सुलगते उलाहने,,,,
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खुले हैं आज
बरसों से दराजों में बन्द
दस्तावेज़....
छोड़ा था जिस दिन
तुम ने मुझको
छोड़ दिया था मैं ने भी तुम को,
फिर भी ना जाने क्यों
बार बार सुन रहा था तुम को
यह कहते हुए
लौट आना चाहिए मुझ को
फिर से तुम्हारे पास,
करना चाहिए मुझे भरोसा तुम्हारा
नहीं करता मैं अगर ऐसा
तो कहा जाता यही ना
रचा बसा है अहम मुझमें
हाँ यह बात जुदा है कि
तुम्हीं ने तो जगाया था
उस शैतान को मुझ में,,,,
घुस गया था मेरे दिलोज़ेहन में
वो शैतान ऐसा
थोपते हुए अपने इरादों को मुझ पर
करते हुए दूषित मेरी अच्छाइयों को
मेरी उन सारी अच्छाईयों को
जो रख छोड़ी थी सर्वोपरि मैंने
तुम्हारे मेरे प्रेम की ख़ातिर,
लगा था नोंचने जैसे ही वो
मेरे पंखों को
लगा दिया था तुम ने
महिमामण्डन का घेरा
इर्दगिर्द मेरे
ताकि बना रहे सबब
मेरी बुराइयों को लगातार
याद दिलाते रहने का,
नोंच डाले थे उसने मेरे पंख सारे
तब तक बन गया था ताक़त
मेरे उड़ने की खुशफहमियों की
निरंतर मेरे अहम को पोषना तुम्हारा,,,,,
नहीं जानता मैं सचमुच अब
कैसे करूँ दिल से मुआफ़ तुम्हें
नहीं जानता मैं यह भी कि
कर सकूँगा ऐसा या नहीं,
नहीं हो ना तुम
मेरी मोहब्बत से परे
किसी भी कलंक से ऊपर
दूर मेरे उलाहनों से,
ज़ायज है मेरा ग़ुस्सा भी
वाजिब है मेरी कोफ़्त भी
लाज़िमी है मेरा दुखी होना भी
सच बात तो यह है
मुझे ख़ुद को
उस अहम के पिशाच से
आज़ाद करने के लिए
होना होगा आज़ाद
तुम्हारे ख़यालों से,
भुलाकर सारे उलाहने
शिकवे और शिकायतें
जो रख छोड़े हैं सुलगते से मैंने
तब से तुम्हारे लिए,,,,
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