अंधेरे उजाले
#######
कितने अंधेरे हैं ये
बाहर के उजाले,
चकाचौंध में जिनकी
बन्द हो जाती हैं आँखें
मैं लगता हूँ खोजने उनमें
इन्हीं बंद आँखों से
वही सब कुछ
जो मेरे अवचेतन के किसी कोने में
बसे हैं
बार बार नज़रसानी के बावजूद भी,,,,,
भीतर के उजालों में
खुली आँखों से
देखते ,जानते ,समझते हुए भी
नहीं निकाल बाहर करता मैं
उन सबको जो बेमानी से हैं,,,,,
सजा देता हूँ फिर से
निरख कर
महसूस कर
करीने से पोंछ कर उनको
अपने वजूद के छोटे से कोने में,
जहाँ मिलता है अंधेरे से उजाला
देते हुये पहचान समग्रता की
भेद और विभेद के परे,,,,,
शायद यही तो है 'इंसान' होना
शायद यही है 'भगवान' ना होना,,,,
No comments:
Post a Comment