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(ख़यालों का सफ़र)
मेरी रूह,,,,,
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कह दिया था उसको मैंने,
मेरी रूह है
एक अगाध कुआँ ,
जहाँ रहते हैं ख़याल
पेचीदे से
फलती फूलती है
बुरी बुरी बातें
जैसे कि विचार
उत्पीड़न के
पीड़ा के
स्वामित्व के
स्वार्थ के
प्रतिशोध के
सिर्फ़ लेने के....
बताया था उसको
ऐसे ऐसे ख़यालों के बारे में
पगला दे जो
सामान्य मानव को,,,,,
बोली थी वो
मापनी है मुझे तो
गहराई इस कुँए की,,,,
नहीं घबरायी थी वो
सुनकर,
चल कर देख लो
इस कसे हुए रस्से पर
नटनी की तरह
पंजों के बल
कुंऐ के आर पार,
हाँ गिर पड़ी अगर तो
पाओगी और कुछ नहीं
सिवा इन सब ख़यालों के,,,,
हाँ कहा था यह भी मैंने
उसी साँस में,
नहीं मानती तुम तो
लगाओ ना छलाँग
कर लो महसूस
गिरने के आतंक को
जो होगा महसूस
पीठ पर उबलते हुए पानी की जलन सा
सोच लो
नहीं है दिल मेरा सोने जैसा,,,,
दी थी चेतावनी उसको,
यह रूह मेरी है आग की तरह
हिंसक और ऊष्ण
और मैं हूँ एक अधूरा इंसान
जो सींवन पर
करता है महसूस
फटा हुआ,
खोपड़ी जिसकी भरी है
बुरे बुरे सपनों से
परित्यक्त सोचों और अचम्भों से
जो नहीं स्वीकारती किसी को भी
जो दिल को दिल से प्यार करे,,,,,
साफ़ किया था उसको,
चूँकि तुम हो यहाँ
तुम को मज़े तो नहीं होंगे
मगर मैं ले आऊँगा ज़रूर
मुस्कान तुम्हारे अधरों पर...
हँसा भी दूँगा
उन सब बातों के लिए
डरती हो तुम
जिनका सामना करने में,
वैसे मेरी आत्मा है
एक हतोत्साहित करने वाली जगह !
और ना जाने क्या सोच कर
कूद पड़ी थी वो अचानक,
डूब गयी थी कुँए में
तैरना तक भूल कर,,,,,,
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