Sunday 18 December 2022

अहंकार एक ऊर्जा भी

 


अहंकार एक ऊर्जा भी 

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"अहंकार", "अहम" "मैं", "अना" "Ego-Egoitism-Egoism-Egocentric" "स्वयम्" आदि शब्दों को लेकर दर्शन, मनोविज्ञान, आध्यात्म,धर्म शास्त्र  रोज़मर्रा के व्यवहार आदि में भयंकर और अंतहीन विश्लेषण, संश्लेषण, विमर्श, विवेचन, बाबा लोगों के भाषण आदि है. इन बड़ी बड़ी बातों पर फिर कभी. आज के ताज़ा ज़मीनी ऑब्ज़र्वेशन पर बात हो जाए.


ज्ञान गुफ़्ता अपनी जगह, यह अहंकार अगर आटे में नमक जितना ना हो तो बहुतों के जीने में कोई रवानी ना रहे. आज सुबह का ही वाक़या है. यहाँ बंगाल में दुर्गा पूजा बहुत धूमधाम से मनायी जाती है सभी आम और ख़ास द्वारा. मगर एक आह्लाद जो अति साधारण और मध्यम आय वाले तबके में दिखायी देता है वह मेरे इस नोट का विषय है.

एक पोश कहलाने वाले इलाक़े में रहता हूँ...और इसी इलाक़े में एक मंत्री जी अपनी क्लब के तहत यहाँ की सबसे प्रसिद्ध पूजाओं में एक का आयोजन हर वर्ष करते हैं...दर्शकों की भीड़ भी सबसे ज़्यादा होती है. सब रास्ते क़रीब क़रीब बंद...गाड़ियाँ रेंगती सी. 

हाँ तो आज सुबह मैं ने क़रीब दो किलोमीटर का पैदल राउंड लिया और तटस्थ ऑब्ज़र्वेशन किया जो शेयर कर रहा हूँ.


१. दो तीन लड़कियाँ, ब्रांडेड ड्रेसेज़ की सस्ती अनुकृतियाँ पहने जिस ठसक से चल रही थी उसने मुझे प्रभावित किया. थोड़ी देर के लिए ही सही एक अहंकार उनमें फुर्ती और जोश ला रहा था...भ्रम कहिए लेकिन सकारात्मक और रचनात्मक जो उन्हें सहज ही उनके होने का एहसास दिला रहा था. उनका छोटी छोटी खाने पीने की चीजीं ख़रीदना, अदा के साथ कोल्ड ड्रिंक पीना...अपने को कुछ अलग सा समझना उत्साह दे रहा था.


२. एक सामान्य परिवार ने किराए की SUV ले रखी थी, पूजा पंडालों को विज़िट करने के लिए. एक मालिक की तरह दरवाज़ा खोलना, या दरवाज़ा पकड़ कर खड़ा होना...गाड़ी में बैठना बिलकुल आभिजात्य का एहसास...एक अहंकार की पुट लिए...क्या बुरा है इसमें...वही तो उन्हें कुछ क्षण ऐसे ज़िला कर पर्याप्त होने का एहसास दिला रहे थे.


३. एक electrician  किसी काम से आया. फ़ेस्टिव मूड में था. बात चीत में उसके काम के जानकार होने का ग़ुरूर ज़ाहिर हो रहा था...अच्छा ही है ना उसके सेल्फ़ कॉन्फ़िडेन्स को बूस्ट कर रहा था.


आसपास में बहुत से उदाहरण इन छोटी छोटी EGO या अहंकार के मिलेंगे और उसमें हम अगर तटस्थ होकर देखें तो ऊर्जा दिखेगी...एक जज़्बा दिखेगा जो मानवीय है. 


यही अहंकार हमें ऊँचा सोचने की तरफ़ प्रशस्त करता है.


कभी कभी सोचता हूँ ये अहंकारी बाबा लोग किस अहंकार/मैं  के पीछे लट्ठ लेकर पड़े रहते हैं, लम्बी लम्बी शाब्दिक तक़रीरें करते रहते हैं.


पता नहीं क्यों पाखंड भरा "मो सम कौन कुटिल खल कामी" का गान मुझे गंदा वाला अहंकार लगता है.


आज के लिए बस.😊

दिलबर मेरे ! : विजया



दिलबर मेरे !

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तुम्हारा दीवनापन

बौझ सा लगता था मुझ को 

तुम्हारा पीछे पड़ जाना 

नहीं सुहाता था मुझ को

मगर नहीं जानती 

कब हो गया था

मुझे प्यार तुम से....


मेरी गलियों में आना जाना तुम्हारा 

अपनी गाड़ी खड़ा कर 

बस स्टाप पर इंतज़ार करना 

और मेरे कॉलेज की बस में सवार हो जाना 

खोजना ऐसी सीट की 

देख सको कहाँ से मुझ को 

गुनगुनाते थे तुम कोई 

मेहदी हसन का गहरे इश्क़ वाला नग़्मा 

इस अन्दाज़ में 

के जज़्बात भरे अल्फ़ाज़ 

पहुँच जाए मुझ तक...


सच कहूँ 

ग़ुस्से के संग प्यार आ जाता था तुम पे 

मगर सोचती थी फिर 

क्या मिल सकते हैं नदी के दो किनारे कभी 

तुम तालीमयाफ़्ता ऊँचे ख़ानदान के फ़र्ज़न्द 

मैं बदनाम गलियों में पली एक यतीम लड़की 

जिस का माज़ी था 

मगर हाल और मुस्तकबिल नहीं...


मैं लड़ रही थी अपने दिल से 

पूछती रहती थी सवाल बहुत से अपने ज़ेहन से 

सिर्फ़ होने को मायूस 

के नामुमकिन है मिलना हमारा,

लड़े थे मगर तुम हर शै से 

ख़ानदान सोसाइटी और सिस्टम से 

हर मक़ाम पर हारी हुई लड़की को 

जीत कर हर मक़ाम पर 

हासिल कर ही लिया है तुम ने...


आज पहली दफ़ा लिया है 

मेरा हाथ जो तुम ने अपने हाथों में 

महसूस करो मेरी छुअन को

जो कह रही है शिद्दत से 

ऐ दिलबर मेरे !

कभी जुदा ना करना इस हाथ को 

कभी छोड़ ना देना इस साथ को...





दास्ताने आख़री मुलाक़ात : विदुषी सीरीज़



दास्ताने आख़री मुलाक़ात 

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[फ़लसफ़े(दर्शन)और नफ़्सियात (मनोविज्ञान) का ताउम्र तालिबे इल्म (विद्यार्थी) ...चीजों को ज़रा अलग ढंग से देखने की फ़ितरत...भुस के ढेर में सुई कहाँ छुपी है यह देख पाने की कुव्वत... इंसानी रिश्तों के मुसल्सल तजुर्बे....बड़े क़िस्से हैं मेरे पास. किरदारों से भी इन्पुट्स हासिल होते रहते हैं....उस पर थोड़ा असली घी मसालों का तड़का. यह दास्तान भी कुछ ऐसी ही है.]


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लुत्फ से भरपूर  रही थी "प्रेमी जोड़े" की वह गपचुप पहाड़ों की ट्रिप. सारे कमिटमेंट्स के परे forbidden fruit चखते 

हुए, रूहानी  प्रेम का ड्रामा करते हुए अपने अपने मक़सदों जी लेने की मशक़्क़त . अरली मिडल एज और दोनों ही शादीशुदा, दोनों के अपने अपने vaccum और volume....दोनो ही intellectual और ऊपर से शायर जाति के प्रानी याने करेला और नीम चढ़ा...दोनों ही अपने अपने करतबों को जस्टिफ़ाई करने में माहिर और ज़मीनी तौर पर अव्वल दर्जे के शातिर याने स्ट्रीट स्मार्ट.


रूमानी प्रेम का खूब ड्रामा हुआ. तस्वीर की तरह ही मर्द  ने सरकारी सर्किट हाउस में औरत का  हाथ अपने हाथों में  लेकर 'अमर प्रेम' पर लम्बी सी तक़रीर कर डाली थी और औरत ने  भी आँखों में आँसू भर कर गर्दन झुका, कोमलता का लबादा औढ 'सम्पूर्ण  समर्पण' का सजीव रोल कर दिखाया  था. प्रेम के भी कई रंग-रूप  होते हैं, एशियन पैंट्स के शेड कार्ड के नमूनों जैसे.


टैक्सी नैनीताल से काठगोदाम के लिए चलती है आगे ड्राइवर के बगल वाली सीट पर प्रेमी जोड़ा ज़िद करके बैठ जाता  है.. "हम दोनों एक ही सीट पर बैठेंगे वो भी आगे वाली सीट पर"....थोड़ी ना नुकुर  के  बाद ड्राइवर मान जाता है, गाड़ी चल पड़ती है.  ड्राइवर के पास ऑडियो केसेट्स का कलेक्शन गज़ब का था फरमाइश शुरू होती है गीत बजने लगते हैं.


जोड़े के मर्द और औरत की मंज़िलें जुदा जुदा थी , मर्द  को काठगोदाम से ट्रेन पकड़नी थी और औरत को  हल्द्वानी से बस. मर्द उदास था कि वह कुछ देर बाद अपनी 'जिंदगी' से जुदा हो जाएगा.वह एक महीने बाद अपननी साल गिरह  पर फिर मिलने की मंशा ज़ाहिर करता है, औरत उस से मुस्तकबिल (भविष्य)  की बात न करने और मौजूदा लम्हे को शिद्दत से जी लेने की बात करती है और ड्राइवर से अपनी पसंद का एक नग़्मा सुनवाने की गुज़ारिश करती है.." सिमटी हुई ये घड़ियाँ फिर से न बिखर जाएं..इस रात में जी लें हम इस रात में मर जाएं"

 

मर्द तय करता  है कि वह औरत को  हल्द्वानी तक छोड़कर फिर लौटकर काठगोदाम से ट्रेन पकड़ेगा, इस तरह वह दोनों कुछ देर और साथ रह सकेंगे. वही नग़्मा बार बार रिपीट करके बजाया जाता है 'सिमटी हुई ये घड़ियाँ'... 


जोड़े में मर्द बेचारा इस बात से वाकिफ़ नहीं था कि यह उन दोनों की आखिरी मुलाकात है, वह तो बितायी  रातों के तसव्वुर में बार बार डूबे  जा रहा था जब जब नग्मे की यह लाइन सुनता: 

"अब सुबह न आ पाये आओ ये दुआ माँगे..इस रात के हर पल से रातें ही उभर जाएं". औरत अपने प्यार की मैथेमैटिक्स की उस्ताद, "प्रेम यात्राओं" की शौक़ीन.


इसके बाद, गंगा में बहुत पानी बह कर समंदर में मिल गया मगर  आज तक इस का जवाब नहीं मिल पाया, किस ने किस को कब कब छला ?

और फिर : विदुषी सीरीज़

 विदुषी के विनिमय की कहानियां

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और फिर.....

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विदुषी और मुनीश शायद एक ही इंस्टिट्यूट में पढ़ते थे. दोनों अलग अलग जगह सेटल हो गए थे. पढ़ने के दौरान interactions होते थे या नहीं लेकिन सोसल मीडिया पर अंतराल के बाद मिले, "साथ पढ़े" वाली फ़ैंटसी को बल मिला तब इंस्टी के समय की ढेरों बातें होने लगी. विदुषी ने नया नया कविताएँ लिखना शुरू किया था, मुनीश भी कभी कभार लिख लेता था, हालाँकि दोनों ही इंजीनियरिंग बेक ग्राउण्ड से थे. 


विदुषी होम मेकर, लेकिन टाइम मेनेजमेंट और मल्टीटास्किंग की माहिर सो बहुत समय रहता था उसके पास, शौहर अपने दफ़्तर  में मशगूल, और मैडम जी ऑनलाइन.


 शादी एक ऐसा रिश्ता है जिसमें कोई दुर्लभ पार्ट्नर्स ही होते हैं जो सौ टका कंपेटिबल कहे जा सकते हैं, फ़र्क़ होता ही है दो व्यक्तियों और उनके व्यक्तित्वों में. आपसी समझ, व्यवहार और सहज प्रेम से पति पत्नी इस मानव निर्मित विवाह संस्था का सफल संचालन कर सकते हैं यह एक प्रेक्टिकल बात है और मनोवैज्ञानिकों ने भी इसे एंडोर्स किया है. हमारी नायिका विदुषी के दिमाग़ में यह बात कूट कूट कर भरी थी कि उसका शादी का साथी कंपेटिबल नहीं, हालाँकि थोड़े से फ़ैक्ट्स थे ज़्यादा फ़िक्शन. मुनीश किसी कम्पनी में मार्केटिंग मेनेजर था. वहाँ भी दबंग बीबी और शालीन शौहर के चलते थोड़ा कम्पैटिबिलिटी का इस्यू रहा होगा, बाक़ी विदुषी ने अपनी स्मार्ट्नेस और वाकचातुर्य से कई गुना करवा दिया था. 


मुनीश के घर से दफ़्तर तक का रास्ता कार द्वारा कोई चालीस मिनट का था. उस समय का सदुपयोग स्पाउसेज़ की ग़ैर हाज़िरी में दोनों दिली बातों के लिए इस्तेमाल करते. विदुषी  अपनी कविताएँ सुनाती, सुनाए ही जाती और बेचारा मुनीश शुरू में तो रुचि लेता मगर धीरे धीरे बोरियत को मज़ेदार रोमांस के विनिमय के साथ जैसे तैसे झेल लेता. हाँ उसकी "बरनी" पर लिखी कविता को याद दिला दिला कर विदुषी मुनीश को उसका भी कवि होना याद दिलाती. whatsapp नहीं आया था तब तक दफ़्तर के दौरान दुपहरिया में दोनों की Gtalk और Hangout पर चैट होती, बायोलोजी और सायकोलोजी दोनों के इर्दगिर्द बात चीत का पेंडुलम हिलता डुलता रहता. 


दोनों के रूबरू मिलन की तड़फ भी बढ़ने लगी....तय हुआ कि बीच के एक रेल्वे स्टेशन पर दोनों मिलेंगे. विदुषी और मुनीश ने सापेक्ष गति वाले गणित के फ़ोरमूले के अनुसार दोनों दिशा से आने वाली ट्रेन्स का चुनाव किया और नियत समय पर दोनों ही उस स्टेशन पर मिल गए.


विदुषी बोल्ड थी और मुनीश भीरु क़िस्म का इंसान. विदुषी ने उसमें जोश और हिम्मत इंजेक्ट कर यह प्रोग्राम बनाया था लेकिन दिल और दीमाग से मुनीश कंफ्यूजन में था. बुद्धि जीवियों वाले प्यार में सेक्स के मक़ाम तक पहुँचने से पहले बड़ी डायलोग बाज़ी होती है, बहुत लम्बे लम्बे सैद्धांतिक भाषण, आदर्शवाद के बघार और इश्किया खसुर पुसुर होती है. दोनों ही प्रानी अगर शादीशुदा तो कई 'इफ़्स और बट्स' मध्यमवर्गीय  मानसिकता वाले लोगों के लिए ऐसे ताल्लुकात में आड़े आते हैं और कभी इश्क़ की गाड़ी के टायर फ़्लैट हो जाते हैं तो कभी बेटरी डिस्चार्ज तो कभी इंजन का ब्रेकडाउन.


विदुषी ने कहा चलो सिटी में चलते हैं कुछ देर कहीं कॉफ़ी पर बैठते हैं और फिर......


हैंड्स होल्ड हुए, अधूरे हग भी सार्वजनिक स्थल पर हुए, विदुषी की पहल पर हल्का सा 'किस' भी.....शायद तीन चाय और दो कोक्स हो गयी सेंडविचेज के साथ. "तुम दुनिया से अलग" " तुम्हारी बात ही कुछ और"....हमारा मिलना दैविक संयोग....हमारी दोस्ती हमारे अपने स्पाउसेज़ और किड्स के भले के लिए ही कंट्रिब्यूट करेगी...इत्यादि बातें पुनरावृति के साथ होती रही. विदुषी जो चाह रही थी उसके लिए मुनीश हिम्मत नहीं कर पा रहा था, उसकी बरनी में मिक्स्ड आचार जो था याने तरह तरह के विचार. शायद कोई दो  घंटे वहीं प्लेटफ़ोरम, वेटिंग रूम, यह कोना-वह कोना में गुजर गए. तय हुआ अगली मुलाक़ात में "और फिर" के बाद वाले के लिए मेंटली तैय्यार होएँगे दोनों आपसी बात के ज़रिए अण्डरस्टेण्डिंग डेवलप करके. 


फिर एक दूजे को हग करके, 'आई लव यू' के मोहब्बती नारे के साथ प्रेम युगल ने जुदा हो कर अपनी अपनी ट्रेन्स पकड़ ली थी. विदुषी पूरब की जानिब और मुनीश पश्चिम की तरफ़. 


घर पहुँच कर दोनों अपने अपने लाइफ़ पार्टनर्स के साथ थोड़ा और  ज़्यादा प्रेम दर्शाते शाम के स्नेक्स खा रहे थे...हाँ विदुषी मन ही मन उस समय अधूरी मुलाक़ात को पूरा करने के प्लान सोच रही थी और मुनीश अपने कॉन्फ़िडेन्स लेवल को बूस्ट करने कोई ओशो के वक्तव्य को सोच रहा था, क्योंकि उन दिनों उसे ओशो जी का नया नया शौक़ चढ़ा था. विदुषी भी फेशन वाले आध्यात्म की ग्लैमर को अपने मुआफ़िक़ पा रही थी.


(यह लघु कथा सीरीज़ जारी है)

ज़मीनी बातें : रिश्तों में सावधाने

 ज़मीनी बातें : रिश्तों में सावधाने 

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(१)  संवेदनशील और प्रामाणिक लोग अपना प्रतिबिम्ब ही औरों में देखते हैं जब कि जीवन के कुछ फ़ेज़ेज़ में ऐसे लोग जैसे तैसे  शुमार हो जाते हैं जो या तो अपने उस समय के मतलब के लिए आपसे चिकनी चुपड़ी बातें करते हैं, प्यार मोहब्बत दोस्ती जताकर आपके सहज  मन में पैठ जाते हैं,अपने सच्चे झूठे दुखड़े गा गा कर सहानुभूति और attention बटौरते जाते हैं. आपसे जो लाभ मिलते हैं वे discontinue ना हो जाए इसलिए आपकी कुछ नापसंद सच्ची सीधी और उनके हित की बातों को सराहते हुए भी इस कान से उस कान निकालते जाते हैं और हाँ हाँ करते रहते हैं, क्योंकि इन्हें वही करना है जिसमें इन्हें रस आता है. प्रेम, समर्पण, समझ जैसे शब्द इनकी हर बात में आएँगे. इनके वफ़ादारी के वादे इतने strongly worded होते हैं कि इनका इरादा उनमें छुप सा  जाता है.


इन चेहरों पर कई परतें होती है और ये खुद का negative रूप छुपाने में माहिर होते हैं.  ये शातिर लोग आपकी कमजोर रग को पकड़ कर अपने जाल में लगातार आपको फँसाते हैं और आप भी अपनी मासूम कमज़ोरियों के चलते फँसते जाते है. यहाँ तक कि आप इनके चलाए चलने लगते हैं....यह उनकी जीत और आपकी हार होती है.


आदर्शवादिता, प्रशंसा और कथित प्रेम की भूख, ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा करना  इन कजोरियों में से कुछेक  है, जिनका लाभ ये बेसाख़्ता उठाते हैं.


ऐसे लोग जब expose होते हैं तो इनके असली चेहरे और फ़ितरत बहुत ही वीभत्स रूप में सामने आते है. कुछ लोग तो इतने छोटे हो सकते हैं बात व्यवहार में भी कि आप सोच भी नहीं सकते. आप के किए हज़ार उपकार उनके लिए अर्थहीन हो जाते हैं और आपको सब लिहाज़ छोड़ कर ऐसा ऐसा सुनाते हैं कि आप आवाक हो जाते हैं. 


जो लोग logically बुनियादी तौर पर दुष्ट साबित हो जाते हैं उनके लिए  कुरुक्षेत्र में कृष्ण द्वारा बोले गीता वचनों को याद करते रहना चाहिए, जिनसे उन्होंने अर्जुन को चेताया था. बिना मन को उद्विग्न किए उचित कर्म कर पाना ही कृष्ण-धर्म.


कभी कभी इनका उधार इन्हीं के सिक्कों में चुकाना कृष्णधर्मिता  होती है. यदि आप होशमंद और स्पष्ट हैं तो पहले इनका नाम अपने जीवन से बाहर कहीं लिखिए, शांत मन से बिना अतिरिक्त ऊर्जा गँवाए इन्हें इनकी ही भाषा और तौर तरीक़ों से नए नए सबक़ सिखाइये, ताकि ये स्कोट फ़्री ना निकल पाएँ. समय और ऊर्जा का यह इन्वेस्टमेंट दीर्घकाल में लाभप्रद होता है.


क्षमा, लेट गो या मूव ऑन के सिद्धांत बड़े प्यारे हैं लेकिन पात्रों और स्थितियों के साथ सापेक्ष होते हैं. इन अप्रोचेज़ को चुनने में Emotions और  Rationality  की Balancing  ज़रूरी होती है.


काल, भाव, द्रव्य क्षेत्र के अनुसार उपाय चुनना समझदारी.


(२) कुछ ज़िद्दी, बेवक़ूफ़ और अहम से भरे लोग भी पाए जाते हैं जो  ख़ुदगर्ज़ क़िस्म के होते हैं और जिन्हें यह गुमान होता है कि वे बड़े साफ़गोई वाले हैं, सहज है सादा दिल है इत्यादि. आपको उनके साथ जुड़ने में सिवा सब तरह के नुक़सान के कुछ नहीं होना--ऐसे लोग आपके साथ कभी भी same page पर नहीं हो सकते क्योंकि उनका mental level आप जैसा नहीं होता, ना जाने आपकी किस बात को ये क्या समझ लें और पकड़ कर बैठ कर उसका ही प्रलाप जारी रखें. पूरी कायनात के लिये इनमें बारूद भरा होता है, कोई भी दियासलाई की तीली इनमें लपटें और विस्फोट पैदा कर सकती है....इसलिए साबधान !


इनके प्रति दया/करुणा भाव रखते हुए, safe distance बनाए रखना ही हितकर. 


इनके लिए भी यथोपयुक्त Point-१ में दी गयी अप्रोच अपनायी जानी चाहिए.


(३) आत्ममुग्ध याने नार्सिसिस्ट ,  हीन भावना से ग्रसित, manipulator व्यक्तित्व वाले, बाइपोलर डिसओर्डर इत्यादि तरह तरह के menia/disorders से ग्रसित लोग भी आप से ज़िंदगी के किसी दौर में संयोगवश जुड़ जाते हैं. इनसे सहानुभूति होना अलग बात है इन्हें सुधारने का ठेका ले लेना बहुत रिस्की होता है. यहाँ भी सावधानी हटी और दुर्घटना घटी वाली कहानी होती है. 


इन्हें Pychiatrist/Psychologist तक पहुँचाना ही अभीष्ट.


(४) ऊपर दी हुई घातक स्थितियों से बचने का एक ही उपाय है कि दीमाग और आँख खोल के जाँच परख कर रिश्ते बनाएँ. सामने वाले के untoward traits और गतिविधियों का आकलन यदि हो जाए तो तुरत किनारा करने से ना ही हिचकें. सद्भाव और आदर्शों के नाम पर अवसर देते रहना बेवक़ूफ़ी है उदारता नहीं. रिश्तों में Give and Take दोनों होना ज़रूरी है, उदारता और विशाल चिंतन अपनी जगह हैं लेकिन वह लगातार एक तरफा ही हो यह अपेक्षित नहीं, संतुलन ज़रूरी है. 


(५) Repetition है लेकिन शब्द अलग : Awareness, Clarity और Acceptance का मंत्र जीवन के इस पहलू को handle करने के लिए अपनाने की अनुशंसा.

ओ पुरुष ! आज का दिन है तुम्हारा : विजया

 


ओ पुरुष ! आज का दिन है तुम्हारा ...

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अवदान तुम्हारा अनुपम है

समग्र जीवन के लिये 

तुम बिन कहाँ है पूर्णता हमारे लिए 

तुम वैकल्पिक  नहीं 

अनिवार्य हो हमारे लिए

निबाहते हो कितने किरदार जीवन में 

तुम ही तो हो पूरक हमारे लिए 

ओ पुरुष ! आज का दिन है तुम्हारा 

पहुँचे तहेदिल से प्यार और सम्मान हमारा...


जब हो जाता है जीवन कठिन 

तुम  बन जाते  हो 

एक दृढ़ चट्टान  परिवार के लिए

दस्तक से पहले ही 

दे देते हो तुम प्रत्युत्तर द्वार को

आते है ऐसे ऐसे क्षण भी  

जब सब कुछ लगता है बिखरता छितरता

तुम कर देते हो आसान सब कुछ 

कर देते हो आलोकित  हृदयों को

भर देते हो तुम गहरे ज़ख्मों को

यही तो है सौंदर्य तुम्हारी आत्मा का ...


एक पहेली है  यह ज़िंदगी 

जिसे करते जाना हाल ही तो जीना है 

या कहें जीवन है एक रहस्य 

जिसे बस जीए जाना है 

तुम रहते हो तत्पर पल प्रतिपल

दूर करने सभी संदेहों को

तुम जब होते हो साथ हमारे 

हो जाती है आसान मुश्किलें सारी 

और लगने लगता है सब कुछ तरोताज़ा 

बहुत कुछ है जिसके लिए हम स्त्रियाँ ऋणी हैं तुम्हारी ...


माना कि तुम भिन्न हो हम से 

पर तुम में भी तो होती है एक स्त्री 

क्यों नहीं उभरने देते  जिसे कुछ  प्राणी तुम जैसे

नहीं तो हो ना जाए यह दुनिया भी 

एक स्वर्ग जैसी 

ओ पुरुष  ! आज का दिन है तुम्हारा 

पहुँचे  तहे दिल  से प्यार और सम्मान हमारा...

आधी अधूरी किताबें : विजया


आधी अधूरी किताबें 

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तेरे क़ुतुबखाने में 

सजी पायी है 

बहोत सी खुली किताबें 

जहां कितना कुछ लिखा है 

बिन सफ़हों और सियाही के....


कुछ किताबें है 

साँसे लेती 

रोती गाती बोलती 

हंसती मुस्कुराती सी 

जिन से महसूस होता है अपनापन 

कुछ लीपी पुती तुड़ी मुड़ी

लिज़लिजी सी 

जिन्हें छूने तक से घिन आती है 

जिल्द खूबसूरत 

मगर दास्तान बदसूरत,

कुछ क़िस्से ख़ुशनुमा ख़ुशगवार

कुछ डरावने ख़्वाबों से 

कुछ ज़िंदगी का सच बताते

कुछ पैग़ामे इल्म देते 

कुछ सुकूनजदा तो कुछ तूफ़ानी 

नहीं पढ़ पाती मैं पूरा किसी को....


सोच कर हैरान हूँ 

कैसे पढ़ लेते हो एक एक लफ़्ज़ तुम 

डूबाकर खुद को 

इन अनगढ़ अनजानी दास्तानों के भँवर में 

शुक्र है हर बार एक लम्बा सफ़र तय कर के 

लौट आते हो तुम महफ़ूज़ 

पहाड़ों और जंगलों से घर को

साथ लेकर कोई आधी अधूरी किताब....


(क़ुतुबखाना=Library)

दिसम्बर...(विजया)

पहले दसवें थे 

फिर मिला तुम्हें तुम्हारा स्थान 

बारहवाँ और साल  के उपसंहार वाला (अ)

उनतीस से इक्कतीस दिन पाए  (ब)

कुछ तो ज़रूर रहे होंगे 

इस पदोन्नति के कारण...


साल भर की ऊँच नीच 

सारे मौसमों 

सारी गहमागहमी से गुज़रकर 

साल भर के हर भले बुरे के गवाह तुम 

आकर खड़े हो 

एक धीर वीर गम्भीर हो कर...


उत्सवों के चमन हो तुम 

दुनिया भर में हर दिन तुम्हारा उत्सव 

कहीं ना कहीं 

मौज मस्ती है फ़ितरत तुम्हारी 

उसमें भी संजीदगी है दौलत तुम्हारी 

कुछ तो है तुम में 

तभी तो अज़ीज़ है हरेक हरकत तुम्हारी...


कितने गहरे और उदार हो तुम 

एक व्यक्ति नहीं समग्र संसार हो तुम 

जो जो अवतरते हैं धरापर तुम संग 

मानव वे विशिष्ट होते हैं (द)

फिर भी ना जाने क्यों तेरी छाँव में 

शेष होते हैं सम्बंध जो अवशिष्ट होते हैं...(स)


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Notes : 


अ)December शब्द  की उत्पति लैटिन भाषा के शब्द decem से हुई जिसका अर्थ दस होता है, पहले केलेंडेर में यह दसवाँ महीना होता था और वर्ष मार्च से शुरू किया जाता था फिर साल को जनवरी से शुरू होना तय हुआ और दिसम्बर को बारहवाँ महीना बना दिया गया. 

ब)दिसम्बर में पहले 29 दिन होते थे फिर 30 और उसके बाद 31 कर दिए गए.

स) मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से नतीजा निकला है कि दिसम्बर में break-ups ज़्यादा होते हैं.

द) अध्ययनों से यह भी मालूम हुआ है कि दिसम्बर महीने में पैदा हुए लोग independent, well behaved, achiever, loyal होते हैं. स्वास्थ्य की दृष्टि से बीमारियों के तहत बहुत कम होते हैं याने उनको बहुत से रोग होने के chance तुलनात्मकता में बहुत कम होते हैं.