गद्य रचनाएँ
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निशा और पंकज......(3)
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(मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि बचपन से ही मैं एक ऐसे इंसान से जुड़ गयी जो बहुत बार मुझे भी इस दुनिया का नहीं लगता.
कभी कभी उसके किसी भी मिशन में ज़रूरत से ज़्यादा involvement को देख कर कोफ़्त और ग़ुस्सा भी आता है लेकिन दिल का प्यार और दीमाग की आपसी समझ उसकी सहजता के साथ मिल कर सब कुछ को पल में ही फुर्र कर देते हैं.
उसके मिशन्स की कुछ कहानियाँ शेयर करूँगी, हाँ जैसा मैंने अपनी नज़र से देखा. सच्ची घटनाएँ हैं ये बस नाम बदल दिए हैं पात्रों और स्थानों के और घटना क्रम को भी रूपांतरित कर दूँगी ताकि privacy बनी रहे.)
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निशा इम्प्रेशनबल है. दूसरों को देख सुन कर अपनी दिशा तय करती है वो. फिर कोई बुनियादी अप्रोच भी नहीं, बदलती रहती है अपने तथाकथित convictions को...कभी कभी तो बिलकुल ही उलट. पैसा, दिखावा और शारीरिक आराम प्राथमिक है उसके लिए. जीवन मूल्य और आदर्श को केवल किताबी बातें समझती है. ख़ुद की कर्कशता और outbursts नैसर्गिक प्रतिक्रियाएँ और किसी दूसरे का किया धारा रूड्नेस और क्रूअल्टी.
दोहरे मापदंडों को जीने लगी है निशा. उसके अनुसार पंकज को अक़्ल कम है, दुनिया कहाँ से कहाँ चली गयी और वो वहीं का वहीं जम कर खड़ा हुआ है. और ख़ुद, बाप रे ऐसा कैरी करती है ख़ुद को कि जो भी ब्रांड्ज़ पहने हो वो कम्पनियाँ हर्ट हो जाए.
पंकज भी कम नहीं. अव्वल दर्जे का ईमानदार और sincere अपने काम में लेकिन इसका इतना घमंड की ज़िंदगी की छोटी छोटी बातें अनदेखी कर देता है. अपने असहिष्णु व्यवहार को स्पष्टवादिता कहता है. मितव्ययिता उसके मर्दाना ईगो से जुड़ कर घटिया कंजूसी हो जाती है. दरियादिली भी अपनी मर्ज़ी की बात, सामने वाले की इच्छा और समय की अनुकूलता को नज़रअन्दाज़ करते हुए.
मन में यह ठूँस ठूँस कर भरा हुआ कि मैं कमाता हूँ और तभी घर चलता है. मैं मर्द हूँ, हेड ओफ़ द फ़ैमिली हूँ, सब कुछ मेरे मन का ही होना चाहिए. पर्सनल हायिज़िन में बिलकुल negligent. जिस्म की कोई परवाह नहीं, चेहरा मोहरा सब ठीक लेकिन खानपान और सेडेंटेरी जीवन शैली के चलते हलवाई जैसी बाडी लिए घूमता है.
दोनों के ये सोच दोनों के अपने अपने व्यवहार में बिंबित होते थे और नतीजा रोज़ की खींच तान और अशांति. Low और high libido की समस्या आग में घी का काम करती. मेरे जाने तो यह गाड़ी चल ही नहीं सकती थी. ....और साहेब कि हमेशा कहता रहता, "तुम भी extreme हो, अरे सब ठीक हो जाएगा....इन सब में ज़्यादातर acquired है, आसपास से ग्रहण किया हुआ जी अहित करा रहा है इन बेवक़ूफ़ों से. आदमी के बच्चे हैं पशु की सन्तति नहीं देखना जब कचरा हटेगा तो बम बम* हो जाएगा"
उसके बाद ग्रेस के साथ जब खीसे निपोरी जाती तो समझ में आ जाता चाय होनी है और चुस्कयों के साथ निशा-पंकज की भागवत बंचनी है. कभी कभी तो साहेब भूल जाते हैं सामने निशा नहीं बक़लम ख़ुद मैं बैठी हूँ.....और निशा को जो ज्ञान दिया जाने वाला हो, मुझे deliver कर देते हैं. कोई वाइब्ज़ बनाते होंगे😜😜😜😂😂😂
* यह उस समय का तकियाकलाम था. इन दिनों जब से 'संजू' देखी है 'गपा गप' हो गया है.
अरे हाँ, प्रभा दीदी (स्वर्गीय डा. प्रभा खैतान) की पुस्तक 'बाज़ार के बीच : बाज़ार के ख़िलाफ़- भूमंडलीकरण और स्त्री के प्रश्न' से कुछ पढ़ा था, चलिए आप भी पढ़ लीजिए.
पुरुष प्रधान गृहस्थी में ऐतिहासिक रूप से स्त्री दमित है. घर गृहस्थी के कामों के अलावा इस विकसित जीवन शैली में स्त्री के काम के घंटे और बढ़ जाते हैं. स्त्री पुरुष की भूमिका में परिवर्तन आवश्यक है, स्त्री को स्वतंत्र भी होना है लेकिन उपभोक्ता वस्तुओं की ख़रीदारी के लिए नहीं. उसे तो सृजनात्मक रूप से अपने आप को व्यक्त करना है, वस्तु निर्भरता से मुक्त होना है और बाज़ार की भीड़ से अलग ख़ुद की पहचान बनानी है. जब कि ठीक इसका उलटा हो रहा है. बाज़ार की भीड़ में स्त्री का भी वस्तुकरण हो रहा है......
स्त्री पुरुष के सम्बन्धों की जाँच परख समाज के संदर्भ में भी होनी चाहिए और हमारा समाज हमारे तमाम सपनों को आज बाज़ार में बेच रहा है.......... जो यह वादा करता है कि तकनीक के माध्यम से आदमी के पास इतना समय और साधन होंगे कि वह दूसरे आदमी से सम्बंध स्थापित करे और सच्ची सृजनातमकता का फ़ायदा उठाए. उलझन तो यह है कि अधिकतर समस्याओं का हल अमूर्त तथ्यों में खोजते हैं........बड़ी बड़ी बातें करने से समस्या सुलझेगी नहीं.
काश निशा और हम सब जाने, सोचें, पढ़ें और समझें कहीं हम अधिकारों और कृतव्यों के बीच अहम अथवा भ्रमवश असंतुलन लाकर ख़ुद को खो तो नहीं रहे हैं.
मुझे तो लगता है 'साहेब' के अंदर बसे नारी और पुरुष जीवन को एक प्रयोगशाला समझ कर अन्वेषण करते रहते हैं जिसका लाभ सब को पहुँच सकता है. अब उसके रसायनों और उपकरणों को कुछ कुछ समझने लगी हूँ, चूँकि विषयवस्तु मानव होते हैं रसायनों और उपकरणों का प्रयोग भी अनूठा होता है और ये कहानियाँ उन प्रयोगों की गाथाएँ है, जिनका उद्देश्य workable solutions पाना होता है. भाषण में सुनना पड़ता है, "कौन पर्फ़ेक्ट है तुम हो, मैं हूँ अरे वो भगवान भी नहीं तभी तो नमूने बना बना कर ज़मीन पर छोड़े जाता है."😂😂😂
हाँ तो आज का पोस्ट 'ज्ञानवंत' हो गया. आपका मन होगा कि निशा पंकज का कुछ तो कहा जाय. मगर आज भूमिका ही होने दीजिए ना.
Contd.......
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निशा और पंकज......(3)
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(मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि बचपन से ही मैं एक ऐसे इंसान से जुड़ गयी जो बहुत बार मुझे भी इस दुनिया का नहीं लगता.
कभी कभी उसके किसी भी मिशन में ज़रूरत से ज़्यादा involvement को देख कर कोफ़्त और ग़ुस्सा भी आता है लेकिन दिल का प्यार और दीमाग की आपसी समझ उसकी सहजता के साथ मिल कर सब कुछ को पल में ही फुर्र कर देते हैं.
उसके मिशन्स की कुछ कहानियाँ शेयर करूँगी, हाँ जैसा मैंने अपनी नज़र से देखा. सच्ची घटनाएँ हैं ये बस नाम बदल दिए हैं पात्रों और स्थानों के और घटना क्रम को भी रूपांतरित कर दूँगी ताकि privacy बनी रहे.)
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निशा इम्प्रेशनबल है. दूसरों को देख सुन कर अपनी दिशा तय करती है वो. फिर कोई बुनियादी अप्रोच भी नहीं, बदलती रहती है अपने तथाकथित convictions को...कभी कभी तो बिलकुल ही उलट. पैसा, दिखावा और शारीरिक आराम प्राथमिक है उसके लिए. जीवन मूल्य और आदर्श को केवल किताबी बातें समझती है. ख़ुद की कर्कशता और outbursts नैसर्गिक प्रतिक्रियाएँ और किसी दूसरे का किया धारा रूड्नेस और क्रूअल्टी.
दोहरे मापदंडों को जीने लगी है निशा. उसके अनुसार पंकज को अक़्ल कम है, दुनिया कहाँ से कहाँ चली गयी और वो वहीं का वहीं जम कर खड़ा हुआ है. और ख़ुद, बाप रे ऐसा कैरी करती है ख़ुद को कि जो भी ब्रांड्ज़ पहने हो वो कम्पनियाँ हर्ट हो जाए.
पंकज भी कम नहीं. अव्वल दर्जे का ईमानदार और sincere अपने काम में लेकिन इसका इतना घमंड की ज़िंदगी की छोटी छोटी बातें अनदेखी कर देता है. अपने असहिष्णु व्यवहार को स्पष्टवादिता कहता है. मितव्ययिता उसके मर्दाना ईगो से जुड़ कर घटिया कंजूसी हो जाती है. दरियादिली भी अपनी मर्ज़ी की बात, सामने वाले की इच्छा और समय की अनुकूलता को नज़रअन्दाज़ करते हुए.
मन में यह ठूँस ठूँस कर भरा हुआ कि मैं कमाता हूँ और तभी घर चलता है. मैं मर्द हूँ, हेड ओफ़ द फ़ैमिली हूँ, सब कुछ मेरे मन का ही होना चाहिए. पर्सनल हायिज़िन में बिलकुल negligent. जिस्म की कोई परवाह नहीं, चेहरा मोहरा सब ठीक लेकिन खानपान और सेडेंटेरी जीवन शैली के चलते हलवाई जैसी बाडी लिए घूमता है.
दोनों के ये सोच दोनों के अपने अपने व्यवहार में बिंबित होते थे और नतीजा रोज़ की खींच तान और अशांति. Low और high libido की समस्या आग में घी का काम करती. मेरे जाने तो यह गाड़ी चल ही नहीं सकती थी. ....और साहेब कि हमेशा कहता रहता, "तुम भी extreme हो, अरे सब ठीक हो जाएगा....इन सब में ज़्यादातर acquired है, आसपास से ग्रहण किया हुआ जी अहित करा रहा है इन बेवक़ूफ़ों से. आदमी के बच्चे हैं पशु की सन्तति नहीं देखना जब कचरा हटेगा तो बम बम* हो जाएगा"
उसके बाद ग्रेस के साथ जब खीसे निपोरी जाती तो समझ में आ जाता चाय होनी है और चुस्कयों के साथ निशा-पंकज की भागवत बंचनी है. कभी कभी तो साहेब भूल जाते हैं सामने निशा नहीं बक़लम ख़ुद मैं बैठी हूँ.....और निशा को जो ज्ञान दिया जाने वाला हो, मुझे deliver कर देते हैं. कोई वाइब्ज़ बनाते होंगे😜😜😜😂😂😂
* यह उस समय का तकियाकलाम था. इन दिनों जब से 'संजू' देखी है 'गपा गप' हो गया है.
अरे हाँ, प्रभा दीदी (स्वर्गीय डा. प्रभा खैतान) की पुस्तक 'बाज़ार के बीच : बाज़ार के ख़िलाफ़- भूमंडलीकरण और स्त्री के प्रश्न' से कुछ पढ़ा था, चलिए आप भी पढ़ लीजिए.
पुरुष प्रधान गृहस्थी में ऐतिहासिक रूप से स्त्री दमित है. घर गृहस्थी के कामों के अलावा इस विकसित जीवन शैली में स्त्री के काम के घंटे और बढ़ जाते हैं. स्त्री पुरुष की भूमिका में परिवर्तन आवश्यक है, स्त्री को स्वतंत्र भी होना है लेकिन उपभोक्ता वस्तुओं की ख़रीदारी के लिए नहीं. उसे तो सृजनात्मक रूप से अपने आप को व्यक्त करना है, वस्तु निर्भरता से मुक्त होना है और बाज़ार की भीड़ से अलग ख़ुद की पहचान बनानी है. जब कि ठीक इसका उलटा हो रहा है. बाज़ार की भीड़ में स्त्री का भी वस्तुकरण हो रहा है......
स्त्री पुरुष के सम्बन्धों की जाँच परख समाज के संदर्भ में भी होनी चाहिए और हमारा समाज हमारे तमाम सपनों को आज बाज़ार में बेच रहा है.......... जो यह वादा करता है कि तकनीक के माध्यम से आदमी के पास इतना समय और साधन होंगे कि वह दूसरे आदमी से सम्बंध स्थापित करे और सच्ची सृजनातमकता का फ़ायदा उठाए. उलझन तो यह है कि अधिकतर समस्याओं का हल अमूर्त तथ्यों में खोजते हैं........बड़ी बड़ी बातें करने से समस्या सुलझेगी नहीं.
काश निशा और हम सब जाने, सोचें, पढ़ें और समझें कहीं हम अधिकारों और कृतव्यों के बीच अहम अथवा भ्रमवश असंतुलन लाकर ख़ुद को खो तो नहीं रहे हैं.
मुझे तो लगता है 'साहेब' के अंदर बसे नारी और पुरुष जीवन को एक प्रयोगशाला समझ कर अन्वेषण करते रहते हैं जिसका लाभ सब को पहुँच सकता है. अब उसके रसायनों और उपकरणों को कुछ कुछ समझने लगी हूँ, चूँकि विषयवस्तु मानव होते हैं रसायनों और उपकरणों का प्रयोग भी अनूठा होता है और ये कहानियाँ उन प्रयोगों की गाथाएँ है, जिनका उद्देश्य workable solutions पाना होता है. भाषण में सुनना पड़ता है, "कौन पर्फ़ेक्ट है तुम हो, मैं हूँ अरे वो भगवान भी नहीं तभी तो नमूने बना बना कर ज़मीन पर छोड़े जाता है."😂😂😂
हाँ तो आज का पोस्ट 'ज्ञानवंत' हो गया. आपका मन होगा कि निशा पंकज का कुछ तो कहा जाय. मगर आज भूमिका ही होने दीजिए ना.
Contd.......
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