Monday, 25 March 2019

ज़िंदगी की हक़ीक़तें-कहानी (१) : विजया



ज़िंदगी की हक़ीक़तें (धारावाहिक कहानी)
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(पहला अंक)

कल फ़ोन आया था निशु का.

"आंटी अंकल आप के साथ कल सुबह इन्फ़ोर्मल सा ब्रेक फ़ास्ट करने आऊँगी, मेरे लिए कल की सुबह रिज़र्व रखना, हम तीन ही होंगे और कोई नहीं. बहुत बातें करनी है, अपनी भी, आपकी भी, औरों की भी."
आवाज़ में खनक थी, हक़ जताने में थे स्नेह और आदर के स्पंदन.

मिल्स एंड बून वाला प्रेम था उनका. स्कूल से शुरू हुआ और कोलेज में ग्रैजूएट हो गया. मौक़ा मिले तो साथ साथ किसी केफे में समय बिताना, किसी यूथ इवेंट में साथ साथ शिरकत करना, ग्रुप फ़्रेंड्स के साथ मूवी देख लेना-हाँ मूवी थिएटर में पास पास बैठना-नाज़ुक कोमल सीन्स के वक़्त हैंड्ज़ होल्ड कर लेना, मूवी के बाद डच में सनेक्स खा लेना, आगे के केरियर पर डिस्कस करते रहना, बढ़ चढ़ कर फ़ैमिली मेम्बर्ज़ पर चर्चा करना, मज़ाक़ उड़ाना, चुहल करना, किसी और लड़की या लड़के को लेकर छेड़ना, देर रात फोन पर बतियाना या चैट करना... जिसमें मूवीज़-म्यूज़िक-बुक्स-फ़्रेंड्स-सब कुछ होना, छोटे छोटे झगड़े, रूठना, मनाना, हल्का फुल्का रोमांस, लव यू-मिस यू के डायलोग, लम्बी देर तक हाथ में हाथ -छू लेना चन्द मिनट्स के लिए-हग करनाऔर चूमना....दोनों में शायद ही किसी ने कहा होगा शादी करेंगे, घर बसाएँगे.....सपने ही तो दूसरे थे.....CAT क्रेक करना या GMAT के स्कोर....हायर स्टडीज़.....कुछ बनना.....शादी तो अजेंडा में ही नहीं.

पापा थे उसके एक सफल बिजनेस मेन. हर डील को अपने हित में देखने परखने वाले. कभी किसी का अनड्यू रखना नहीं मगर किसी को भी ड्यू से ज़्यादा देना नहीं. दोनों की हॉबनोबिंग को नोटिस किया था उन्होंने.  बढ़ती नज़दीकियाँ कुछ और शेप ले उस से पहले ही सब ठीक ठाक कर दिया जाय सोचा था उसके पापा ने. लड़के और परिवार का पूरा आकलन तन-मन-धन का. आर्थिक हैसियत बराबर की नहीं, रहन सहन बिलकुल मध्यवर्गीय जैसे छोटा फ्लेट-पुराना फ़र्नीचर-अनब्रांडेड कपड़े जूते फ़ोन-मारुति अल्टो गाड़ी, लड़के का भविष्य भी मोटा मोटी-क्या हुआ प्रोफ़ेसनल डिग्री पाने के बाद आठ दस लाख का पेकेज भी अगर मिल गया. निशु जिस तरह की ज़िंदगी की आदी है कैसे रह सकेगी . किशोर उम्र की दोस्ती अपनी जगह है, ज़िंदगी की हक़ीक़तें अपनी जगह. ना ना, प्रशांत निशु के लिए अच्छा जीवन साथी नहीं साबित होगा और निशु भी उसके लिए. बात अमीर ग़रीब की नहीं, कड़ी वास्तविकता की है. जो लड़की बड़ी गाड़ियों में सवार रही, जिसका अपना अलग फ़र्निस्ड बेडरूम है विद अट्टेच्ड स्टडी, साल में दो दफ़ा वेकेशन-देश विदेश में, पेरेंट्स के साथ क्लब लाइफ़ एंजोय करती है और भी ना जाने क्या क्या ?

यह जो लव है ना वह इन्फ़ैचूएशन ही तो होता है एक ऐसा आकर्षण जिसमें बायोलोज़ी और सायकोलोजी दोनो के छींटे लगते हैं, प्रेम क्या होता है कोई जान सका क्या आज तक ?, यह सब सोचते सींचते पापा व्यापारी से फ़िलोसोफ़र बन जाते. ज़िंदगी के अनुभवों ने भी बहुत कुछ सिखाया था उनको. एक पक्का फ़ेमिली मैन, निहायत ही ईमानदार, दयालु और परोपकारी, हेल्पिंग अट्टिट्यूड,पढ़े लिखे भी और बहुत पढ़े लिखों की संगत में रहने और सुने जाने वाले भी.

यह क़ुदरती बात ही तो है समझदार इंसान बात को हर एंगल से देख कर ही तो निर्णय पर पहुँचता है. हाँ तो 'पापाजी' ने बेटी के हित में सोचा और तय किया कि उसकी मम्मी और उस से खुल कर वन टू वन डिस्कस करेंगे.

(क्रमश:)

(साहेब याने Vinod Singhi को guidance और editing के लिए धन्यवाद.)

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