Monday 17 December 2018

आख़िर हैं ना सिपाही हम,,,,


शब्द सृजन
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(इज़हार)

आख़िर हैं ना सिपाही हम सब,,,,
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"नामालूम कितने दफ़ा
बचाये रखा है ख़ुद को मैंने
बिन बताए किसी और को"

करता  हूँ महसूस इतना गहरा
किसी के इस इज़हार को
दगते रहते हैं जिस से ये अल्फ़ाज़
मेरे जिस्म की हरेक नस से,,,,

सोचता हूँ बार बार
हम में से ना जाने कितनों ने
किया होगा महसूस
कुछ ऐसा ही,,,,

ना जाने कितनी रातों
लड़ते रहे हैं हम
ख़ुदकुशी के सोचों से
काट डालने के आवेग से
रेचन की उत्कट अभिलाषा से
भाग जाने की प्रवृति से
छुप जाने की ललक से
अकेले ही
क्योंकि भयभीत हैं हम
हमारे ही 'अपनों'की परेशानी से,,,

ना जाने कितने ही
दिन और रात
रहे हैं हम प्रताड़ित
हो कर कैद
अपने ही अंधेरों में,,,,,

लड़ा करते हैं हम जैसे लोग
ऐसे समर
नहीं ले पाता है कोई भी
थाह जिनकी
नहीं देख पाता कोई भी
इन लड़ाइयों को,
सच तो यह भी है
हम भी तो नहीं करते
ज़ाहिर इसको
सामने किसी के भी,,,

लड़ा हूँ मैं ख़ुद भी
बचाया है मैंने ख़ुद को भी
बहुत सी लम्बी रातों में
बिलकुल अकेले,
हुआ करती थी
ऐसी भी रातें
जब हार जाता था मैं
खुद अपनी ही जंग में
मगर उठता था फिर से
जीने को ,लड़ने को
किसी ना किसी तरह,,,,,

अनुमान है मुझ को
कैसे रखते हैं हम
चलायमान स्वयं को
क्योंकि जितनी बार भी
होते हैं रणछोड़ हम
उभर आते हैं
और अधिक सबल होकर,,,,

भिड़ते रहते हैं
स्वयं के सोचों से,
कमजोरियों से,
हम सब
हराते भी रहते हैं ख़ुद को
उस आख़िरी मक़ाम तक
जब तक नहीं हो जाते माहिर
ख़ुद को बचाये रखने के लिये
ख़ुद को बनाये रखने के लिये,
आख़िर है ना सिपाही हम सब,,,,

"नामालूम कितनी दफ़ा
बचाये रखा है ख़ुद को मैंने
बिन बताए किसी और को...."

आज इस रात,
बता पा रहा हूँ सब कुछ तुम को,,,,
बचाया है मैं ने ख़ुद को,
तुम भी तो हो यहीं
पढ़ रहे हो मेरे इस बयां को
क्योंकि बचाया है
तुम ने भी तो ख़ुद को,
आसान नहीं है ना
ज़िंदा रख पाना ख़ुद को,,,,

फ़ख़्र हैं मुझे तुम्हारी बहादुरी पर,,,,,


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