Monday, 3 December 2018

साथ यहीं-अभी : विजया



साथ यहीं-अभी....
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नज़र के सामने हो, फिर भी
आँखों से ओझल लगते हो
हो तुम साथ यहीं-अभी
बीते पल से क्यों लगते हो....

मंदिर के परिसर में क्यों
ख़ुद देव तुल्य ही दिखते हो
मूरत ज्यों तुम को देख रही
ध्यानी अचल से लगते हो...

चंचल बन क्रीड़ा करते हो
कभी मौन गहन तुम धरते हो
कभी दिखते सागर ठहरे से
कभी बहते जल से लगते हो....

तेरे इन सारे रूपों में
नन्हे मासूम से दिखते हो
जिस साँचे में मैं चाहती हूँ
बेझिझक उसी में ढलते हो....

छलिया मायावी तुम कितने
भ्रम सदा बनाये रखते हो
जिस जिस से जुड़ जाते हो
ख़ुद को अटकाये रखते हो....

पीड़ा ख़ुद की पीकर तुम
सब घाव सहलाते रहते हो
समझ सकूँ कैसे तुम को
कठिन सबक़ से लगते हो...

सहज हो तुम इतने प्रीतम
ख़ुद ही सोच ना पाती हूँ
जटिल भी हो उतने ही
समझ नहीं कभी पाती हूँ ....

जो भी हो तुम मेरे हो
नज़रों में समाये रहते हो
मन मन्दिर अपने में साजन
तुम मुझे बसाये रखते हो....

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