Sunday 31 May 2015

खोलsने आँख्यां चाल्sग्या... (राजस्थानी)

खोलsने आँख्यां चाल्sग्या... (राजस्थानी) 
(हिंदी भावानुवाद सहित.)

# # # # 
औकात-बिसात री 
बकबाद कर 
मूरत्यां घणी 
ढाळsली, 
कूड़ो जमारो जीयsने 
उमर आखी 
गाळsली,
छाँव री हुणस में 
पगळया 
बाळ लिया.
ठंडक पण 
कोन्यां मिली 
फाला बळता 
पाळ लिया,
पूगण रो रासतो
अबड़ो हो जबर 
मंजळ री 
फ़िकर में 
घणकरा 
काळ गया,
बढsग्या 
जिका सूरबीर 
हिम्मत धीरज 
धारsने
करम अपणों 
करता रह्या 
फळ न 
बिसारsने
मंजळ मोह 
त्यागsने 
चालणों 
सीकारsने 
रणबंका लाल 
बादीला 
खोलsने आँख्यां 
चाल्sग्या 
जीतsने 
जीवण-जुद्ध,
परचम ऊँचो 
फहरायsग्या....

(लगभग हिंदी भाव-अनुवाद पाठकों की सुविधा के लिए )
(विजयाजी को धन्यवाद)

नयन खोल बढ़ते रहे 
# # # #
औकात-बिसात का 
प्रलाप कर 
प्रतिमाएं ढाल ली, 
झूठा जीवन जी जी कर 
उम्र सारी बर्बाद की 
छाँव की वांछा में तो
पाँव उनके जल गये
शीतलता नहीं मिली 
छाले जलते पल गये, 
पहुँचने का मार्ग किन्तु 
बहुत ही था जटिल 
मंजिल की चिंता में 
राही बहुतेरे निपट गये, 
बढ़ गए जो शूरवीर 
धैर्य हिम्मत धार के 
कर्म निज करते रहे 
फल-चिंतन बिसार के,
मोह मंजिल का त्याग कर 
चलने को स्वीकार कर 
दृढ़संकल्पी रणबाँकुरे 
नयन खोल बढ़ते रहे 
जीवन युद्ध जीतकर 
पताका फहराते गए.

उन्माद : विजया

उन्माद 
+ + + +

प्रणयी लहर !
एक उन्माद है
उत्थान तुम्हारा 
और 
शांत हो जाना है 
चातुर्य 
कुटिलता या 
सामर्थ्यहीनता,
ना जाने
बहा ले गयी हो तुम 
कितनी कोमलता 
इस द्वीप की,
अवधान है तुम्हे तो 
मात्र स्वयं के 
स्फीत अहम् की..

तुम कहती हो रेणुका
इस सुकोमलता को, 
किंतु 
यह बालुका ही तो है 
अस्तित्व इसका,
रहती हो तुम 
आतुर 
जिसे घोलने खुद में 
जानते हुए भी कि 
समा जायेगी 
यह सिकता 
सागर-तल में 
हो कर पृथक 
तुम से 
जब जब अभिशांत होगा 
यह उत्कट उन्माद तुम्हारा..

ना ढहा सकी तुम 
वो तट इसका 
जो अभिबद्ध है 
चट्टानों से 
घिरी हुई है जो 
लोह जालियों से,
काश यथासमय 
घेर दिया जाता
इस द्वीप के
शेष तीनों क्षोरों को भी 
ऐसे ही किसी उपाय से,
सो पाते तब 
चैन की नींद 
आवासी इसके...

शून्य : नीरा

शून्य  : नीरा 
+ + + 
शुन्य से प्रारंभ 

हर कथा 
शून्य पर होता 
हर कथान्त 
शून्य में ही तो 
तका करती 
हर सोच 
परे कहाँ शून्य से 
कोई निर्माण 
निराकरण भी वही 
निर्वाण भी वही 
अंकों में सर्वोपरि
शून्य 
फिर क्यूँ ताने कसती 
किसी पर ये दुनिया 
"रह जाओगे तुम 
बस बन कर शून्य."
पूछे जो मुझ से 
तो कह दूँ सब को 
होता है 
सब से सुन्दर
शून्य 
ना होता इसका 
कोई आकार
ना ही उसका 
कोई भिन्न प्रकार 
गोल गोल 
सूरज सा 
चाँद सा 
धरती सा
पूर्ण परिपूर्ण 
अस्तित्व सा 
सत्यम शिवम् सुन्दरम
शून्य 
केवल शून्य
शून्य शून्य और शून्य......

महारास (2) : विजया

महारास (2) 
+ + + +

महारास,
श्रृष्टि के कण कण में 
महामिलन
पुरुष और प्रकृति का
मेघ 
तड़ित
और 
पवन बावरी 
हो कर एकजुट 
कर देते हैं 
विचलित 
धरा को,
पिघलाकर
भू-स्तर को 
घोल देते हैं 
संग स्खलन के
और 
पहुँचा देते हैं 
सागर में,
होता है घटित 
विसर्जन 
व्यक्तित्व का 
बोध 
अस्तित्व का,
जाग्रति 
चेतन की
स्वीकृति 
समग्र की,
पुनर्स्थापना 
वर्णनातीत सत्य की 
परिणति 
प्रत्यय की..

महारास- (1) : विजया

महारास- (1) 
++++++
होना होता घटित 
यदि मौन महारास 
केवल मात्र 
राधा-कृष्ण युगल में 
तो 
क्यों कर करते 
चीर हरण कन्हैय्या
समस्त गोपियों के,
क्यों कर हटता पर्दा 
मध्य आत्मा और परमात्मा के,
क्यों कर होती दृष्टव्य 
छवि राधिका की 
सोलह सहस्र गोपिकाओं में,
क्यों कर दीखते कान्हा 
बनके जोड़ीदार 
हर एक गोपिका के...

यदि सोचा जाय
परे सभी कथाओं के
महारास कुछ नहीं 
बस स्थिति है 
प्रेम के घटित होने की 
मिट जाते हैं जहाँ 
सब अंतर 
और 
होता है दृष्टव्य चहुँ ओर 
प्रेम मात्र प्रेम..

रूपकों की यह 
रोलम झोल 
ना जाने क्योंकर 
दिखा देती है 
किस को क्या ? 
बना दिया गया है 
आज किन्तु 
पर्याय महारास को 
अतृप्त वासना का 
जिसमें देह-क्रीडा को 
औढा दिया जाता है 
लबादा आध्यात्म का 
और 
समझने लगते हैं 
क्रीड़क़ स्वयं को 
राधा और कृष्ण...

अंगीकार......: विजया

अंगीकार......
+ + +
स्वीकारा होगा
तुम को
किसी ने 
तथाकथित यथावत
मैं ने तो किया है
अंगीकार तुम को,
पृथक रख कर
देखते रहते हैं वो
तुझ को
करते हुए
महिमामंडित
स्वयं को
कहते हुए बारम्बार
"देखो, हम ने
इसके ऋण और धन को
जानते हुए भी
अपना लिया है इसको,"
तुम्हारे ऋण (Minus)
तुम्हारे धन (Plus)
हैं महत्वपूर्ण
तुम से अधिक इनको,
होते हैं
मानवीय सम्बन्ध
बुद्धि विलास के
साधन इनको
विश्लेषण
संश्लेषण में
हो जाता है जीवन व्यतीत
और लिखे जाते हैं
असंख्य पृष्ठ
अपने ही आग्रहों को
सिद्ध करने
गद्य में
पद्य में....
बन गए हो तुम
अभिन्न अंग मेरे
और
हो गया है विलय
मेरा तुझ में
तुम्हारा मुझ में
बिना किसी खंडन मंडन के
बिना किसी भाषा परिभाषा के
बिना किसी माप परिमाण के
विज्ञानं की भाषा में
हम हैं एक मिश्रण
यौगिक नहीं,
तेरा तत्व है तू
और मेरा मैं
सहज है
मेरा "मैं' होना
और तुम्हारा 'तुम' होना
सहअस्तित्व के शील में
मिटजाना तो नहीं होता
आवश्यक,
प्रकृति में भी
जीते हैं सब सत्व एक साथ
संग अपने अपने गुणधर्मों के
जुड़ कर श्वास-निश्वास की प्रक्रिया से
नहीं है बाधक पृथकत्व
एकत्व घटित होने में
सनिकेत और अनिकेत
अवस्थाएं हैं मन की
अधीन सापेक्ष व्यवस्थाओं के,
समाहित प्रेम में
एक वास्तविकता है
यौन की
शब्दों के परे
एक भाषा है
मौन की
व्यर्थ है मीमांसा और समीक्षा
कब कहाँ और कौन की,
आओ सुन तो लें
वह शांत ध्वनि
जो गूंज सकती है
मन के सन्नाटों में भी.. smile emoticon