Friday 29 March 2019

खेल रिश्तों के : विजया


खेल रिश्तों के.....
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दिखाये हैं खेल कई रिश्तों ने
हर लम्हे जाने और अनजाने में
कभी मय में रहे शीशे
कभी शराब थी पैमाने में....

कभी खुरची थी हम ने परतें
कभी लोग ख़ुद ब ख़ुद नंगे हो गए
उतर गए थे सारे पैरहन औ गहने
अचानक ज़िन्दगी में जब पंगे हो गए....

देखी थी शातिरी छुपी सी नादानी में
बनी थी अलहड़ता पर्दा काइयाँपन का
खिलाड़ी बन खेले हम अनाड़ी जब
अक्स होशियारी में दिखा था भोलेपन का....

चालाकी से हुआ सामना जब बेवक़ूफ़ी का
बावरापन हुआ था मुख़ातिब, हो कर एक दीवाना
जली थी शम्मा शातिरी की उस शाम यारों
जला ना था मगर लौ में हो कर कोई परवाना....

दिखाने को रंग फ़ितरत के
नाकाफ़ी है लम्बी सी एक कहानी भी
देखा समझा; बढ़ गए हैं हम आगे
बना रही सयाना हम को, ये जिंदगानी भी.....

Monday 25 March 2019

ज़िंदगी की हक़ीक़तें : कहानी (२) : विजया

गद्य रचना
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ज़िंदगी की हक़ीक़तें (धारावाहिक कहानी)
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(अंक-दूसरा )

निशु और पापा दोपहर में क्लब के पूल साइड टेबल पर संजीदगी से डिस्कस कर रहे थे.
"निशु कैसी चल रही है पढ़ाई ?" शुरुआत की थी पापा ने.
"अच्छी" ऐसा जवाब था जो बात को आगे बढ़ा सकता था.
"क्या सोचा है आगे के लिए ?"
"सी ए के लिए आर्टिकलशिप पूरी होने को है मार्च में,मई में फ़ाइनल के दोनों ग्रुप दे दूँगी, CAT के लिए तैयारी चल ही रही है , अच्छा करूँगी उम्मीद है और किसी ना किसी IIM में कॉल आना ही है.उसके बाद जॉब."
बहुत ही क्लैरिटी से अपना 'केरियर पाथ' जैसे 'चाक आउट' कर रखा था निशु ने. बिलकुल स्पष्ट और सधा हुआ नक़्शा, मंज़िल तक पहुँच पाने का आत्मविश्वास क्योंकि वह शुरू से ही एक ज़हीन और मेहनती स्टूडेंट रही थी, अव्वल आने वाली.
"वो तो ठीक है, लेकिन शादी, तुम इक्कीस की हो गयी हो और मैं चाहता हूँ कि एक एक करके समय के साथ अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा कर दूँ. अभी जून है, योग्य घर वर देखना शुरू करेंगे अब से तो कुछ अच्छा चुनाव कर सकेंगे. तुम्हारे CA फ़ाइनल के ऐग़्ज़ाम के बाद धूम धाम से शादी कर देंगे. क्यों कैसा रहेगा ?"
बिज़नस negotiations की तरह ही जीत की बाज़ी बिछाने लगा था उसका पापा.
"CA के बाद तो MBA करना है ना." बोली थी निशु. सीधे शादी के लिए इंकार करके वह पापा की बात नहीं काटना चाहती थी.

"देखो, यही तो ब्यूटी होती है अरेंज्ड मेरिज की....ऐसा रिश्ता देखेंगे जिसमें तुम अपने ही ससुराल के बिज़नेस में काम कर सकोगी और वर्कएक्स (काम का अनुभव) लेकर ISB (Indian School of Business) से MBA भी कर सकोगी....सब कुछ साफ़ साफ़ बात हो जाएगी." पापा ने नज़दीकी सर्कल में ऐसे कई एक  प्रेक्टिकल उदाहरण भी दिए थे जिनमें लड़कियों ने शादी के बाद अपने इच्छित केरियर गोल्स को हासिल किया था और सुखमय दाम्पत्य व परिवारिंक जीवन का आनंद ले रही थी. आर्थिक संपन्नंता और सोचों में प्रगतिशीलता नए और पुराने प्रतिमानों में सेतु का काम करती है, पापा इस बात को ना केवल कहते थे वैसे ही जिया भी करते थे.

बिज़्नेस नेग़ोसिएशन्स में सामने वाले के हथियार एक एक करके गिरवा देने में माहिर थे ना पापा. "उसी के हथियार से उसकी को मार गिराता हूँ," जब मूड में होते तो कुछ ऐसा ही बोला करते थे निशु के पापा. निशु क्या उत्तर देती सब कुछ उसके खिंचे नक़्शे के साथ ही तो दिखा रहे थे पापा.

"अंकल कह रहे थे कि स्टार्ट अप के लिए अगर अच्छी आयडीआ हो तो विदेश के वेंचर केपीटल फ़ंड्ज़ से अच्छा ख़ास इन्वेस्टमेंट भी मिल सकता है. ऐसा लड़का तुम्हारे लिए ढूँढूँगा जो स्मार्ट हो, शिक्षा में भी क्वालिफ़ायड हो, ब्रिल्यंट अचिवर हो और अच्छे सोचों वाला हो. एक ज़िम्मेदार खुले विचारों वाला प्यार करने वाला जीवन साथी खोजेंगे तुम्हारे लिए बिल्कुल वैसा ही जैसा तुम सोचती होगी, एक दम क़म्पेटिबल." किसी के दिमाग़ में विचार और मुँह में शब्द डाल देने की कला भी पापा ने ख़ूब सीख रखी थी.

पापा उसे सरमन देने वाले पादरी जैसे लग रहे थे और उसे उनके हर वक्तव्य के बाद मानो बस 'आमीन' बोलना था. यहाँ आमीन की जगह बोलकर या गेसचर से 'हाँ पापा' ही बोल पा रही थी निशु.

"क्या लोगी तुम"......निशु कुछ बोले उससे पहले ही वे उसके फ़ेवरिट 'मोज़ितो' मोक्टेल और ग्रिल्ड क्लब सैंड्विच का ऑर्डर स्टूअर्ड को देने लगे थे आज ख़ुद के लिए भी 'स्वीट लाइम सोडा' की जगह 'मोज़ितो' ही मँगा रहे थे. निशु असमंजस में थी, यह पापा का प्यार जताना है या आर्ट ओफ़ नेगोशिएशन का कोई और पैंतरा😊

ऑर्डर की चीज़ें आने तक पापा उस से उसने जो लास्ट मूवी देखी उस पर बात शुरू कर के अगले वेकेशन प्लान पर आ गए थे जो सैंड्विचेज़ कुतरते और मोज़ितो सिप करते हुए भी जारी रहा.

"बहुत अच्छा लगा आज तुम्हारे साथ समय बिताकर, व्यस्त वर्किंग डे में भी".....मैंने एक बिज़्नेस मीटिंग रखी है यही क्लब में. तुम गाड़ी रख लो कह रही थी ना आज Oxford और Cross Word बुक शाप जाना है तुम्हें. और हाँ मेरे लिए Mont Blanc  ने जो नया पेन सेट लॉंच किया है वो पिक अप कर लाना प्लीज़. मैं इस 'क्रोस' (pen) से अब  बोर होने लगा हूँ.....कोमन सा हो गया है और घिसा पिटा भी लगने लगा है.

घड़ी पर नज़र डाली जब कि फ़ोन की स्क्रीन पर टाइम देख चुके था पापा जी, और बोले, "आई फ़ोर सी सच लव्ली टाइम विद यू अगेन....मिलेंगे इसी weekend और ढेर सी बातें करेंगे दिल मैन की बाप बेटी. मेरे लिए मेरे बच्चे फ़्रेंड्स है, है ना.......बिना निशु के जवाब का इंतज़ार किए पापा बिज़्नेस लाउंज की तरफ़ बढ़ गए थे.

निशु समझी हो या नहीं, मास्टर ओफ़ दी गेम ने अगला अजेंडा सेट कर दिया था.

अचानक सेलफ़ोन पर रिंग हुई, मैं फ़्लैश बैक से वर्तमान में लौटी.
साहेब का फ़ोन था, मास्टर ओफ़ गेम के मास्टर का. अनगिनत कहानियाँ साहेब और मेरे जीवन में सृजित हुई है जिसमें साहेबजी के लोगों द्वारा उपयोग/सदुपयोग/दुरुपयोग के आम और ख़ास वाक़ये देखने को मिले हैं. कह रहे थे, "चाय रेडी रखना, इधर से गुज़र रहा था, तुम्हारे मनपसंद समोसे ला रहा हूँ. बस पाँच मिनट में तुम्हारे इजलास में हाज़िर !"

चाय का पानी उबलने लगा था.

(गाइडेन्स और एडिटिंग में सहयोग के लिए साहेब याने Vinod Singhi का धन्यवाद !)

ज़िंदगी की हक़ीक़तें-कहानी (१) : विजया



ज़िंदगी की हक़ीक़तें (धारावाहिक कहानी)
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(पहला अंक)

कल फ़ोन आया था निशु का.

"आंटी अंकल आप के साथ कल सुबह इन्फ़ोर्मल सा ब्रेक फ़ास्ट करने आऊँगी, मेरे लिए कल की सुबह रिज़र्व रखना, हम तीन ही होंगे और कोई नहीं. बहुत बातें करनी है, अपनी भी, आपकी भी, औरों की भी."
आवाज़ में खनक थी, हक़ जताने में थे स्नेह और आदर के स्पंदन.

मिल्स एंड बून वाला प्रेम था उनका. स्कूल से शुरू हुआ और कोलेज में ग्रैजूएट हो गया. मौक़ा मिले तो साथ साथ किसी केफे में समय बिताना, किसी यूथ इवेंट में साथ साथ शिरकत करना, ग्रुप फ़्रेंड्स के साथ मूवी देख लेना-हाँ मूवी थिएटर में पास पास बैठना-नाज़ुक कोमल सीन्स के वक़्त हैंड्ज़ होल्ड कर लेना, मूवी के बाद डच में सनेक्स खा लेना, आगे के केरियर पर डिस्कस करते रहना, बढ़ चढ़ कर फ़ैमिली मेम्बर्ज़ पर चर्चा करना, मज़ाक़ उड़ाना, चुहल करना, किसी और लड़की या लड़के को लेकर छेड़ना, देर रात फोन पर बतियाना या चैट करना... जिसमें मूवीज़-म्यूज़िक-बुक्स-फ़्रेंड्स-सब कुछ होना, छोटे छोटे झगड़े, रूठना, मनाना, हल्का फुल्का रोमांस, लव यू-मिस यू के डायलोग, लम्बी देर तक हाथ में हाथ -छू लेना चन्द मिनट्स के लिए-हग करनाऔर चूमना....दोनों में शायद ही किसी ने कहा होगा शादी करेंगे, घर बसाएँगे.....सपने ही तो दूसरे थे.....CAT क्रेक करना या GMAT के स्कोर....हायर स्टडीज़.....कुछ बनना.....शादी तो अजेंडा में ही नहीं.

पापा थे उसके एक सफल बिजनेस मेन. हर डील को अपने हित में देखने परखने वाले. कभी किसी का अनड्यू रखना नहीं मगर किसी को भी ड्यू से ज़्यादा देना नहीं. दोनों की हॉबनोबिंग को नोटिस किया था उन्होंने.  बढ़ती नज़दीकियाँ कुछ और शेप ले उस से पहले ही सब ठीक ठाक कर दिया जाय सोचा था उसके पापा ने. लड़के और परिवार का पूरा आकलन तन-मन-धन का. आर्थिक हैसियत बराबर की नहीं, रहन सहन बिलकुल मध्यवर्गीय जैसे छोटा फ्लेट-पुराना फ़र्नीचर-अनब्रांडेड कपड़े जूते फ़ोन-मारुति अल्टो गाड़ी, लड़के का भविष्य भी मोटा मोटी-क्या हुआ प्रोफ़ेसनल डिग्री पाने के बाद आठ दस लाख का पेकेज भी अगर मिल गया. निशु जिस तरह की ज़िंदगी की आदी है कैसे रह सकेगी . किशोर उम्र की दोस्ती अपनी जगह है, ज़िंदगी की हक़ीक़तें अपनी जगह. ना ना, प्रशांत निशु के लिए अच्छा जीवन साथी नहीं साबित होगा और निशु भी उसके लिए. बात अमीर ग़रीब की नहीं, कड़ी वास्तविकता की है. जो लड़की बड़ी गाड़ियों में सवार रही, जिसका अपना अलग फ़र्निस्ड बेडरूम है विद अट्टेच्ड स्टडी, साल में दो दफ़ा वेकेशन-देश विदेश में, पेरेंट्स के साथ क्लब लाइफ़ एंजोय करती है और भी ना जाने क्या क्या ?

यह जो लव है ना वह इन्फ़ैचूएशन ही तो होता है एक ऐसा आकर्षण जिसमें बायोलोज़ी और सायकोलोजी दोनो के छींटे लगते हैं, प्रेम क्या होता है कोई जान सका क्या आज तक ?, यह सब सोचते सींचते पापा व्यापारी से फ़िलोसोफ़र बन जाते. ज़िंदगी के अनुभवों ने भी बहुत कुछ सिखाया था उनको. एक पक्का फ़ेमिली मैन, निहायत ही ईमानदार, दयालु और परोपकारी, हेल्पिंग अट्टिट्यूड,पढ़े लिखे भी और बहुत पढ़े लिखों की संगत में रहने और सुने जाने वाले भी.

यह क़ुदरती बात ही तो है समझदार इंसान बात को हर एंगल से देख कर ही तो निर्णय पर पहुँचता है. हाँ तो 'पापाजी' ने बेटी के हित में सोचा और तय किया कि उसकी मम्मी और उस से खुल कर वन टू वन डिस्कस करेंगे.

(क्रमश:)

(साहेब याने Vinod Singhi को guidance और editing के लिए धन्यवाद.)

दो ख़्वाब-क़िस्सा मुल्ला का : विजया

गद्य रचना
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दो ख़्वाब : क़िस्सा मुल्ला नसरुद्दीन का.....
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मुल्ला नसरुद्दीन सुबह-सुबह चाय पीते समय अख़बार पढ़ते बड़ा ही शरारती होकर अपनी बीवी  से बोला, "कहना तो नहीं चाहिए, लेकिन तुझसे मैं कुछ भी छिपाना भी नहीं चाहता। दुख तुझे होगा, मगर ध्यान रखना यह केवल सपने की बात है, यह कोई सच नहीं है. नाहक तूल मत दे देना. तिल का पहाड़ मत बना लेना. इधर कुछ अरसे से रोज़  रात मेरे ख़्वाब में तेरी सहेली रुखसाना आती है."

बीवी तिलमिला गई. ख़्वाब में ही सही, यह कोई बात हुई.  जलन की अगन जग गयी.  चाय की ट्रे को वह ज़ोरों इधर उधर करने लगी. भूचाल सा आ गया था.

कहा मुल्ला ने, "अरे  मैंने तो पहले ही कह दिया था कि यह महज़ ख़्वाब की बात है, रात गयी और बात गयी."

बीवी ने  कहा, " मियाँ, तो फिर तुम भी ज़रा सुन लो.  मैं भी कहना नहीं चाहती थी. चलो बताओ मेरी सहेली अकेली ही दिखाई पड़ती होगी ना सपने में."

मुल्ला ने कहा, " यह बात तो सच है, लेकिन तू इस भीतरी बात को कैसे जानती है."

बीवी ने आँख मारते हुए कह दिया, "अमाँ बात बस इत्ती सी है. उसका हबी फ़रीद तो मेरे सपने में आता है. अकेली ही तो आएगी ."

मुल्ला भन्ना गया. चुन चुन कर ऊँची आवाज़ में उसे बेवफ़ा, बेग़ैरत, गिरी हुई और ना जाने क्या क्या कहने लगा. हाथ भी उठा लिया उसने मारने को.🤣🤣🤣🤣🤣🤣

निशा और पंकज (४) : विजया

गद्य रचनाएँ
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निशा और पंकज......(4)

बात उस रात की.....
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(मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि बचपन से ही मैं एक ऐसे इंसान से जुड़ गयी जो बहुत बार मुझे भी इस दुनिया का नहीं लगता.
कभी कभी उसके किसी भी मिशन में ज़रूरत से ज़्यादा involvement को देख कर कोफ़्त और ग़ुस्सा भी आता है लेकिन दिल का प्यार और दीमाग की आपसी समझ उसकी सहजता के साथ मिल कर सब कुछ को पल में ही फुर्र कर देते हैं.

उसके मिशन्स की कुछ कहानियाँ शेयर करूँगी, हाँ जैसा मैंने अपनी नज़र से देखा. सच्ची घटनाएँ हैं ये बस नाम बदल दिए हैं पात्रों और स्थानों के और घटना क्रम को भी रूपांतरित कर दूँगी ताकि privacy बनी रहे.)

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हमारे बहुत समझाने पर निशा और पंकज तैयार हो गए कि दोनों के बीच की समस्या के हल के लिए  वाक़ायदा वैज्ञानिक चिकित्सा का सहयोग लिया जाय. दोनो को एक कुशल psychiatrist के पास भेजा गया जिसने senior physician की राय लेकर दोनों का मेडिकेशन आरम्भ कर दिया और क्लिनिकल psychologist से Counseling सेशंज़ भी शुरू हो गए. इन सब के मिले जुले असर से पहले चार सप्ताह में कुछ पॉज़िटिव असर दिखने लगा मगर कुछ ही.....बोलचाल की भाषा में बोलें तो कोई चार आना. डाक्टरों द्वारा भी और हमारे द्वारा भी अच्छे से समझाने के बावजूद भी यह नोटिस हो रहा था कि दोनो का ही अपनी अपनी सोचों के मुताबिक़ एक्स्पेक्टेशन लेवल नए तरह से तैयार हो गया था.

उस दिन मौसम बहुत अच्छा था. पंकज को एक नए क्लाइयंट से अच्छे वॉल्यूम का काम भी मिला था. बहुत ख़ुश था वह. निशा को भी उसने फ़ोन करके अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की थी.

साहेब उसको ज्ञान दिया करता था कि अपने काम से रिलेटेड भी छोटी छोटी ख़ुशियाँ निशा और बेटियों से शेयर किया करो.....दिन भर में कुछ खट्टा मीठा जो भी रूटीन से हट कर होता है उसकी बात भी घर में किया करो, शाम को सब से पूछा करो उनका दिन कैसा बीता...कोई रोचक घटना या कुछ ऐसा जिसमें तुमको भी कुछ कंट्रिब्यूट करना है उसका भी ख़याल किया करो ...शायद पूरा तो नहीं लेकिन कुछ कुछ पंकज ज़रूर लागू करता था और नतीजे भी अच्छे ही मिलते थे सभी के बीच आपसी व्यवहार में नरमी के रूप में .

यह भी कहा करता था साहेब कि तुम जब भी घर जाओ वापस शाम को काम से लौट कर तो कभी कभी अचानक सबकी पसंद के खाने के items लेकर जाया करो, बुक या मैगज़ीन ले जाया करो.....समय समय पर फूल या छोटे छोटे गिफ़्ट्स....और तक कोई भी एक्स्पेक्टेशन नहीं रखा करो कि बीवी ख़ुश होगी और........बच्चे ख़ुश होंगे और तेरी तरफ़दारी करेंगे.

साहेब को तो धुनकी रहती है ना कि लोग उसकी तरह शालीन, शरीफ़ और सेंसिबल बने....अब पात्र तो अपने माद्दे के हिसाब से ही तो परफ़ॉर्म करेंगे.  हमारे साहेब का वश चले तो सब कुछ अच्छा हो जाए. मगर कहते हैं ना माली सींचे सौ घड़ा रितु आए फल होय.

मैंने ऐसे केसेज़ में एक कोमन बात observe की थी वो थी साहब के प्रति लोगों का प्रगाढ़ सम्मान लेकिन उनके सोचने, समझने और समझाने पर सामने पूरी हाँ हाँ मगर दिल से स्वीकृति में हिचक...साहेब को पूछती तो कहता...adults हैं, अपनी अपनी बरसों की संचित conditioning है और परिवेश भी....फिर हमारे अलावा भी तो ज्ञानदाता हैं जो उनके जैसे तरीक़े से सोचते हैं.....और अपना सोया हुआ अहम भी....ऐसे में अब्रेशंस होंगे....गाड़ी लड़खड़ायेगी....समझदार होंगे तो आगे पीछे की सोच कर सही बात को अपना लेंगे, नहीं तो ठोकर खाकर अक़्ल आएगी...नहीं तो कुछ नहीं होगा....कोशिश और अर्ज़ी हमारी और मर्ज़ी माँ की. उसके बाद चाय की फ़रमाईश. इन प्रश्न उत्तरों में मानो ख़ुद को शिव शम्भू और मुझे देवी समझने लगता हैं साहेब. हर माफ़िक़ पौराणिक पात्र को जी लेता है यह बंदा😊.

हाँ तो उस दिन पंकज बाबू मिठाई, नमकीन, पिज़्ज़ा, बर्ग़र और आइसक्रीम लेकर घर पहुँचे. लड़कियाँ भी ख़ुश और उनकी मम्मी भी. डिनर हुआ, लुत्फे आइस क्रीम लिया गया.
अचानक कोई आधी रात को निशा चिल्ला रही थी, "छूना मत, क्या समझ रखा है. थोड़ा सा अच्छा क्या बोलने लगी औक़ात पर उतर आए हो. गिफ़्ट्स और ये खाने पीने के बदले....छि..तुम औरत को....."

अब पंकज भी सचमुच उतर आया था अपनी वाली औक़ात पर. फ़्लैश बेक में जाकर निशा को ज़लील करने लगा और यह भी उसके मुँह से निकल पड़ा, "क्या कोई यार किया हुआ है जो हमारा छूना तक बर्दाश्त नहीं......"  पढ़ने वाले ख़ुद अन्दाज़ लगा सकते हैं कितनी कुछ गंदगी हुई होगी उस रात.

दूसरे दिन सुबह दोनो ही ने अलग समय फ़ोन करके अपनी अपनी बात कही. साहेब ने सुनी ज़्यादा कुछ नहीं बोला. हाँ मुझ से कहा, "यार दोनो ही अब मेरे रास्ते पर भरोसा नहीं कर रहे, शायद अपने लिए कुछ बेहतर राह चुनेंगे. चलो अपने निजात पाए. जो बन पड़ा वह किया, लगता है माँ कुछ आराम दिलाना चाहती है.

"अरे वो M &S वाले बिसकिट्स बड़े अच्छे है ना, तुम को भी बहुत पसंद है ना....अनु से बात हो तो कहना चार छह आठ पेकेट अलग अलग वराइयटी के भेज दे."

....यह बंदा साहेब ना बाहर पढ़ा हुआ है मगर कुकीज़ को हमेशा बिसकिट कहेगा. और तो और चाय की फ़रमायिश की इसने इतनी विधियाँ इज़ाद कर रखी है जितनी शायद शिव ने विज्ञान भैरव तंत्र में ध्यान की भी नहीं की होगी.

मैं जानती थी, कि साहेब सोच रहा था कि निशा पंकज का अब क्या किया जाय...और उसके लिए ज़रूरी थी असम की कड़क चाय, वे विदेशी कुकीज़ और मेरी ' 'आपकी आज्ञाकरी' ब्राण्ड हाज़िरी... जो उसका मोराल बूस्टर होती है.

निशा और पंकज (३) : विजया

गद्य रचनाएँ
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निशा और पंकज......(3)
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(मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि बचपन से ही मैं एक ऐसे इंसान से जुड़ गयी जो बहुत बार मुझे भी इस दुनिया का नहीं लगता.
कभी कभी उसके किसी भी मिशन में ज़रूरत से ज़्यादा involvement को देख कर कोफ़्त और ग़ुस्सा भी आता है लेकिन दिल का प्यार और दीमाग की आपसी समझ उसकी सहजता के साथ मिल कर सब कुछ को पल में ही फुर्र कर देते हैं.

उसके मिशन्स की कुछ कहानियाँ शेयर करूँगी, हाँ जैसा मैंने अपनी नज़र से देखा. सच्ची घटनाएँ हैं ये बस नाम बदल दिए हैं पात्रों और स्थानों के और घटना क्रम को भी रूपांतरित कर दूँगी ताकि privacy बनी रहे.)

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निशा इम्प्रेशनबल है. दूसरों को देख सुन कर अपनी दिशा तय करती है वो. फिर कोई बुनियादी अप्रोच भी नहीं, बदलती रहती है अपने तथाकथित convictions को...कभी कभी तो बिलकुल ही उलट. पैसा, दिखावा और शारीरिक आराम प्राथमिक  है उसके लिए. जीवन मूल्य और आदर्श को केवल किताबी बातें समझती है. ख़ुद की कर्कशता और outbursts नैसर्गिक प्रतिक्रियाएँ और किसी दूसरे का किया धारा रूड्नेस और क्रूअल्टी.
दोहरे मापदंडों को जीने लगी है निशा. उसके अनुसार पंकज को अक़्ल कम है, दुनिया कहाँ से कहाँ चली गयी और वो वहीं का वहीं जम कर खड़ा हुआ है. और ख़ुद, बाप रे ऐसा कैरी करती है ख़ुद को कि जो भी ब्रांड्ज़ पहने हो वो   कम्पनियाँ हर्ट हो जाए.

पंकज भी कम नहीं. अव्वल दर्जे का ईमानदार और sincere अपने काम में लेकिन इसका इतना घमंड की ज़िंदगी की छोटी छोटी बातें अनदेखी कर देता है. अपने असहिष्णु व्यवहार को स्पष्टवादिता कहता है. मितव्ययिता उसके मर्दाना ईगो से जुड़ कर घटिया कंजूसी हो जाती है. दरियादिली भी अपनी मर्ज़ी की बात, सामने वाले की इच्छा और समय की अनुकूलता को नज़रअन्दाज़ करते हुए.
मन में यह ठूँस ठूँस कर भरा हुआ कि मैं कमाता हूँ और तभी घर चलता है. मैं मर्द हूँ, हेड ओफ़ द फ़ैमिली हूँ, सब कुछ मेरे मन का ही होना चाहिए. पर्सनल हायिज़िन में बिलकुल negligent. जिस्म की कोई परवाह नहीं, चेहरा मोहरा सब ठीक लेकिन खानपान और सेडेंटेरी जीवन शैली के चलते हलवाई जैसी बाडी लिए घूमता है.

दोनों के ये सोच दोनों के अपने अपने व्यवहार में बिंबित होते थे और नतीजा रोज़ की खींच तान और अशांति. Low और high libido की समस्या आग में घी का काम करती. मेरे जाने तो यह गाड़ी चल ही नहीं सकती थी. ....और साहेब कि हमेशा कहता रहता, "तुम भी extreme हो, अरे सब ठीक हो जाएगा....इन सब में ज़्यादातर acquired है, आसपास से ग्रहण किया हुआ जी अहित करा रहा है इन बेवक़ूफ़ों से. आदमी के बच्चे हैं पशु की सन्तति नहीं देखना जब कचरा हटेगा तो बम बम* हो जाएगा"

उसके बाद ग्रेस के साथ जब खीसे निपोरी जाती तो समझ में आ जाता चाय होनी है और चुस्कयों के साथ निशा-पंकज की भागवत बंचनी है. कभी कभी तो साहेब भूल जाते हैं सामने निशा नहीं बक़लम ख़ुद मैं बैठी हूँ.....और निशा को जो ज्ञान दिया जाने वाला हो, मुझे deliver कर देते हैं. कोई वाइब्ज़ बनाते होंगे😜😜😜😂😂😂

* यह उस समय का तकियाकलाम था. इन दिनों जब से 'संजू' देखी है 'गपा गप' हो गया है.

अरे हाँ, प्रभा दीदी (स्वर्गीय डा. प्रभा खैतान) की पुस्तक 'बाज़ार के बीच : बाज़ार के ख़िलाफ़- भूमंडलीकरण और स्त्री के प्रश्न' से कुछ पढ़ा था, चलिए आप भी पढ़ लीजिए.

पुरुष प्रधान गृहस्थी में ऐतिहासिक रूप से स्त्री दमित है. घर गृहस्थी के कामों के अलावा इस विकसित जीवन शैली में स्त्री के काम के घंटे और बढ़ जाते हैं. स्त्री पुरुष की भूमिका में परिवर्तन आवश्यक है, स्त्री को स्वतंत्र भी होना है लेकिन उपभोक्ता वस्तुओं की ख़रीदारी के लिए नहीं. उसे तो सृजनात्मक रूप से अपने आप को व्यक्त करना है, वस्तु निर्भरता से मुक्त होना है और बाज़ार की भीड़ से अलग ख़ुद की पहचान बनानी है. जब कि ठीक इसका उलटा हो रहा है. बाज़ार की भीड़ में स्त्री का भी वस्तुकरण हो रहा है......

स्त्री पुरुष के सम्बन्धों की जाँच परख समाज के संदर्भ में भी होनी चाहिए और हमारा समाज हमारे तमाम सपनों को आज बाज़ार में बेच रहा है.......... जो यह वादा करता है कि तकनीक के माध्यम से आदमी के पास इतना समय और साधन होंगे कि वह दूसरे आदमी से सम्बंध स्थापित करे और सच्ची सृजनातमकता का फ़ायदा उठाए. उलझन तो यह है कि अधिकतर समस्याओं का हल अमूर्त तथ्यों में खोजते हैं........बड़ी बड़ी बातें करने से समस्या सुलझेगी नहीं.

काश निशा और हम सब जाने, सोचें, पढ़ें और समझें कहीं हम अधिकारों और कृतव्यों के बीच अहम अथवा भ्रमवश असंतुलन लाकर ख़ुद को खो तो नहीं रहे हैं.

मुझे तो लगता है 'साहेब' के अंदर बसे नारी और पुरुष जीवन को एक प्रयोगशाला समझ कर अन्वेषण करते रहते हैं जिसका लाभ सब को पहुँच सकता है. अब उसके रसायनों और उपकरणों को कुछ कुछ समझने लगी हूँ, चूँकि विषयवस्तु मानव होते हैं रसायनों और उपकरणों का  प्रयोग भी अनूठा होता है और ये कहानियाँ उन प्रयोगों की गाथाएँ है, जिनका उद्देश्य workable solutions पाना होता है. भाषण में सुनना पड़ता है, "कौन पर्फ़ेक्ट है तुम हो, मैं हूँ अरे वो भगवान भी नहीं तभी तो नमूने बना बना कर ज़मीन पर छोड़े जाता है."😂😂😂

हाँ तो आज का पोस्ट 'ज्ञानवंत' हो गया. आपका मन होगा कि निशा पंकज का कुछ तो कहा जाय. मगर आज भूमिका ही होने दीजिए ना.

Contd.......

निशा और पंकज (२) : विजया

गद्य रचनाएँ
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निशा और पंकज......(2)
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(मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि बचपन से ही मैं एक ऐसे इंसान से जुड़ गयी जो बहुत बार मुझे भी इस दुनिया का नहीं लगता.
कभी कभी उसके किसी भी मिशन में ज़रूरत से ज़्यादा involvement को देख कर कोफ़्त और ग़ुस्सा भी आता है लेकिन दिल का प्यार और दीमाग की आपसी समझ उसकी सहजता के साथ मिल कर सब कुछ को पल में ही फुर्र कर देते हैं.

उसके मिशन्स की कुछ कहानियाँ शेयर करूँगी, हाँ जैसा मैंने अपनी नज़र से देखा. सच्ची घटनाएँ हैं ये बस नाम बदल दिए हैं पात्रों और स्थानों के और घटना क्रम को भी रूपांतरित कर दूँगी ताकि privacy बनी रहे.)

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कोई सात साल पहले की एक बात याद आ गयी. निशा को लगातार कमर में भयंकर दर्द रहता था और वह उसका सम्बंध पंकज की अति कामेच्छा से हुई हरकतों से जोड़ती थी......बहुत कुछ सुनाती रहती थी. पंकज भी short tempered....उसे जवाब में उलटा सीधा सुनाता रहता था. आरोप प्रत्यारोप का बाज़ार बड़ा ग़र्म रहता था. साहेब को चिंतित पंकज से मालूम हुआ तो अपने रसूख़ से शहर के नामी गिरामी और व्यस्त ओर्थोपेडिक सर्जन डा. भट्ट का emergecy appointment निशा के लिए करा दिया. पंकज ने ख़बर दी कि MRI से कन्फ़र्म हो गया है कि निशा को acute slip disc है और उसका एक मात्र उपाय सर्जरी है रीढ़ की हड्डी की. बड़ा आपरेशन, निशा का अपने मैके के लोगों पर अधिक विश्वास. तय हुआ कि सर्जरी कलकत्ता में नहीं करा कर मुंबई में करायी जाएगी जहाँ निशा के पेरेंट्स और भाई-भाभी रहते हैं. अम्बानी की कोकिलाबेन अस्पताल में निशा की सर्जरी की व्यवस्था कर दी गयी. मैके वाले बस विज़िटिंग समय में देखने आते. पंकज ने दिन रात एक कर दिया और ख़र्चा भी क़रीब सत्तर हज़ार किया. झगड़ालू मियाँ बीवी की बॉंडिंग का मौन प्रतीक था यह .

ख़ैर निशा की सर्जरी सफल हुई. उसके पेरेंट्स रिलीज़ के पहले दिन अस्पताल आए थे कोई एक घंटा उसके साथ रहे. निशा के सुर बदल गए थे. शिकायतों का बड़ा सा पुलिंदा तैयार हो गया था.....फ़ेहरिस्त में पंकज का समय पर उसे ऊपर वार्ड में नहीं देखना, हॉस्पिटल के पेमेंट में देरी, खाने पीने के लिए बाहर किसी डाँस बार-रेस्तराँ में जाना, नर्स की तरफ़ ललचायी नज़र से देखना आदि थे. पंकज के ससुर ने भी दामाद जी को आड़े हाथों लिया था.  पंकज को त्रिकालदर्शी साहेब ने अग्रिम कह दिया था कि चुप चाप सुन लेना जब भी पूज्य पापाजी झाड़े....,लेकिन उन्हें निशा को कुछ दिन अपने पास रख कर आराम करवा देने की गुज़ारिश ज़रूर कर देना. पेरेंट्स ने हामी भर ली थी और निशा को रिलीज़ करा कर कांदीवली मैके ले जाया गया....रेजिस्टर्ड लेटर के साथ नत्थी किए AD कॉर्ड की तरह पंकज भी ससुराल चला गया .  निशा की अपनी भाभी अरुणा से कभी भी पटरी नहीं खाती थी...,माहौल ऐसा बना कि दो दिन बाद ही इन लोगों को कलकत्ता लौट आना पड़ा. निशा को फिर यह शिकायत कि माहौल बिगड़ता नहीं अगर पंकज अस्पताल से तुरंत कलकत्ता लौट जाता और वह मायक़े में दो सप्ताह आराम कर लेती. भूल गयी निशा कि उसी ने पंकज से कहा था कि ऐसी क्या हड़बड लगा रखी है, कलकत्ता में कोई गर्ल फ़्रेंड है क्या......बेचारे पंकज को मन मसोस कर ससुरबाड़ी जाना पड़ा था. कलकत्ता आकर भी एक महीना पंकज ने निशा का अच्छे से care किया. उसके पास रहता, समय पर दवा देना, उसे वाश रूम ले जाना, कपड़े बदलवाना सब कुछ बड़े मन से करता पंकज. हम लोग एक दिन देखने गए तो निशा की शिकायतों की फ़ेहरिस्त बड़ी लम्बी हो गयी थी, पुराने आइटम्ज़ के साथ बहुत कुछ नया भी जुड़  गया था. सब से गम्भीर था पंकज का उसे समय समय पर शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए छूना.....मेड को ग़लत नज़रों से देखना......उसकी पसंद के फल नहीं लाना, अमूल की जगह मदर डेयरी का दूध लाना इत्यादि.

मैंने कहा साहेब से की पंकज को बुला कर इसके आमने  सामने करो देखो कितना ग़लत कर रहा है. बोले निशा ग़लत थोड़े ही कह रही है. ख़बर लूँगा आज ऑफ़िस में बुला कर मर्दूद की. मैं जानती हूँ कि पंकज के साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ होगा. हाँ, पंकज उस दिन घर आया तो कह रहे थे उसको, यार तेरी बीवी तो सचमुच बदलने लगी है....डाक्टर ने क्या दिल की सर्जरी भी की थी.....लगता है उसका हृदय परिवर्तन हो गया, मालूम हुआ उस से कि तुम ने मुंबई अस्पताल और यहाँ उसके care में दिन रात एक कर दिए हैं, बड़ा ख़याल रखता है.....यार तेरी तो चल निकलेगी अब और सड़क छाप ठरकी की तरह आँख मारते उसकी तरफ़ देख कर. सच कहूँ जब भी साहेब ठेठ गालियाँ देते हैं और ऐसी ऊटपटाँग हरकतें करते हैं तो सोचती हूँ इस इंसान का कितना ख़राब इम्प्रेशन पड़ता होगा शालीन लोगों पर.

हे भगवान ! कितना झूठा है यह बंदा जो सच की बड़ी बड़ी बातें करता है. सच में नहीं समझ पाती इसका किरदार. कहता है यह झूठ नहीं है positive vibes तैयार करना है, यह टेक्निकल काम है 😊 देखना एक दिन निशा ऐसा सोचेगी और कहेगी भी....और यह खड़ूस पंकज भी माइल्ड हो जाएगा.

ऐसे में कड़क आसाम चाय  ही इस नौटंकीबाज़ के ज्ञान से निजात दिलाया करती है. झूठों का यह दुश्मन अपने हर झूठ को justify कर सकता है, कभी टेक्निकल कह कर तो कभी प्रेक्टिकल नाम दे कर तो कभी कहेगा यार 'was playing a prank....इतना तो चलता है....इंसान हूँ, भगवान नहीं.

पूछ ही लिया मैंने चाय की चुश्की लेते हुए, "कब कहा था निशा ने वह सब कुछ जो तुम पंकज को कह रहे थे." बोला मैं ने कब कहा कि निशा यह बोली. अरे मैंने उसे पूछा था ना कि वाश रूम कौन ले जाता है, कपड़े कौन बदलता है, दवा कौन देता है, चलाता कौन है....क्या बोली थी वह यही ना कि आपका परम प्रिय चेला. और मैंने पूछा था ना कि बाहर बहुत जाता होगा तो कहा था उसने कि यहीं पड़ा tv देखता है, फ़ोन करता रहता है और काम के काग़ज़ पढ़ता रहता है, मेरी तरफ़ तो झाँकता तक नहीं......और सिद्धू की तरह ठहाके लगा रहा था साहेब....मैंने भी हँसते हँसते सिर पीट लिया था....सच में साहेब ने कहा था 'मालूम हुआ है ' यह नहीं कहा था 'निशा ने कहा'. जब मैंने तारीफ़ वाले लुक्स दिए तो इतराया साहेब, "मैडम यह presentation होता है, आख़िर management consultant जो हैं हम."😊

निशा और पंकज : विजया (१)

गद्य रचनाएँ
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निशा और पंकज......(1)
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(मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि बचपन से ही मैं एक ऐसे इंसान से जुड़ गयी जो बहुत बार मुझे भी इस दुनिया का नहीं लगता.
कभी कभी उसके किसी भी मिशन में ज़रूरत से ज़्यादा involvement को देख कर कोफ़्त और ग़ुस्सा भी आता है लेकिन दिल का प्यार और दीमाग की आपसी समझ उसकी सहजता के साथ मिल कर सब कुछ को पल में ही फुर्र कर देते हैं.

उसके मिशन्स की कुछ कहानियाँ शेयर करूँगी, हाँ जैसा मैंने अपनी नज़र से देखा. सच्ची घटनाएँ हैं ये बस नाम बदल दिए हैं पात्रों और स्थानों के और घटना क्रम को भी रूपांतरित कर दूँगी ताकि privacy बनी रहे.)

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रोज़ लड़ते रहते थे वो. कारण ढूँढने के लिए मशक़्क़त नहीं करनी होती ना मियाँ को और ना ही बीवी को....एक दूसरे की गतिविधियों में कारण मिल ही जाते हैं, अगर लड़ना हो तो गढ़ भी तो लिए जाते हैं.

उसे मैके के नए नए धनी होने का घमंड था, उसकी आदतें खर्चीली....लहजा शिकायती, उसको हरदम यही अफ़सोस कि कैसा शौहर मिला. बोली ऐसी मानो शब्दों को ऐसिड में डूबो कर परोस रही हो. व्यंग वाण चलाने में ओलम्पिक लेवल.

उसके जवाब में पंकज ना जाने किन किन ख़यालात की चर्चा करता रहता जिनमें हर अच्छी चीज़ में नुख़्स निकालकर ख़ुद को सयाना साबित किया जाता, बेमतलब की मितव्ययिता जो भविष्य की काल्पनिक चिंता पर आधारित होती, यह करो वह मत करो वाली ख़ाली मर्दानी ठसक.

दोनों में बात बात पर ठन जाती.....बीवी दिन कहे तो मियाँ रात, मियाँ पूरब चले तो बीवी पश्चिम. झगड़ते हुये साथ रहना मानो दोनो की फ़ितरत हो.

शौहर को हर रात बीवी द्वारा बिस्तर में फ़र्ज़ अदायी की तलब और बीवी को मियाँ की छुअन तक बर्दाश्त नहीं.
बीवी कहती है यह ज़ालिम रोज़ ज़बरदस्ती करता है और मियाँ कहे क्या बाहर जाकर ख़ुद को जिस्मानी चैन दूँ ? गायनो डाक्टर मृदुला कहे कि निशा को low libido (न्यून कामेच्छा) याने हाइपो सेक्शूऐलिटी के लक्षण है तो पंकज के लिए डाक्टर रहमान में निदान किया high libido (अति कामेच्छा) याने हाइपर सेक्शूऐलिटी का केस है. दोनो ही दूसरे को दोषी समझे और ख़ुद को नोर्मल और इलाज की ज़रूरत दूसरे को है ख़ुद को नहीं इस बात पर अटल. हाँ इस बीच दो लड़कियाँ ज़रूर पैदा कर ली दोनो में...सन्तानोत्पत्ति में मियाँ बीवी के झगड़ा फ़साद, disharmony और दुश्मनी ना जाने क्यों बीच में नहीं आते.

पंकज इनकी सुनता और उसने इलाज भी कराया, व्यवहार में भी तब्दीली लाया लेकिन निशा का हाल वैसा ही.  उसे  नाना प्रकार की शिकायत पंकज से.....कुछ वाजिब भी ...मगर ज़्यादातर प्वाइंट प्रूव करने के लिए.

सुबह होते ही फ़ोन आता इनके पास, निशा बोल रही हूँ घर में राशन नहीं, इसने बड़ी लड़की की स्कूल फ़ीस नहीं दी, बिजली का बिल नहीं चुका सकी क्योंकि पैसा ही हाथ में नहीं. फ़िर बेवजह रोना धोना और इन पर एहसान का टोकरा....बस भाई साहब आपके लिहाज़ से टिकी हुई हूँ नहीं तो कब की....

पंकज से पूछते तो कहता हर हफ़्ते अमुक रक़म दे देता हूँ अगली जाने. देखा जाता कि वह रक़म पर्याप्त नहीं,
पंकज का कवर अप कि काम मंदा चल रहा है ....आमदनी गिर गयी कहाँ से दूँ. उसने पीछे महीने अलग से २० हज़ार झटके थे, उसका हिसाब आज तक नहीं दिया. सब सुन सुना कर हमारे साहेब जी बोलते यार कुछ भी कह, बीवी किसकी....पंकज कहता मेरी और बच्चे...,बोलता obviously मेरे....तो एक काम कर आज पाँच हज़ार निशा के हाथ में दे देना, बड़ी कड़ी ज़बान है रे उस गिरडीह वाली की,  तेरा ही माद्दा है  कि निबाह रहा है. फिर एक बात तो माननी होगी तुम भी कम नहीं हो....वो बेचारी झेल रही है तुम जैसे को. पंकज खीसें निपौर देता. फिर मंद मंद मुस्कुरा कर साहेब कहते अरे पंकज,  पैसा हाथ में नहीं है तो ले जा.....मुझे आवाज़ देते तो पंकज बोलता भाभी रहने दीजिए आज पेमेंट आएगा मैं दे दूँगा सात हज़ार....तब तक हिसाब मिला चुका होता  था पंकज. पंकज को बिना चीनी की चाय क्रीम क्रैकर बिस्किट के साथ सर्व होती, साहेब का आदेशात्मक अनुरोध पंकज को धो कर एक रसगुल्ला खिला दो, शुगर है बेचारे को. पंकज इनका भक्त और ये .....

कहने का मतलब दोनों के बीच जोड़ने वाला सूत्र यदि कुछ था तो एक दूसरे से असंतुष्टि और शिकवा शिकायत.

माँ बाप की इस लड़ाई का लाभ दोनो बच्चियाँ ख़ूब उठाती....कभी मम्मी से फ़रमाइश पूरी कराती...तो कभी बाप से कुछ ऐंठ लेती. छोटी सी उम्र में बेटियाँ भी भारतीय राजनीतिज्ञों की तरह चालाक हो गयी थी.

 चारों के शिकायती फ़ोन इनके पास आते....किस स्टैमिना के बने हैं ये.....सब की सुनते हैं....विश्लेषण करते हैं और कुछ ना कुछ solution निकाल देते हैं. मगर सोच इनका यही चलता रहता है कि कुछ ऐसा हो कि समस्या का long term solution हो.

मुझ से डिस्कस करते और ना जाने क्यों किसी को भी ग़लत नहीं बताते और सब को भी. यही कहते उनकी जगह हो कर सोचो यही तो व्यवहार होगा....क्यों हो रही हो जज़्मेंटल.

बोलते पंकज diabetic है, बहुत मेहनत करता है, sincere और आनेस्ट है बेचारे की क़िस्मत ख़राब है निशा जैसी बीवी मिली.

निशा की बात हो तो, अरे तुम औरत हो कर औरत का दर्द नहीं समझती यह मूर्ख पंकज अव्वल दर्जे का कंजूस और खड़ूस....कितना अच्छा खाना बनाती है निशा. यह पंकज चटौरा है तभी तो छोड़ नहीं सकता बीवी को साला रेपिस्ट.

बड़ी बेटी को कहते, तेरा बाप बहुत गुणी है...देखो कितना अच्छा वैल्यू सिस्टम है मगर खड़ूस मर्द है..तुझे अगर ऐसे मर्द के पल्ले नहीं बंधना है तो ख़ूब पढ़....independent बन. और हाँ तेरी मम्मी का ख़याल रखा कर.

छोटी बेटी को कहे बाप का ख़याल रखा कर, थक हार कर आता है बेचारा.... तेरी मम्मी तो मुँह फुलाए कमर दर्द का बहाना बनाए बैठी रहती है....तू घर आते ही उसे पानी सर्व किया कर....चाय पिलाया कर.

इनकी इस जोड़ तोड़ की राजनीति को मैं कभी भी आत्मसात नहीं कर पाती मगर देखती रहती कि चीज़ें बेहतर होती जा रही है  हालाँकि पूरा सुधार नहीं.

पूछती कि यह क्या तमाशा है बोलते किताबों में लिखी अच्छी बातें ज़िंदगी के हर क़तरे में नहीं समाती ना....ये परिवार ये समाज हमारे आविष्कार हैं और इनके raw material भी हम ही हैं हम जैसे होंगे वैसा ही तो होंगे ये भी.

बोलती मैं जब नहीं बनती तो दोनों को अलग क्यों नहीं करा देते. बड़े सैद्धांतिक बनते हो.....नारी के शोषण में योगदान दे रहे हो. हंस कर कहते निशा सिर्फ़ दस तक पढ़ी है कहाँ जाएगी क्या करेगी ऊपर से तेज़ तर्रार मिज़ाज....पंकज के साथ फ़िट है.... सब ठीक हो जाएगा. मैं कहती कब तक......एक ही स्क्रिपटेड जवाब, जब माँ की मर्ज़ी  होगी. जैसे माँ ने ज़िम्मा उठा रखा है दुनियाँ के बेमेल जोड़ों और ऊबड़ खाबड़ परिवारों का.

मैं आज तक नहीं समझ पायी कि इनके radical सोचों का इन सब से इतने विरोधाभास क्यों है....पूछेंगे तो कहेंगे अरे नज़ला के रोगी को क्या antibiotic दी जाती है. ज़िंदगी में हमेशा दो और दो चार नहीं होते. आम आदमी आम आदमी की तरह जीना सीख ले उसके बाद सिद्धांतों की खेती....ज़मीन तैयार करनी होती है मैडम. ख़ुद मानो बरट्रेंड रसेल के अवतार हो गए हों....ज्ञान गुफ़्ता शुरू. चाय की रिश्वत इन्हें फिर से मुझ तक लाती है.😊

Contd......

अक्षत : विजया

गद्य रचनाएँ
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मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि बचपन से ही मैं एक ऐसे इंसान से जुड़ गयी जो बहुत बार मुझे भी इस दुनिया का नहीं लगता.
कभी कभी उसके किसी भी मिशन में ज़रूरत से ज़्यादा involvement को देख कर कोफ़्त और ग़ुस्सा भी आता है लेकिन दिल का प्यार और दीमाग की आपसी समझ उसकी सहजता के साथ मिल कर सब कुछ को पल में ही फुर्र कर देते हैं.

हर समय तीन चार मिशन चलते रहते हैं जिसमें लोगों को उनके अंतरंग से सम्भाल पाने की राह यह बन्दा इंगित करता है और भूल भी जाता है तभी इतना जोश और होश बनाए रख पाता है.

उनका हर मिशन एक या अधिक गम्भीर कहानियाँ और कभी कभी तो बहुत ही हँसने हँसाने और ख़ुश हो जाने की सामग्री मुहैय्या करा देता है.

कुछ कहानियाँ शेयर करूँगी, हाँ जैसा मैंने अपनी नज़र से देखा. सच्ची घटनाएँ हैं ये बस नाम बदल दिए हैं पात्रों और स्थानों के और घटना क्रम को भी रूपांतरित कर दूँगी ताकि privacy बनी रहे.

अक्षत.....
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नाम जैसा ही साबित हुआ....मज़ाल कि उसका थोड़ा सा भी क्षय हो....क्षय के लिए तो उसके अलावा पूरी दुनिया जो है.

पता चला कि शैली और अनिल का बेटा अक्षत थिन्नर (जो वायटनर के साथ आता है) सूंघता है, कफ सीरप की बोतलें पी जाता है, ब्रेड पर मक्खन की जगह  आयोडेक्स को लगा कर खा जाता है. Drug addiction की दिशा में ये पहले क़दम होते थे अक्षत के.

शैली अनिल के अंतर्जातीय प्रेम विवाह के समय हम लोगों ने 'आउट ओफ़ द वे' जाकर समर्थन और सहयोग दिया था. फिर कालांतर में डूबा वंश कबीर का उपजे पूत कमाल😊
अक्षत साहब आए थे इस ज़ालिम दुनिया में.

अक्षत का पढ़ने में नहीं लागे दिल....क्लासे बंक करना...आवारा लड़कों के साथ घूमना. शैली का शिकायत करना इनसे, रास्ता पूछना, मगर कभी भी इनकी बात भी नहीं मानना मानो साप्ताहिक एपिसोड हो गया हो....मैं कहती क्यों समय बर्बाद करते हो यह सब सुनने में. कहते माँ का दिल है, हल्का कर लेती है मुझे कह कर.

अक्षत घर से पैसे भी चुराने लगा, व्यवहार भी बहुत wayward हो गया है सुनते थे शैली से. अच्छी स्कूल में पढ़ता था वहाँ से निकाल दिया गया...इन्होंने कोशिश करके एक NGO द्वारा चलायी जाने वाली एक साधारण स्कूल में दाख़िला करवा दिया. गिरते पड़ते कोलेज तक पहुँच ही गया.

अक्षत को दो एक बार घर बुला कर भी समझाया मगर गर्दन झुका कर सुनता रहता, उठते समय हम दोनों के पाँव छू लेता मगर बिना कोई वादा किए चल देता. शैली कुछ दिन उसमें आए पॉज़िटिव बदलाव की ख़बर बता कर ख़ुश होती फ़िर अचानक वही ढर्रा शुरू. ....और इनका तकिया कलाम, "बस कोशिश करते रहें यही तो हम कर सकते हैं बाक़ी माँ की मर्ज़ी."

अनिल चल बसा अचानक. ये और इनका एक दोस्त उसके घर गए. संस्कार के लिए तैय्यारी हो रही है, शैली का हाल बेहाल था. अनिल की माँ निशब्द थी....पथराई सी आँखों से सब होते देख रही है.

अक्षत कहाँ ?.....पूछा था इन्होंने. कुछ देर बाद अक्षत हाज़िर हुआ शानदार नए कपड़े पहने हुये. प्रणाम पाती की....

इनके दोस्त ने पूछा, "अक्षत तुम्हारे पापा असमय चल दिए और तुम्हें पड़ी है नहाने और नए कपड़े पहन ने की..दीमाग फिर गया लगता है."

अक्षत बोला, "हाँ अंकल सच में फिर गया है.  विनोद अंकल की सब बातें आज याद कर रहा हूँ. पापा की मौत का ज़िम्मेदार सिर्फ़ मैं हूँ. अंकल कह रहे थे ना मम्मी से कि आत्मा तो अमर है अनिल ने बस चोला बदला है.....मैंने भी सोचा कि चोला बदल लूँ....पापा को कंधा दूँ...अग्नि के सुपुर्द कर एक नया अक्षत बन कर लौटूँ और मम्मी को यह साबित कर के दिखा दूँ कि अक्षत के रूप में अनिल मौजूद है."

लोग अक्षत की इस बेजा हरकत और प्रलाप सहित सारी हरकतों और घटनाओं की दबी ज़ुबान से भर्त्सना कर रहे थे, मानो अनिल के चले जाने, शैली और माँ के दुःख से ज़्यादा महत्वपूर्ण अक्षत का पोस्ट मोर्टेम हो.

विनोद ने अक्षत को उसी प्रेम और करुणा के साथ गले लगा लिया था बस यही कहा था, "आज बोले तो हो....नया जन्म मुबारक हो अक्षत. अब जो भी रिचूअल्ज़ है उन्हें पूरा करो."

अक्षत आज एक CA है और रियाद की एक कन्स्ट्रक्शन कम्पनी में CFO लगा हुआ है. ड्रग ऐड़िक्ट्स के rehabilitation के लिए काम करने वाले एक NGO को अपनी आय का पंद्रह प्रतिशत नियम से देता है. आज भी जब मिलने आता है इनके सामने गर्दन झुकाए चुप चाप बैठा रहता है....जो कुछ कहते हैं सुनता है....पाँव छूकर मुस्कुराता है जब इनका हाथ पीठ पर होता है और मुझे प्रणाम कर चल देता है....मुश्किल से चार छह लफ़्ज़ बोलता होगा.

उस दिन शैली कह रही थी की अक्षत का साथ काम करने वाली एक पाकिस्तानी लड़की से प्यार हो गया है, समस्या है कुछ हल बताइये गाइड करिए.

इन्होंने कहा  "दोनो को एक कर दो....देशों को तो एक नहीं कर सकते दिलों को तो एक कर दें."

शैली और मैं अचम्भित नहीं हुए क्योंकि लीक से हट कर सोचना और करना इनकी फ़ितरत है मगर बेसिक्स से कभी भी समझौता नहीं.

शैली की आँखें नम थी.

Sunday 24 March 2019

अपनी पहचान खोज लो : विजया




अपनी पहचान खोज लो....
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अनजानी राहें तो क्या
बैखोफ हो तुम बढ़ चलो
रास्ते के शजरों में
अपनी पहचान खोज लो...

धूप जो निकली तेरे लिए
चन्द घड़ियों की मेहमान है
तरीकियों से लड़ सको
ऐसा सामान खोज लो....

घनघोर घटाएँ छायी है
बादलों का गर्जन है
बिजलियों की चमक में
अपने अरमान खोज लो .....

बाज़ उड़ना छोड़ कर
क़तरा रहा है उड़ने से
उसके घायल पंखों में
ऊँची उड़ान खोज लो...

साथ देता वक़्त उन्हें
जो साथ अपना दे सके
चाँद तारों की इबारत में
'उसका' फ़रमान खोज लो....

ग़ैरों के घर टिकना क्या
संग अपनों का जब ना रहा
भटक रहे क्यों हो यहाँ वहाँ
ख़ुद का मकान खोज लो...

क़समें वादे तोड़ कर
ये बिछड़ जाने के सबब
सफ़र अकेले जब करना
अपना ईमान खोज लो ....

ग़मग़ीन होकर रुक गए
ज़रा अश्क़ अपने पौंछ लो
शूलों भरी है ज़िंदगी
उस में मुस्कान खोज लो...

प्रेम नदी : विजया


प्रेम नदी....
++++++
मैं थी और हूँ,
प्रेम-नदी
तुम्हारी नस नस में,
सुनामी
तुम्हारी वांछाओं की,
मधुर स्मित
तुम्हारे मुख मंडल की....

बनी हूँ मैं,
शाश्वत अंकन
तुम्हारे संसार का,
आनंद गीत
तुम्हारे अधरों का,
इंद्रधनुष
तुम्हारे जीवन का....

हो जाऊँ मैं,
प्रेरक विचार
तुम्हारे मस्तिष्क में,
लिपि
तुम्हारे आत्म पटल की,
लौ
तुम्हारे शांति दीप की....

( पुरानी रचना )

रंग उसके दर्द के,,,,,,


रंग उसके दर्द के,,,,,

########
उतरी थी चाँदनी
हल्की सी नीली रंगत के साथ
झिलमिल चाँदी सा रंग लिए
उसकी लटों में,,,,

जगा दी थी
मादक रजनीगंधा ने
तीव्र अभिलाषा
मन से तन के
तन से आत्मा के
स्पर्श की,,,,,

जीत लिया था
प्यार की सच्चाई भरे
काव्य मरु उद्यान ने
उसकी आँखों को
करके सृजित
कल्पना मनहर कला की,,,,

करती है चित्रित वह
अपने प्रेम को
आधा अधूरा सा
इन दिनों
अपनी ही त्वचा के केनवास पर
पहना है जहाँ उसने
स्वयं के कोमल हृदय को
एक वस्त्र की तरह,,,,

देखो ना !
झलक रहे हैं
रंग उसके दर्द के
घुले हुए से
उसकी कविताओं में,,,,

Friday 22 March 2019

ऐंनकों के पीछे : नीरा

थीम सृजन : रंग रंग रंग
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ऐनकों के पीछे से....
#########
सर्दी की गुनगुनी धूप
और दो अदद कुर्सियाँ
चुप चाप तकती सी
बरामदे से बाहर की जानिब,
गुलमोहर के पेड़ पर
चहचहाती  मैना,
जूही-चमेली-गुलाबों की
मदमस्त ख़ुशबू,
आ जाओ ना बैठें
तुम और मैं
लेकर दो प्याली
लौंग वाली महकती
गर्म चाय...

बाँट लेते हैं
कड़क चाय की चुस्कियों के साथ
दिल की बातें
मैं और तुम ,
आओ ना
कर लें ज़रा चर्चा
ज़िन्दगी के
गहरे फीके रंगो पर.....

आओ ना
झाँक लें थोड़ा सा
अपनी अपनी ऐनकों के पीछे से
एक दूजे की आँखो में,
ढूँढ लें फिर से
अपनी बालपन की
गुमशुदा चाहत......

भर लें हम फिर से
नए नए रंगों से
ज़िंदगी के कैनवास को
उकेर कर
उन बीते पलों की तस्वीरें
जिनके एहसास
आज भी है
कल भी रहेंगे
तुम को भी
मुझ को भी....

Neera2019

मैं एक इंद्र धनुष....: विजया

थीम सृजन : रंग
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मैं हूँ एक इंद्र धनुष....
++++++++++
'लाल' है रंग
मेरे जोश और जूनून का
लाल ही तो है
जो पलटवाता रहता है मुझ से
जीवन का हर पन्ना....

'नारंगी'
लगता तो शांत सा है
लेकिन है यह रंग आग का
यही तो वो रंग है
जो रखता है सम्भाले
मेरी सारी तमन्नाओं को...

बना देता है
यह 'पीला'
बावरा और निरंकुश मुझ को
रखता है किंतु यही रंग
मुझ को
कोमल और शालीन भी.....

निराला है ना
यह 'हरा' रंग
इसके पास ही है मगर
कुंजी
मेरी फंतासियों की
मेरे अजब ग़ज़ब सपनों की.....

'असमानी' तो है
रंग मेरे आँसुओं के समंदर का
यही तो है आकाश मेरा
समाए हुए ख़ुद में
मेरे सारे के सारे
ग़लत सही डरों को....

यह जो 'नील सा' रंग है ना
है बहुत ख़ूबसूरत
कर भी जाता है
बहुत दुखी मुझ को
अटक कर
बीच ख़ुशी और ग़मगीनी के
दीवानगी और शादमानी के.....

आख़री है मगर कम नहीं किसी से
यह 'बनफ़शा' रंग,
ना जाने क्यों
कर देता है यह
विचलित सा मुझ को
कुछ ज़्यादा ही दुखी दुखी सा,
उगा कर असमंजस
ख़ुश होने और भूखे होने के बीच
यही तो रंग है
करता है जो तय
मिज़ाज मेरा....

जब बन्ध जाते हैं ये रंग
एक दूजे से,
बना देते हैं ये
रहस्यमय मन मेरा
धड़कता हुआ दिल मेरा
निर्मल आत्मा मेरी !

('बनफशा' का प्रयोग violet रंग के लिए किया है, मुझे यह 'बैंगनी' से ज़्यादा सटीक लगा.)

(Roy. G. Biv.(Red, Orange,Yellow,Green, Blue,Indigo,Violet....Colours of Rainbow)

Monday 18 March 2019

इन्द्र धनुष सा,,,,,

थीम सृजन : रंगों के रंग
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इंद्र धनुष सा,,,,,
########
चितेरे !
कर देना मुझे चित्रित
ख़ुद की आँख से,,,,

दिखाना मुझे मेरे सहज रंग में
जैसा हूँ मैं बिल्क़ुल ही वैसा
उकेर देना गहन सोचों में डूबे 'मुझ' को
स्याह और सफ़ेद
अपूर्ण और दाग़ दार
रहते हुए क़ुदरतन हरे से जंगल में,
डूबा कर कूँची थप्पी के नाना रंगों में
फैला देना केनवास पर
इस छोर से उस छोर तक,
कर देना पैंट मुझे कुछ 'ख़ास'
दिखाते हुए
बूंदा बांदी के बाद उभरे इंद्रधनुष सा
रखना ख़याल
रंगों को कुछ यूँ ना मिला डालो
दिखने लगूँ मैं चिकट धब्बे सा काला
या सफ़ेद मटमैला,,,,

कर देना अंकित
उसी केनवास पर
कीचड़ रंग में मेरी क्षुद्रता को
सुस्त रंग में मेरी निर्बलता को
गहरे-फीके रंगों में मेरी वांछाओं को
भड़कीले रंग में मेरी वासनाओं को
धुँधले से रंग में मेरे पछताओं को
अस्पष्ट रंगों में मेरे दीमागी चक्रवातों को,
हाँ दे देना मेरी आशावादिता को
भोर का चाँदी सा रंग
रंग देना मुझ को आकाश के नीले रंग में
भूल ना जाना
मेरे विगत की खरोंचों को पर्पल में रंगना,,,,

मत माँडना
मेरे क़द को मुझ से लम्बा
मत जताना पत्थर शक्ल मुझ को
अंक लेना मुझे एक नन्हें पंछी सा
कोमल सा... रेशमी पंखों वाला,
लय में बजते सितार सा
सुर संगीत संग मधुर गीत सा
रंगों में सराबोर तितली सा
धीरज की मूरत सा
होशमंद हिम्मतवर सा,
नहीं हो ऐसे रंग गर पास तेरे
माँग लेना, ख़रीद लेना या चुरा लेना
कर देना किंतु पूरा यह चित्र मेरा
येन केन प्रकारेण !

रंगरसिया !
पेश ना कर देना मुझे
कुटिल से फ़िरोज़ी में,
मिलाकर लेवेंडेर को मरून में,
डाल कर जामनी को अम्बर में,
और ना ही घोल देना एक संग
हिम खंड और नीलाभ चाँद के रंगों को,
तलाश लेना मेरी हार के लिए कोई और रंग
खोज भी लेना दूजा रंग मेरे जुनून के लिए,
मत करना तुम इस्तेमाल
फ़िलहाल पीले रंग का
रख लेना बचाकर उसको
एक और तस्वीर के लिये,,,,

कैसा रहेगा रे !
याक़ूती रंग मेरे दिल के लिए ?
करो ना जब चित्रित मेरे ज़ख़्मी दिल को
जोड़ देना तुम ख़ून जैसे लाल में
बिखरे दीवाने बादलों वाला नीला रंग भी
जो बरस कर थोड़ा सा
निकल पड़े हो किसी अनजाने सफ़र में
मेरे दोस्त रंगसाज !
एक दोस्ताना नसीहत,
चुनने से पहले रंगो को
कर लेना तुम भी महसूस
मेरी रूह में छुपे दर्द को
जो लड़ता रहता है
मेरी ख़ुशियों और सुकून से,,,,

चितेरे !
कर देना मुझे चित्रित
मेरी ही आँख में
घोल कर यथार्थ और साहस के रंग
तोड़ पाऊँ ताकि अनुकूलन सदियों का
देख कर ख़ुद को,,,,

शल्य चिकित्सा : विजया



शल्य चिकित्सा...
+++++++++
बहता है 'गहरा लाल' रक्त
भग्न हृदय से
जो है तनावग्रस्त
मौन क्रूरता के 'जामुनी' भय से ,
बींधा है जिसे
अपनी ही सोचों के
'नीले नीले' काँटों ने
जिन्हें कह देते हैं हम शिरायें,
दृष्टांत और दृश्य चहुं ओर के
जगा देते हैं कुत्सित भाव
भरते हुए ईर्ष्या का 'गहरा हरा' रंग आँखों में,
मचा देता है उत्पात ऐसे में
कपोलों का 'गुलाबी' रंग
फैल कर 'बेरंग' देह में,
हो जाता है सब कुछ बदरंग
गिरगिटी स्वार्थपरता से
करना होता है निदान और निर्णय
आत्मा के मवाद भरे
लाल-सफ़ेद घाव की
शल्य चिकित्सा का....

तड़फ जुदा होने की ....

छोटे छोटे एहसास
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जुदा हो कर भी
होती रहे जो जुंबिश
इजहारे ख़ुशी
हासिले आज़ादी कहें
के  तड़फ जुदा होने की,,,,

रंग तुम्हारे : विजया

थीम सृजन : रंग
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रंग तुम्हारे मेरे हमारे......
+++++++++++
सुनो !
होते हो तुम जब भी हरे
अपना लेती हूँ
धरती सा भूरा रंग तुम्हारे लिए
करते हुए प्यार फूलों को
बन जाती हूँ मैं तब तब
एक ठोस आधार तुम्हारे लिए.....

हो जाती हूँ मैं
रंग आसमानी तुम्हारे लिए
होते हो जब जब ताम्बई तुम
हों जाते हैं हम
सुंदरतम महासागर
जिसे किसी भी आँख ने
शायद ही देखा हो कभी....

जब जब होते हो तुम नीले
हो जाती हूँ मैं तुम्हारी रक्त वर्णा
रुलाने लगती है
जब भी कोई चोट तुम को
हो जाता है महसूस मुझे
वो दर्द तुम्हारा....

होती हूँ मैं 'नारंगी रंग' तुम्हारा
जब जब होते हो तुम गुलाबी
होते हैं हम ग़ज़ब का सूर्यास्त
लिखा करता है जिसे कभी कभी
यह आसमां हमारा....

होते हो तुम बैंगनी जब जब
होती हूँ मैं 'बेज' रंग तुम्हारा
रचते हैं हम मिलकर एक अपूर्व दृश्य
चाँदनी रात में सोया सहरा
हो जहाँ टीले बालू के
सरोबार रंगों में
तेजपते के हरे रंग की झलक लिए...

जब जब होते हो तुम धूसर(ग्रे)
हो जाती हूँ मैं इन्द्रधनुष तुम्हारी
हो जाते हैं हम
सब से सुखद तूफ़ानी बारिश
जो नहीं जानी हो दुनिया ने कभी.....

सुनो !
होंगे जब जब तुम श्यामवर्ण
हो जाऊँगी मैं श्वेत तुम्हारा
करते हुए विलय सब रंगों को
कर दूँगी सही सब कुछ......

लेकर प्रेम के समस्त रंग
मेरी थप्पी में
आँकते हुए जानदार सूर्योदय और शानदार सूर्यास्त को,
रंग दूँगी सुबहें तुम्हारी
चमका दूँगी दिनों को तुम्हारे
हो रहे होंगे जब भी तुम आहत
किसी के फरेब, छलाव और झूठों से,
उतार लाऊँगी शांत गहरी रातों में
सितारे गगन से
और भर दूँगी उनको
तुम्हारी उदास आँखों में......

हम बंजारे...



हम बंजारे
बसाए रखते हैं
घर अपना
अपनी ही रूह में
हर लमहा,
छोड़ देते हैं मगर
कुछ साजों सामाँ
हर कूच से पहले,
रखते हैं महफ़ूज़
चन्द अक्स प्यारे से
चंद यादें मीठी खारी  
बनाकर दौलत अपनी
छूटनी है वो भी    
इस बार की
कूच से पहले,,,,,

Monday 11 March 2019

अनीश्वर : विजया



अनीश्वर....
+++++
दिखा झलक स्त्रित्व की
स्वस्तित्व में
माना अर्धनारीश्वर हो गये...

है प्रतिफल समर्पण का
या कोई चमत्कार
स्वामी से अनुचर हो गये...

अमिट प्रेम हो
बसकर मेरे मन मंदिर में
स्वयंभू अनश्वर हो गये...

मत सोचो
धारण कर
नाम 'अनीश्वर' को
तुम कोई ईश्वर हो गये....

('अनीश्वर' शिव के नामों में से एक है जिसका अर्थ है जिसका कोई मालिक नहीं हो, कविता में इस शब्द को इसी अर्थ में प्रयोग किया गया है. आमतौर पर अनीश्वर का सम्बंध नास्तिकों के अनीश्वरवाद से जोड़ा जाता है.....मज़े की बात है ना कि हम आस्तिकों के ईश्वर ने अपना नाम अनीश्वर धर रखा है....बाक़ी कविता के भाव कह रहे हैं 😊😊😀)

दो ख़्वाब : क़िस्सा मुल्ला नसीरुद्दीन का --विजया



दो ख़्वाब : क़िस्सा मुल्ला नसरुद्दीन का.....
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मुल्ला नसरुद्दीन सुबह-सुबह चाय पीते समय अख़बार पढ़ते बड़ा ही शरारती होकर अपनी बीवी  से बोला, "कहना तो नहीं चाहिए, लेकिन तुझसे मैं कुछ भी छिपाना भी नहीं चाहता। दुख तुझे होगा, मगर ध्यान रखना यह केवल सपने की बात है, यह कोई सच नहीं है. नाहक तूल मत दे देना. तिल का पहाड़ मत बना लेना. इधर कुछ अरसे से रोज़  रात मेरे ख़्वाब में तेरी सहेली रुखसाना आती है."

बीवी तिलमिला गई. ख़्वाब में ही सही, यह कोई बात हुई.  जलन की अगन जग गयी.  चाय की ट्रे को वह ज़ोरों इधर उधर करने लगी. भूचाल सा आ गया था.

कहा मुल्ला ने, "अरे  मैंने तो पहले ही कह दिया था कि यह महज़ ख़्वाब की बात है, रात गयी और बात गयी."

बीवी ने  कहा, " मियाँ, तो फिर तुम भी ज़रा सुन लो.  मैं भी कहना नहीं चाहती थी. चलो बताओ मेरी सहेली अकेली ही दिखाई पड़ती होगी ना सपने में."

मुल्ला ने कहा, " यह बात तो सच है, लेकिन तू इस भीतरी बात को कैसे जानती है."

बीवी ने आँख मारते हुए कह दिया, "अमाँ बात बस इत्ती सी है. उसका हबी फ़रीद तो मेरे सपने में आता है. अकेली ही तो आएगी ."

मुल्ला भन्ना गया. चुन चुन कर ऊँची आवाज़ में उसे बेवफ़ा, बेग़ैरत, गिरी हुई और ना जाने क्या क्या कहने लगा. हाथ भी उठा लिया उसने मारने को.🤣🤣🤣🤣🤣🤣

पृथकत्व और एकत्व,,,,



पृथकत्त्व और एकत्त्व
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होती है महत्त भूमिका
मान्यताओं
धारणाओं
परिकल्पनाओं की
ज़िंदगी को देखने में,,,,,,

पृथकत्त्व :
जीवन यात्रा के
अधिकांश राही
अपनाते हैं इस धारणा को
'शायद या शायद नहीं' के
ऊहापोह में,
कर देते हैं व्यतीत
जीवन समस्त
जुड़े बिना
स्वयं और विराट से,,,,,

एकत्व :
होता है समाहित इसमें
देखना क्षण प्रतिक्षण
संभावनाओं और सकारात्मकता को
करते हुये भरण विच्छेदों का,
सच में तो यह है खोज
उन छद्म भेदों की
नहीं है जिनका कोई भी अस्तित्व
आरम्भ से ही,,,,

यात्राएँ जीवन की
होती है खेल
इन्हीं चिंतनों का
जो बनाते रहते हैं
हम यात्रियों के लिए
नाना परिभाषाएँ
भेद अभेद
पृथकत्त्व एकत्त्व की,,,,,,