खेल रिश्तों के.....
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दिखाये हैं खेल कई रिश्तों ने
हर लम्हे जाने और अनजाने में
कभी मय में रहे शीशे
कभी शराब थी पैमाने में....
कभी खुरची थी हम ने परतें
कभी लोग ख़ुद ब ख़ुद नंगे हो गए
उतर गए थे सारे पैरहन औ गहने
अचानक ज़िन्दगी में जब पंगे हो गए....
देखी थी शातिरी छुपी सी नादानी में
बनी थी अलहड़ता पर्दा काइयाँपन का
खिलाड़ी बन खेले हम अनाड़ी जब
अक्स होशियारी में दिखा था भोलेपन का....
चालाकी से हुआ सामना जब बेवक़ूफ़ी का
बावरापन हुआ था मुख़ातिब, हो कर एक दीवाना
जली थी शम्मा शातिरी की उस शाम यारों
जला ना था मगर लौ में हो कर कोई परवाना....
दिखाने को रंग फ़ितरत के
नाकाफ़ी है लम्बी सी एक कहानी भी
देखा समझा; बढ़ गए हैं हम आगे
बना रही सयाना हम को, ये जिंदगानी भी.....
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