Sunday 31 May 2015

उन्माद : विजया

उन्माद 
+ + + +

प्रणयी लहर !
एक उन्माद है
उत्थान तुम्हारा 
और 
शांत हो जाना है 
चातुर्य 
कुटिलता या 
सामर्थ्यहीनता,
ना जाने
बहा ले गयी हो तुम 
कितनी कोमलता 
इस द्वीप की,
अवधान है तुम्हे तो 
मात्र स्वयं के 
स्फीत अहम् की..

तुम कहती हो रेणुका
इस सुकोमलता को, 
किंतु 
यह बालुका ही तो है 
अस्तित्व इसका,
रहती हो तुम 
आतुर 
जिसे घोलने खुद में 
जानते हुए भी कि 
समा जायेगी 
यह सिकता 
सागर-तल में 
हो कर पृथक 
तुम से 
जब जब अभिशांत होगा 
यह उत्कट उन्माद तुम्हारा..

ना ढहा सकी तुम 
वो तट इसका 
जो अभिबद्ध है 
चट्टानों से 
घिरी हुई है जो 
लोह जालियों से,
काश यथासमय 
घेर दिया जाता
इस द्वीप के
शेष तीनों क्षोरों को भी 
ऐसे ही किसी उपाय से,
सो पाते तब 
चैन की नींद 
आवासी इसके...

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