Monday 19 September 2022

जुगाड़पंथी

 जुगाड़पंथी...

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जुगाड़पंथी को नाम

दिली मोहब्बत का दे दिया 

फ़ितरत ए खुद-पसंदी को सहारा 

दीन ओ रूहानियत की 

बैसाखियों का दे दिया...


एक दौर में सीखे 

नज़्म ग़ज़ल ओ डायलोग 

किए जाते हैं इस्तेमाल

अगले तआलुक्कों में,

दौरे थंडर, राफ़ेल ओ सुखोई में 

ज़ल्वा ए मिग को 

बरपा करा दिया...


दौर ए डिजिटल में 

मुताबादिलात दस्तयाब है बहोत, 

बदलते साथी प्रोग्राम को 

मिज़ाज ओ तवियत बना लिया...


अहसासे कमतरी ओ अना का 

रिश्ता है चोली दामन का,

बांध के पट्टी आँखों पे 

खुद को अंधा बना लिया....


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Meanings :

फ़ितरत=स्वभाव 

खुदपसंदी=आत्म मुग्धता

दीन=धर्म 

रूहानियत=spirituality/आध्यात्म 

मुताबादिल=विकल्प

दस्तयाब=हस्तगत याने available

बरपा=उपस्थित 

ज़ल्वा=तड़क भड़क

अहसासे कमतरी=हीन भावना 

अना=अहंकार/Ego

जो अंदर वो बाहर : विजया



जो अंदर वो बाहर 

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🔸प्रकृति और प्रेम जैसे पर्यायवाची हैं. 


🔹दोनों ही "जस के तस" देखने, स्वीकारने और जीने की बातें.


🔸जीवन के छोटे छोटे सामान्य प्रसंगों को हम सहज सजगता से आत्मसात् कर पाएँ तो  धर्म, धार्मिकता, नैतिकता, आध्यात्म इत्यादि के घोर घुमावदार प्रस्तुतीकरण की व्यर्थता समझ आ सकती है.


🔹नन्हे नन्हे कोमल हाथ जब स्पर्श करते हैं तो हमारे अपने वजूद का पूरा प्रेम जैसे रौं रौं में प्रस्फुटित हो उठता है. 


🔸बालक मन जो चाहता है वही कर गुजरता है, कुछ ऐसा नहीं होता बहुतांश में जो किसी और या स्वयं के लिए ख़तरा हो. छोटी छोटी मासूम शैतानियाँ जो खुली कल्पनाओं से उपजी होती है. जो अंदर वह बाहर, कोई लीपा पोती नहीं.....और अंदर भी स्फटिक सा स्वच्छ क्योंकि कोई परिभाषित और अनुकूलित विकृति का हावी होना नहीं.


🔹इसी चित्र को लें, बालक परी रूप धारण कर मां की घुड़सवारी कर रहा है जैसे dominate कर रहा है लेकिन डॉमिनेशन के वाइब्स नहीं है, फूल-छड़ी से मारने का उपक्रम कर रहा है हिंसा के वाइब्स नहीं है. मां के केश पकड़ कर खिंच रहा है, प्रेम और वात्सल्य से भरपूर माँ की मुखमुद्रा पर आनंद के भाव है और पूरी देह में सहज कोमल्य. प्रकृति की उत्फुल्ल और गरिममयी उपस्थिति स्पंदनों में और अधिक खिलावट ला रही है. इस विवरण को ध्यान में रखते हुए ज़रा चित्र का एक बार अवलोकन किया जाय.😊


🔸देख रहे हैं कि भारी भरकम शब्द और युक्तियाँ मिलकर हमारी नैसर्गिक यात्रा को जटिल बना देते हैं. चर्चा परिचर्चा के नाम अधिकांशतः बुद्धि-विलास होता है. आत्ममुग्धतायें और हीन भावनाएँ मिल बैठती है, छद्म गुरुबाज़ी का इतना बोलबोला हो जाता है कि असली मक़सद बैक सीट ले लेता है...बोले और लिखे करोड़ों शब्द लगातार उपद्रव करते रहते हैं. हाँ, चालाक बुद्धि इन सब को जस्टिफ़ाई कर ही देती है.


🔹इस चित्र से क्यों ना हम एक सरल सा संदेश लें....अपनी मनस्थिति को बाल-सुलभ या मातृ-सुलभ बना कर देखें और चीजों को विषम ना बनाएँ.

अनुभूतियां स्वतः ही आगे का मार्ग प्रशस्त करने लगेगी.

आचार ए इश्क़....



आचार ए इश्क़...

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ये बोझे 

जो बड़े खूबसूरत लगते हैं 

परी चेहरा लिए 

हाथ में पंख 

और चेहरे पे शोख़ियाँ बिखरे

बड़े ज़ालिम और संगदिल होते हैं...


ये किरदार...

रूह की बदसूरती को 

ढाँपे जिस्मानी अदायें 

चाबुक से लम्स

जो ना जाने कब 

खून आलूदा कर डालते हैं 

पहुँचा कर चोटें 

पूरे वजूद को...


बड़ा लुत्फ़ आता है 

शुरुआती दौरों में 

महबूब की बाँकी अदाओं संग 

इश्किया लफ़्फ़ाज़ी को सुनकर 

जो "Mixed Pickle" की तरह 

ज़ुबान को ज़ायक़ा देता है 

मगर पूरे निज़ाम का 

बेड़ा गर्क़ कर देता है...


आम, गाजर, अदरक,

नीबू, मिर्च, लहसुन की तरह ही 

दोनों जहां की ज़िंदगानी

जनम जनम का साथ 

एक दूजे में सोचों के एक से अक्स 

क़समें, वादे, अहद 

सीरीं ज़ुबान और अल्फ़ाज़े शहद 

इंतज़ार और दीदार का बेआख़री क़सीदे

पुराने राब्ते तआल्लुक़ नदीदे 

बायलोज़ी, सायकॉलोज़ी, फ़िलासफ़ी और 

शायरी के तेल में डलते है...


वही आचार ना जाने कितनी टेबलों पर 

मर्तबान बदल बदल कर सजता है 

कभी सची मोहब्बत

तो कभी रोमांच भरा आग़ोश 

कभी बुझना बरसों की प्यास का 

कभी नई प्यास का जनम

नए नए चटखारे 

बेहद फूले अना के ग़ुब्बारे...


Bonus Lines :


मयखाने की जुबां में कहूँ ग़र तो 

बार बार "ओल्ड वाइन इन अ न्यू बोटल"

नया चहकना, नया महकना 

नयी क़िस्म का लड़खड़ाना 

पुराने ढर्रे का सम्भाल लेना 

नया साक़ी, नए पैमाने, नयी महफ़िल

नयी कश्ती, नया मल्लाह, नया साहिल...