Sunday 29 March 2015

जीवनांशी : विजया

जीवनांशी 
+ + + + +
(अंशी शब्द के दो अर्थ है--पहला है 'भागीदार'और दूसरा है 'सम्पूर्ण'/'सामर्थ्यवान' रचना के प्रथम बन्ध में 'अंशी' के लिए क्रमशः इन्ही अर्थों का प्रयोग है) 

+ + + + +
'अंशी' नहीं होना है 
मुझको 
मेरी आकांक्षा 
'अंशी' होना,
फिर क्यूँ 
मात्र काव्यांशी होना
कैसा पाना 
कैसा खोना 
कैसा हँसना 
कैसा रोना,
नव रस हो कर 
व्याप्त तुम्हारे 
जीवन में 
होना चाहती हूँ, 
तेरे सृजन सरित-प्रवाह में 
सुनीर सदृश 
बहना चाहती हूँ,
आधि व्याधि उपाधि 
प्रतिपल 
संग तेरे 
रहना चाहती हूँ,
स्व तन मन से, 
प्रियतम मेरे
जीवनांशी 
होना चाहती हूँ..
वो लखना तेरा 
गहन कनखी से 
खोना मेरा 
चपल स्वपन में, 
अकारण ही 
हँसना मुस्काना 
रातों जगना
नींद गंवाना, 
बालिश लिपटाये
तुम्हे सोचना
श्वास श्वास 
तुम्हे भर लेना,
बन भोर का तारा*
मुझ से मिलने 
चुपके से 
तेरा आ जाना, 
प्रियतम ! 
वो ही दृश्य मनोरम 
आज पुनः 
जीना चाहती हूँ,
तेरे सुखद आलिंगन में ; 
तदनंतर 
बेसुध हो 
सोना चाहती हूँ..
स्व तन मन से, 
प्रियतम मेरे 
जीवनांशी 
होना चाहती हूँ..
*शुक्र
अगला शब्द : बेसुध
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सृजन में नव रस का समावेश होता है.. भावाभिव्यक्ति के आयाम होते हैं ये नवरस : श्रृंगार,हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत एवम शांत. वात्सल्य और भक्ति को भी क्रमशः दसवे और ग्यारहवें रस के रूप में माना गया है. मैंने श्रृंगार, जिसका भाव रति होता है, का प्रयोग इस रचना में किया है. जो बाकी रस हैं उन्हें भी आशु कविताओं के साथ दिये हुए शब्दों का प्रयोग करते हुए और इसी पैटर्न में ढालते हुए, आप और मैं कोई भी समय समय पर प्रस्तुति कर सकते हैं, मेरा विनम्र सुझाव है.
रस और भाव की तालिका संलग्न है.)
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रस का प्रकार/ स्थायी भाव
1.श्रृंगार रस/ रति
2.हास्य रस/ हास
3.करुण रस/ शोक
4.रौद्र रस/ क्रोध
5.वीर रस/ उत्साह
6.भयानक रस/ भय
7.वीभत्स रस/ घृणा, जुगुप्सा
8.अद्भुत रस/ आश्चर्य
9.शांत रस/ निर्वेद
वात्सल्य रस को दसवाँ एवं भक्ति को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। वत्सल तथा भक्ति इनके स्थायी भाव हैं।

वीनस

वीनस 
# # # # 
सुना है 
तेरे गाँव में बारिश हो रही है 
और 
तू भीग कर 
फिर से 'वीनस' हो गयी है, 
फागुन के एहसास 
वक़्त के मोहताज़ नहीं होते ना 
जब चाहे चले आते हैं 
सोये दिल में जगाने वो अरमान 
इब्दिता और आखिर जिनका 
हुआ करता था तेरी छुअन से ही,
बारिश के आसार यहाँ भी है 
मगर मेरे शहर की नमी 
आज सुकूँ से कहीं ज्यादा 
घुटन बरपा कर रही है 
देखो ना !
एक से मौसम भी 
कितना जुदा हो जाते हैं,
तुझ को छूकर आई झीनी सी हवा 
आज क्यों नहीं बन पा रही
"सुखद सुमधुर समीर'
जो हुआ करता था उन्वान
मेरी-तेरी एक सांझा नज़्म का.... 

(इब्दिता=आरम्भ, आखीर=समापन 
वीनस =एक रोमन देवी जो प्रतीक है प्रेम, सौन्दर्य, यौन, उर्वरता,समृद्धि और कामना की. 
बरपा =उपस्थित, उन्वान=शीर्षक, नज़्म=कविता)

Tuesday 24 March 2015

किस्सा स्वामी आनंद सवाली उर्फ़ भूतपूर्व मवाली का..

किस्सा स्वामी आनंद सवाली उर्फ़ भूतपूर्व मवाली का..
###########
सुना था
उस दिन दरवाजे पे आया था
एक सवाली,
फटी हुई कथरी थी
झोली थी उसकी खाली
अल्लाह हू
अल्लाह हू की
रट लगा रहा था
तस्बीह के मणकों को
जोरों घुमा रहा था,
सुन कर आवाज़ उसकी
चली आई थी
एक घरवाली
बोली ऐ अवांछित निख्खटू !
तुझ सा एक
इस घर में भी
पलता है
मेडिटेशन करते करते
अजीब सा मचलता है
जमीन के सवालों पे
जवाब आसमां के उगलता है
जब से पड़ा है
दाढ़ीवाले के फेर में
लाख टालने पे भी
ना टलता है,
स्वामियों से कम
माँओं से जियादह मिलता है
कोई मिल जाए सुनने वाला
फूल बेमौसमी सा खिलता है,
जो कहता है
शायद खुद भी ना समझता है
फिर भी ना जाने क्यों
दिन रात
दोपहर शाम
बकता झकता है...
तस्बीह=जप माला

दामन : विजया

दामन 
+ + +
क्या संभालेगा वो 
सौगातें 
जिसके दामन में 
छेद है,
कैसे लेगा वो
खुली साँसे
जो खुद
खुद में ही
कैद है,
कहने को
बड़ी बातें
खेले वो
शह और मातें,
मोहब्बत को वो
क्या जाने
जिसकी नीयत में
भेद है...

गायें हम तो राग मल्हार

गायें हम तो राग मल्हार 
# # # # # 

कैसी जीत और कैसी हार 
गायें हम तो राग मल्हार.

भीख मांग कर बचपन बीता 
सीख मांग जवानी
हुए अधेड़ तो लग गया यारों 
शेष है अपनी कहानी 
सब कुछ करने को तैयार
गायें हम तो राग मल्हार....

शुक्र प्रभु का जय अल्ला की 
इन्टरनेट जब आई 
हमने अपनी प्रोफाइल पर 
गबरू स्नेप लगाई 
हुई अपनी भी आँखें चार 
गायें हम तो राग मल्हार....

खुशनुमा हुआ बुढ़ापा अपना 
रिमझिम बरसा पानी 
लौटा यौवन हो गए चंचल 
फिरी अपनी रवानी 
हुये मिलन मिटे इंतज़ार 
गायें हम तो राग मल्हार....

लच्छेदार लफ्फाजी बुन कर 
बातें खूब बनाये 
मिल जाये कोई ओंन लाईन तो 
बुढऊ यूँ इतराए 
कर देंगे ज्यूँ आरमपार 
गायें हम तो राग मल्हार....

भेद खुला तो बंच गए पोथे 
हुई बहुत भद्दाई 
केटी नाम धरा जालिम ने 
निकली बुढिया माई 
हँसे कि रोयें जारम जार 
गायें हम तो राग मल्हार...

साथ तेरा : विजया

साथ तेरा
+ + + +
सरल विषम का भेद था
मुझको
अपरिचित और अनजाना, 
साथ तेरा पाकर के
साजन
अर्थ जीवन का जाना,
तुम ने मुझे
सिखाया प्रीतम
जगना और अपनाना,
सहज हो गया
जीना मेरा
स्वप्न साकार सुहाना,
अपना जीवन
जीकर भी मैं
पूर्ण समर्पित तुझ को
मेरा सर्व
समाहित तुझ में
और ना वांछा मुझ को,
भावों में तुम
बोलों में तुम
तुम ही
नयन समाये
नाम तुम्हारा
पल छिन मेरे
रोम रोम सरसाये,
मापदंड कुछ
भिन्न तुम्हारे
पृथक मेरी परिभाषा
सत्य सदैव जयी होता है
व्यर्थ विवाद की भाषा,
कितने रूप तुम्हारे
प्रीतम
व्याकुल मैं हो जाऊं
निकट तुझे पाकर
मैं आश्वस्त
मन ही मन मुस्काऊं...
अगला शब्द : व्याकुल

Sunday 22 March 2015

ख्वाहिशें

ख्वाहिशें
# # # #
थी ख्वाहिशे के
बुलबुल
लेकर आये
बुशारत कोई,
वो मेरा
बुग्ज़ था के
बुहरान,
लगने लगा था
बुहतान
जो कुछ
गुनगुना दिया
उसने..

(बुशारत=शुभ समाचार, बुग्ज़=द्वेष, बुहरान=बीमारी में होने वाले आकस्मिक परिवर्तन, बु्हतान=आरोप.)

उन्माद : विजया

उन्माद
+ + + + +
नस्ल
जाति
मज़हब
और
सोचों के
नाम
कब तक बहाओगे
लहू बेगुनाहों का,
अधपढ़े हो तुम
जाहिल भी हो
या हो
खुदगर्ज़
तंग ज़ेहन
संग दिल,
हल मुश्किलों का
होश में है
जूनून
और
उन्माद में नहीं..

बेहिस तन्हाई

बेहिस तन्हाई 
# # # 
थोपी हुई 
खुद पर  
बेहिस 
वो तन्हाई थी,
मुझको नहीं 
उसको लगा 
वो बेवफाई थी.

गुजरी थी 
वो शोख 
जब जब भी 
किनारों से 
देखा समन्दर को 
तो 
मेरी याद आई थी. 

मिलना हमारा 
और 
घड़ियों 
साथ रहना वो, 
सितारों ने उसे 
फिर से वो बातें 
कह सुनाई थी .

हवाओं ने 
हर्फो अलफ़ाज़ को 
कुछ यूँ बिखेरा था 
जले ख़ुतूत में 
फिर से वो साँसे  
भर भर आई थी. 

हर राह से 
निकली
वो अपना 
सर उठा कर के,
सनद वादों की 
आँचल में 
अचानक 
भर जो आई थी..

चुपचाप बैठा 
मैं 
उसे 
मन में बुलाता था 
उसी आवाज़ को 
सुन सुन 
आज वो 
लौट आई थी.

(बेहिस=गाफिल, senseless, चेतनाशून्य, benumbed)

Thursday 19 March 2015

जीवन : विजया

 जीवन 
+ + + +
ना जाने क्यों 

च्युत हो जाती 
सोची समझी भाषा 
जब जब हम 
लिखने लगते हैं 
जीवन की परिभाषा,
साँसों को 
गिनते रहना 
काम नहीं 
जीवन का, 
मात्र निहारना 
भरे जाम को 
नाम नहीं 
पीवन का,
सहज सजग मानव 
सर्वदा
हर क्षण को 
जीया करता है 
पल प्रतिपल 
प्रभु प्रदत वो 
सुधा पीया करता है, 
कृत्यों को 
संगत जतलाने 
प्रयास 
निरंतर होते हैं, 
मिथ्या वाक् प्रवाक 
क्रिया में 
मत मतान्तर होते हैं, 
जीवन है 
एक सुमन सुहाना 
महक सदा लेते रहना 
व्यर्थ विश्लेषण 
करते करते 
नोंच उसे तुम ना लेना,
समग्र स्वीकृति 'होने' की 
है मन्त्र अमोघ
जीवन का 
सजग वृति से ही तो 
संभव
रक्षण इस उपवन का...

बुलबुल : विजया

बुलबुल
+ + + +
गुलशन में
खिज़ा आई,
बुलबुल
बेहोश हो गयी,
बहारां आई
गुल हुए गुंचे
महक फूटी,
मदहोश हो गयी,
चला आया
सैय्याद
लिये कफस
सोने का,
हुई असीर उसमें,
बेलोस हो गयी..
(असीर : कैदी, बेलोस : निष्कलंक, कफस : पिंजरा)

बेबसी

बेबसी 
# # #
आलम बेबसी का 
हुआ कुछ ऐसा
मंजिल सामने 
मगर पाँव हैं कि 
बढ़ते नहीं, 
जनाजा ख्वाहिशों का 
छूने को बेताब कंधे 
मर्सिया मौत का मगर 
शेखजी 
पढ़ते नहीं,
लड़खड़ायें हैं कदम 
बिन पिये यारों 
मैखाने के रिंद 
खुद ब खुद 
सँभलते नहीं,
जुलुम जी चाहा
किया करे कोई 
महल चाहतों के 
कभी 
ढहते नहीं, 
सींचे कोई 
कितना ही क्यों
खिज़ा के चमन में 
गुल ओ बुलबुल
कभी 
खिलते नहीं...

Sunday 15 March 2015

कैसा यह द्वन्द है..

कैसा यह द्वन्द है..
# # # # # 
परवश या स्वछन्द है 
कैसा यह द्वन्द है 
१)
कैदी रहता अन्दर
जेलर रहता बाहर
दोनों सधे सधे से है
दोनों बंधे बंधे से है
दण्डित और दंडपाल का
विचित्र यह प्रबंध है
कैसा यह द्वन्द है...
२)
सी-बीच का नज़ारा
संग मालिक टॉमी प्यारा
हाथ साहेब के डोर है
जित भागे टॉमी
साहेब भी तित ओर है
मालिक घुमाए कुत्ता
कि कुत्ता टहलाये साहेब ?
सवाल यह चौबंद है
कैसा यह द्वन्द है..
३)
बाजार मिलल रहे कलुआ
पूछन लागै ठलुआ
कहाँ जावत हो बबुआ
आटा पिसावन भऊआ
आटा पीसै कि गेंहुआ ?
अकिल हमार तनि मंद है
कैसा यह द्वन्द है..
४)
अवलोकन करेंगे मित्र
देकर शब्दों को चित्र
कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा
कुनबा भानुमती ने जोड़ा
आशु कविता किन्ही
ज्यों की त्यों धर दीन्ही
नहीं मात्रा है ना छंद है
कैसा यह द्वन्द है..

चेतन

चेतन 
# # # #
समेट कर 

शब्दों 
विवरणों 
और 
भोंडे अभिनय में, 
छद्म प्रदर्शन 
'चेतन' होने का 
हो गया है फैशन 
आज का..

करते हुए 
नामोच्चारण 
'अवेयरनेस' 
'विटनेस' 
'मैडिटेशन' का, 
'तंत्रा' की आड़ में 
पहुँच जाते हैं 
ये तथाकथित 
ध्यानी और चेतन 
मात्र जीने
देह का 
संकीर्ण दर्शन 
जो छुपा होता है 
अवचेतन में...

समग्र सहजता 
मन और तन की 
होती है उदित 
जब फिर से, 
हो पाती है घटित 
'चेतना और स्वीकृति' :
एक मौलिक सत्व, 
ना कि कोई 
सस्ती अनुकृति..