वर
व्याकुल देवों के अनुनय पर
आये विष्णु बचाने चक्र को धर...

अंग प्रत्यंग खंडित देवी के
चक्र सुदर्शन सक्रिय हुआ
गिरे जहं अंग वस्त्र आभूषण
शक्ति पीठ वहीं उदय हुआ....

उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम
सब दिशि शक्ति का वास हुआ
चिर काल अवस्थित तथ्य सत्य
वृहतर भारत का आभास हुआ....

एक हिंगलाज पाक में पूजी जाती
किरीट काली इकतालीस भारत में
चार बांग्ला और तीन नेपाल में
एक एक लंका तिब्बत में....

शिव बन भैरव साथ रहे
इक्यावन पीठ अति सुंदर
वत्सल मां कहती समझो रे
झांको तनिक स्वयं अंदर....

खींचा नक्शा यह गोरों ने
भारत मां की यह शान नहीं
संस्कृति हमारी अक्षुण्ण है
अपनी सच्ची पहचान वही....

(वृहत्तर भारत की सांस्कृतिक एकात्मकता का अनुभव करना है तो शक्तिपीठों, ज्योतिर्लिंगों, शंकरपीठों, पर्वतों,नदियों और पुरियों के दर्शन को आत्मसात करके देखना होगा...यह रचना उसी प्रोसेस का एक इंगित मात्र है.)