गद्य रचनाएँ
********
निशा और पंकज......(4)
बात उस रात की.....
+++++++++
(मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि बचपन से ही मैं एक ऐसे इंसान से जुड़ गयी जो बहुत बार मुझे भी इस दुनिया का नहीं लगता.
कभी कभी उसके किसी भी मिशन में ज़रूरत से ज़्यादा involvement को देख कर कोफ़्त और ग़ुस्सा भी आता है लेकिन दिल का प्यार और दीमाग की आपसी समझ उसकी सहजता के साथ मिल कर सब कुछ को पल में ही फुर्र कर देते हैं.
उसके मिशन्स की कुछ कहानियाँ शेयर करूँगी, हाँ जैसा मैंने अपनी नज़र से देखा. सच्ची घटनाएँ हैं ये बस नाम बदल दिए हैं पात्रों और स्थानों के और घटना क्रम को भी रूपांतरित कर दूँगी ताकि privacy बनी रहे.)
============================
हमारे बहुत समझाने पर निशा और पंकज तैयार हो गए कि दोनों के बीच की समस्या के हल के लिए वाक़ायदा वैज्ञानिक चिकित्सा का सहयोग लिया जाय. दोनो को एक कुशल psychiatrist के पास भेजा गया जिसने senior physician की राय लेकर दोनों का मेडिकेशन आरम्भ कर दिया और क्लिनिकल psychologist से Counseling सेशंज़ भी शुरू हो गए. इन सब के मिले जुले असर से पहले चार सप्ताह में कुछ पॉज़िटिव असर दिखने लगा मगर कुछ ही.....बोलचाल की भाषा में बोलें तो कोई चार आना. डाक्टरों द्वारा भी और हमारे द्वारा भी अच्छे से समझाने के बावजूद भी यह नोटिस हो रहा था कि दोनो का ही अपनी अपनी सोचों के मुताबिक़ एक्स्पेक्टेशन लेवल नए तरह से तैयार हो गया था.
उस दिन मौसम बहुत अच्छा था. पंकज को एक नए क्लाइयंट से अच्छे वॉल्यूम का काम भी मिला था. बहुत ख़ुश था वह. निशा को भी उसने फ़ोन करके अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की थी.
साहेब उसको ज्ञान दिया करता था कि अपने काम से रिलेटेड भी छोटी छोटी ख़ुशियाँ निशा और बेटियों से शेयर किया करो.....दिन भर में कुछ खट्टा मीठा जो भी रूटीन से हट कर होता है उसकी बात भी घर में किया करो, शाम को सब से पूछा करो उनका दिन कैसा बीता...कोई रोचक घटना या कुछ ऐसा जिसमें तुमको भी कुछ कंट्रिब्यूट करना है उसका भी ख़याल किया करो ...शायद पूरा तो नहीं लेकिन कुछ कुछ पंकज ज़रूर लागू करता था और नतीजे भी अच्छे ही मिलते थे सभी के बीच आपसी व्यवहार में नरमी के रूप में .
यह भी कहा करता था साहेब कि तुम जब भी घर जाओ वापस शाम को काम से लौट कर तो कभी कभी अचानक सबकी पसंद के खाने के items लेकर जाया करो, बुक या मैगज़ीन ले जाया करो.....समय समय पर फूल या छोटे छोटे गिफ़्ट्स....और तक कोई भी एक्स्पेक्टेशन नहीं रखा करो कि बीवी ख़ुश होगी और........बच्चे ख़ुश होंगे और तेरी तरफ़दारी करेंगे.
साहेब को तो धुनकी रहती है ना कि लोग उसकी तरह शालीन, शरीफ़ और सेंसिबल बने....अब पात्र तो अपने माद्दे के हिसाब से ही तो परफ़ॉर्म करेंगे. हमारे साहेब का वश चले तो सब कुछ अच्छा हो जाए. मगर कहते हैं ना माली सींचे सौ घड़ा रितु आए फल होय.
मैंने ऐसे केसेज़ में एक कोमन बात observe की थी वो थी साहब के प्रति लोगों का प्रगाढ़ सम्मान लेकिन उनके सोचने, समझने और समझाने पर सामने पूरी हाँ हाँ मगर दिल से स्वीकृति में हिचक...साहेब को पूछती तो कहता...adults हैं, अपनी अपनी बरसों की संचित conditioning है और परिवेश भी....फिर हमारे अलावा भी तो ज्ञानदाता हैं जो उनके जैसे तरीक़े से सोचते हैं.....और अपना सोया हुआ अहम भी....ऐसे में अब्रेशंस होंगे....गाड़ी लड़खड़ायेगी....समझदार होंगे तो आगे पीछे की सोच कर सही बात को अपना लेंगे, नहीं तो ठोकर खाकर अक़्ल आएगी...नहीं तो कुछ नहीं होगा....कोशिश और अर्ज़ी हमारी और मर्ज़ी माँ की. उसके बाद चाय की फ़रमाईश. इन प्रश्न उत्तरों में मानो ख़ुद को शिव शम्भू और मुझे देवी समझने लगता हैं साहेब. हर माफ़िक़ पौराणिक पात्र को जी लेता है यह बंदा😊.
हाँ तो उस दिन पंकज बाबू मिठाई, नमकीन, पिज़्ज़ा, बर्ग़र और आइसक्रीम लेकर घर पहुँचे. लड़कियाँ भी ख़ुश और उनकी मम्मी भी. डिनर हुआ, लुत्फे आइस क्रीम लिया गया.
अचानक कोई आधी रात को निशा चिल्ला रही थी, "छूना मत, क्या समझ रखा है. थोड़ा सा अच्छा क्या बोलने लगी औक़ात पर उतर आए हो. गिफ़्ट्स और ये खाने पीने के बदले....छि..तुम औरत को....."
अब पंकज भी सचमुच उतर आया था अपनी वाली औक़ात पर. फ़्लैश बेक में जाकर निशा को ज़लील करने लगा और यह भी उसके मुँह से निकल पड़ा, "क्या कोई यार किया हुआ है जो हमारा छूना तक बर्दाश्त नहीं......" पढ़ने वाले ख़ुद अन्दाज़ लगा सकते हैं कितनी कुछ गंदगी हुई होगी उस रात.
दूसरे दिन सुबह दोनो ही ने अलग समय फ़ोन करके अपनी अपनी बात कही. साहेब ने सुनी ज़्यादा कुछ नहीं बोला. हाँ मुझ से कहा, "यार दोनो ही अब मेरे रास्ते पर भरोसा नहीं कर रहे, शायद अपने लिए कुछ बेहतर राह चुनेंगे. चलो अपने निजात पाए. जो बन पड़ा वह किया, लगता है माँ कुछ आराम दिलाना चाहती है.
"अरे वो M &S वाले बिसकिट्स बड़े अच्छे है ना, तुम को भी बहुत पसंद है ना....अनु से बात हो तो कहना चार छह आठ पेकेट अलग अलग वराइयटी के भेज दे."
....यह बंदा साहेब ना बाहर पढ़ा हुआ है मगर कुकीज़ को हमेशा बिसकिट कहेगा. और तो और चाय की फ़रमायिश की इसने इतनी विधियाँ इज़ाद कर रखी है जितनी शायद शिव ने विज्ञान भैरव तंत्र में ध्यान की भी नहीं की होगी.
मैं जानती थी, कि साहेब सोच रहा था कि निशा पंकज का अब क्या किया जाय...और उसके लिए ज़रूरी थी असम की कड़क चाय, वे विदेशी कुकीज़ और मेरी ' 'आपकी आज्ञाकरी' ब्राण्ड हाज़िरी... जो उसका मोराल बूस्टर होती है.
********
निशा और पंकज......(4)
बात उस रात की.....
+++++++++
(मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि बचपन से ही मैं एक ऐसे इंसान से जुड़ गयी जो बहुत बार मुझे भी इस दुनिया का नहीं लगता.
कभी कभी उसके किसी भी मिशन में ज़रूरत से ज़्यादा involvement को देख कर कोफ़्त और ग़ुस्सा भी आता है लेकिन दिल का प्यार और दीमाग की आपसी समझ उसकी सहजता के साथ मिल कर सब कुछ को पल में ही फुर्र कर देते हैं.
उसके मिशन्स की कुछ कहानियाँ शेयर करूँगी, हाँ जैसा मैंने अपनी नज़र से देखा. सच्ची घटनाएँ हैं ये बस नाम बदल दिए हैं पात्रों और स्थानों के और घटना क्रम को भी रूपांतरित कर दूँगी ताकि privacy बनी रहे.)
============================
हमारे बहुत समझाने पर निशा और पंकज तैयार हो गए कि दोनों के बीच की समस्या के हल के लिए वाक़ायदा वैज्ञानिक चिकित्सा का सहयोग लिया जाय. दोनो को एक कुशल psychiatrist के पास भेजा गया जिसने senior physician की राय लेकर दोनों का मेडिकेशन आरम्भ कर दिया और क्लिनिकल psychologist से Counseling सेशंज़ भी शुरू हो गए. इन सब के मिले जुले असर से पहले चार सप्ताह में कुछ पॉज़िटिव असर दिखने लगा मगर कुछ ही.....बोलचाल की भाषा में बोलें तो कोई चार आना. डाक्टरों द्वारा भी और हमारे द्वारा भी अच्छे से समझाने के बावजूद भी यह नोटिस हो रहा था कि दोनो का ही अपनी अपनी सोचों के मुताबिक़ एक्स्पेक्टेशन लेवल नए तरह से तैयार हो गया था.
उस दिन मौसम बहुत अच्छा था. पंकज को एक नए क्लाइयंट से अच्छे वॉल्यूम का काम भी मिला था. बहुत ख़ुश था वह. निशा को भी उसने फ़ोन करके अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की थी.
साहेब उसको ज्ञान दिया करता था कि अपने काम से रिलेटेड भी छोटी छोटी ख़ुशियाँ निशा और बेटियों से शेयर किया करो.....दिन भर में कुछ खट्टा मीठा जो भी रूटीन से हट कर होता है उसकी बात भी घर में किया करो, शाम को सब से पूछा करो उनका दिन कैसा बीता...कोई रोचक घटना या कुछ ऐसा जिसमें तुमको भी कुछ कंट्रिब्यूट करना है उसका भी ख़याल किया करो ...शायद पूरा तो नहीं लेकिन कुछ कुछ पंकज ज़रूर लागू करता था और नतीजे भी अच्छे ही मिलते थे सभी के बीच आपसी व्यवहार में नरमी के रूप में .
यह भी कहा करता था साहेब कि तुम जब भी घर जाओ वापस शाम को काम से लौट कर तो कभी कभी अचानक सबकी पसंद के खाने के items लेकर जाया करो, बुक या मैगज़ीन ले जाया करो.....समय समय पर फूल या छोटे छोटे गिफ़्ट्स....और तक कोई भी एक्स्पेक्टेशन नहीं रखा करो कि बीवी ख़ुश होगी और........बच्चे ख़ुश होंगे और तेरी तरफ़दारी करेंगे.
साहेब को तो धुनकी रहती है ना कि लोग उसकी तरह शालीन, शरीफ़ और सेंसिबल बने....अब पात्र तो अपने माद्दे के हिसाब से ही तो परफ़ॉर्म करेंगे. हमारे साहेब का वश चले तो सब कुछ अच्छा हो जाए. मगर कहते हैं ना माली सींचे सौ घड़ा रितु आए फल होय.
मैंने ऐसे केसेज़ में एक कोमन बात observe की थी वो थी साहब के प्रति लोगों का प्रगाढ़ सम्मान लेकिन उनके सोचने, समझने और समझाने पर सामने पूरी हाँ हाँ मगर दिल से स्वीकृति में हिचक...साहेब को पूछती तो कहता...adults हैं, अपनी अपनी बरसों की संचित conditioning है और परिवेश भी....फिर हमारे अलावा भी तो ज्ञानदाता हैं जो उनके जैसे तरीक़े से सोचते हैं.....और अपना सोया हुआ अहम भी....ऐसे में अब्रेशंस होंगे....गाड़ी लड़खड़ायेगी....समझदार होंगे तो आगे पीछे की सोच कर सही बात को अपना लेंगे, नहीं तो ठोकर खाकर अक़्ल आएगी...नहीं तो कुछ नहीं होगा....कोशिश और अर्ज़ी हमारी और मर्ज़ी माँ की. उसके बाद चाय की फ़रमाईश. इन प्रश्न उत्तरों में मानो ख़ुद को शिव शम्भू और मुझे देवी समझने लगता हैं साहेब. हर माफ़िक़ पौराणिक पात्र को जी लेता है यह बंदा😊.
हाँ तो उस दिन पंकज बाबू मिठाई, नमकीन, पिज़्ज़ा, बर्ग़र और आइसक्रीम लेकर घर पहुँचे. लड़कियाँ भी ख़ुश और उनकी मम्मी भी. डिनर हुआ, लुत्फे आइस क्रीम लिया गया.
अचानक कोई आधी रात को निशा चिल्ला रही थी, "छूना मत, क्या समझ रखा है. थोड़ा सा अच्छा क्या बोलने लगी औक़ात पर उतर आए हो. गिफ़्ट्स और ये खाने पीने के बदले....छि..तुम औरत को....."
अब पंकज भी सचमुच उतर आया था अपनी वाली औक़ात पर. फ़्लैश बेक में जाकर निशा को ज़लील करने लगा और यह भी उसके मुँह से निकल पड़ा, "क्या कोई यार किया हुआ है जो हमारा छूना तक बर्दाश्त नहीं......" पढ़ने वाले ख़ुद अन्दाज़ लगा सकते हैं कितनी कुछ गंदगी हुई होगी उस रात.
दूसरे दिन सुबह दोनो ही ने अलग समय फ़ोन करके अपनी अपनी बात कही. साहेब ने सुनी ज़्यादा कुछ नहीं बोला. हाँ मुझ से कहा, "यार दोनो ही अब मेरे रास्ते पर भरोसा नहीं कर रहे, शायद अपने लिए कुछ बेहतर राह चुनेंगे. चलो अपने निजात पाए. जो बन पड़ा वह किया, लगता है माँ कुछ आराम दिलाना चाहती है.
"अरे वो M &S वाले बिसकिट्स बड़े अच्छे है ना, तुम को भी बहुत पसंद है ना....अनु से बात हो तो कहना चार छह आठ पेकेट अलग अलग वराइयटी के भेज दे."
....यह बंदा साहेब ना बाहर पढ़ा हुआ है मगर कुकीज़ को हमेशा बिसकिट कहेगा. और तो और चाय की फ़रमायिश की इसने इतनी विधियाँ इज़ाद कर रखी है जितनी शायद शिव ने विज्ञान भैरव तंत्र में ध्यान की भी नहीं की होगी.
मैं जानती थी, कि साहेब सोच रहा था कि निशा पंकज का अब क्या किया जाय...और उसके लिए ज़रूरी थी असम की कड़क चाय, वे विदेशी कुकीज़ और मेरी ' 'आपकी आज्ञाकरी' ब्राण्ड हाज़िरी... जो उसका मोराल बूस्टर होती है.
No comments:
Post a Comment