Sunday 21 June 2020

पिघल जाएँ : विजया



पिघल जाएँ...
++++++
तो
कुछ ऐसा हो गया ना
आज
चाँद ने ढाँप लिया
सूरज को
और मावस की रात हो गयी
दिन में,
नहीं रहना है हमें
तुम और मैं,
भूल कर अपना वजूद
आ जाओ ना
पिघल जाएँ हम
संग संग
पिघल जाती है जैसे परछाईयां
घने अंधेरे में,
फिर बहते हुए जा पहुँचे हम
उस जहाँ को
जो है
सितारों से आगे....

Thursday 18 June 2020

ख़ूबसूरती हमारी उम्र की,,,


ख़ूबसूरती हमारी उम्र की,,,,
#############

बढ़ती है जैसे जैसे
उम्र हमारी,
होती है नुमाया
ख़ूबसूरती इक नई
हमारी जंग और मोरचे की कहानी से,
होती है आश्कार
बालीदगी हमारी
बाहिर के निशानों और टूटन से,,,

मानिंद हैं एक आर्ट पीस के हम
बेशकीमती और अद्भुत,
नहीं है अब हम
मासूम ओ नादान
दुनिया को जानने और समझने में,
बढ़ रहा है मोल हमारा
हर सबक़ के साथ जो
सिखाते हैं लोग हम को,,,

नहीं पाया हमने
हिसाब नौजवानी का
उम्र की रियाज़ी में,
बसता है जमाल बखूबी
देखने वाली नज़र में,
होती है जवानी
एक तर्ज़ दिलो ज़ेहन की,
हुआ नहीं कोई बदलाव
एहसासों के महसूस होने में,,,

कुछ भी कहिए
आ गया है वक़्त अब
करने का अपने मन का
जो भी हो मुनासिब,
जीने का अपनी शर्तों पर
हो कर बेपरवाह
क्या कहेगा कोई,,,

नहीं हैं अब
जकड़ने की कोशिशें
रेत को अपनी मुट्ठी में,
जो रहे क़ायम
एहतिराम उनका
जो फिसल फिसल जाए
अलविदा उनको
नैक ख़्वाहिशात के साथ,,,

(नुमाया=स्पष्ट/obvious, आश्कार=स्पष्ट/visible, बालीदगी=विकास/growth, मुनासिब =उचित,रियाज़ी=गणित,जमाल=सौंदर्य,
तर्ज़=शैली/ढंग,एहतिराम=सम्मान, नैक ख़्वाहिशात=शुभकामनाएँ)

Friday 12 June 2020

सार्थक यात्रा,,,,


सार्थक यात्रा,,,
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सीखा है गिर गिर के
चलना और दौड़ना मैं ने
चोटें खा कर जाना है
सम्भलना मैं ने
अस्तित्व की यात्रा में
घाट घाट का पानी
पीया है मैं ने,
सफल हुआ या असफल
पैमाने ये सापेक्ष दुनिया के
बचकर विवादों से
जाना अजाना
समझ लिया मैं ने,,,

नहीं है क्षुद्र झगड़े अब
मेरे जीवन का एक हिस्सा
प्रलाप होता जो मेरे ख़ातिर
करुं नज़रंदाज़ हर किस्सा
मात पिता स्वजनों से
छोड़ दिया लड़ना मै ने,
नहीं करता संघर्ष अब मैं
लिए लालसा औरों के ध्यान की ,
स्वअधिकारों हेतु नहीं भीड़ता
भीड़ से आग्रह और अज्ञान की
छोड़ दी जद्दोजेहद मैं ने
औरों की अपेक्षा पूर्ण करने की,,,

नहीं करता मैं उठापटक
ख़ुश औरों को रखने की
नहीं करता हूँ क़वायद
पूर्वाग्रह औरों के साबित करने की
सच कहूं दिया है त्याग
बेमानी युद्ध लड़ना मैंने,
बच सकूँ मैं ताकि
वृथा ऊर्जा क्षय करने से
जुट सकूँ ताकि
सार्थक यात्रा देह-दिल-आत्मा से,
मक़ाम हो जिसके
मेरी दृष्टि और मेरे स्वप्न
मेरा चिंतन और मेरा प्रारब्ध
भाव मेरों को मिल पाए
क्या आज यथोचित शब्द ???

पुरुष प्रधानता का पोषण...: विजया



पुरुष प्रधानता का पोषण...
++++++++++++++
क्यों पूछे स्त्री किसी और से
अपने घर का पता
क्या पुरुष भी जानता है
ख़ुद अपने घर का पता ??

एक सा ही होता है एकांत
स्त्री का भी
पुरुष का भी
अपने अपने 'एक' का अंत कर
द्वि एक हो जाते हैं जब
मिट जाती है सारी तलाश
किसी भी पते ठिकाने की...

गवाह है परम्पराएँ पुराण और इतिहास
पहचाना है स्त्री ने सदैव
स्वत: ही अपनी धरा को
समझ पाती है
ज़मीनी हक़ीक़त को वह जितना
समझ पाता है कहाँ कोई पुरुष उतना...

भिन्न है वास्तविक जीवन
कविताओं में प्रयुक्त रूपकों से
देहरी के उस पार और इस पार भी
जीवन ही तो है
स्थापना और निर्वासन
अति भारी अभिव्यक्तियाँ है स्थितियों की
ठहराव और बहाव का सम्मिलित रुप
जीवन ही तो है...

असम्भव है जी पाना पूर्णतः सम्बन्धों को
दे पाते हैं स्वप्न हमारे
एहसास मात्र किसी छद्म पूर्णता का,
आकांक्षायें स्वामित्व की
अपेक्षायें परिभाषित परिपूर्णता की
हेतु है व्याकुलता की,
हो जाते हैं ग्रसित
तीव्र आकुलता से दोनो ही....

गाँठे जहाँ भी हो
करती है उपद्रव निरंतर
नहीं प्रदत है प्रभु से ये
मानव निर्मित है जाने या अनजाने,
काश समझ पाए नर नारी
कर सकता है मुक्त तन मन को
निस्तार इन जटिल ग्रंथियों का...

व्यवहार के संवहन
होते हैं द्विपक्षीय,
होती है शब्दातीत
भाषा स्पंदनों की,
यदि हो
सामर्थ्य आपसी जुड़ाव में
गरिमामय लचीलापन व्यक्तित्वों में
गहनता कृतित्व में,
नहीं रुक पाती है
दीर्घ प्रतीक्षाएँ
सुदीप्त मुख मंडलों पर...

बिना दिनों के अवदान के
वृतुल सृजन एवं वर्धन का
कब हो पाता है पूरा,
बनाया है प्रकृति ने मानव को
रहने को मुक्त भौतिक जड़ से,
जन्म पर करना होता है ना
तभी तो पृथक नाल को...

क्यों बांधा जाय स्त्री पुरुष को
परिभाषाओं और व्याकरण के नियमों में,
दो और दो नहीं होते हैं चार सर्वदा
रिश्तों के अंक गणित में,
नहीं है भूगोल देह स्त्री की
नहीं कर पाता महसूस
निहित प्राण और विविधताओं को कोई यदि
तो दुर्भाग्य है उसका,
जीवन के जैविकी और मनोविज्ञान में
उपलब्ध है उत्तर बिना प्रश्नों के
क्यों बिछाया जाय तब
जाल बौद्धिक जिज्ञासाओं का...

जानने से अधिक महत्वपूर्ण है
अनुभूति सहस्तित्व,
सहनिर्भरता, सहसम्मान की,
बदली परिस्थितियों में
पुरुष प्रधानता के प्रति
वही पुरानी शाब्दिक शिकायतें
दर्शाती है मात्र स्त्री का लाचार सा विद्रोह
करते हुए पुन: पुन: पोषण पुरुष प्रधानता का...

Thursday 11 June 2020

चाहती हूँ मैं स्वयं होना....:विजया



चाहती हूँ मैं स्वयं होना...
++++++++++++
देखा था मैं ने प्रभाव तूफ़ान का
हिल गया था पेड़
कट गयी थी शाख़
सूख गए थे पत्ते
लहलहाने लगा था किंतु फिर से
जड़ से जो नहीं उखड़ा था...
अस्तित्व तो जड़ में है
व्यक्तित्व भी जड़ से हैं
पत्ते और फूल परिणाम है उसके
मात्र दर्शाव है उसके...

मूलतः होते हैं कुछ अन्य
या बना दिए जाते हैं कुछ अन्य
हम सब
और लग जाते हैं जीवनप्रयन्त
अन्य हो कर ही जीने में
चाहती हूँ इसीलिए मैं 'स्वयं' होना
जो समाहित है मेरे सत्व में
जो विद्यमान है मेरे मूल में...

नहीं चाहती कभी भी मैं
विवश होकर
किसी दूसरे के दर्पण का बिम्ब होना
ना होना निश्चितता किसी गणितज्ञ की
ना होना किसी दार्शनिक का संशय
ना होना किसी कवि की कपोल कल्पना
ना होना ऐसा मित्र जो साथ ना दे सके...

चाहती हूँ मैं
होना जो भी मैं हूँ
करते रहना जो भी मैं करना चाहूँ
चाहती हूँ मैं
अपने सही ग़लत, झूठ सच, भले बुरे की
गुत्थियों को स्वयं ही सुलझाना
बिना किसी बाहरी सहायता के...

मैं तो हूँ
एक निराला ओला तूफ़ान का,
एक कारीगर
जो टूटे को जोड़ता है
एक आलिंगक
जो गले लगाता है स्नेहपिपासुओं को
एक उदार शालीन मानवी
जो द्वार खुला रखे अपना हर पल
एक प्रयासक
जो सक्रिय हो कुछ ना कुछ करते रहने में...

आशान्वित हूँ सदा
अच्छी सम्भावनाओं के लिए
लोगों में..घटनाओं में...लेने और देने में,
रचनात्मक हूँ
जिसे गहन प्रेम है सृजन से,
विश्वासी हूँ
नहीं है आध्यत्म में
धर्मांधता,कर्मकांड और रूढ़ियाँ
नहीं है जीवन में
कोई भी स्थानापन्न सहजता का,
चाहती हूँ  मैं 'स्वयं' होना
जो समाहित है मेरे सत्व में
जो विद्यमान है मेरे मूल में....

Tuesday 2 June 2020

दर्पण और झरोखा,,,,

दर्पण और झरोखा,,,,
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चन्द बातें दर्पण की :
************
मिथक ही तो है
कि नहीं बोलता है
झूठ दर्पण,
भ्रम ही तो है कि
जो है उसे वैसा ही
दिखा देता है दर्पण,,,,,

बिम्ब प्रतिबिम्ब
प्रकाश अंधकार
रेखा और कोण का
खेल खेलते खेलते भी
निरीह ही कहलाता है दर्पण,,,,

अवतल उत्तल समतल
कई रूप लिए
बदल कर रूप हमारा भी
दिखा देता है दर्पण,,,,,,

संस्कारो और अनुकूलन का
सरमाया लिए
न जाने क्या क्या लीलाएं
रचा डालता है दर्पण,,,,,

भ्रमित सशंकित आलोचक
मताग्रही सैद्धांतिक हो कर
न्याय या समाधान कुछ भी
नहीं कर पाता है दर्पण,,,,,

बात झरोखे की :
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दिखता है झरोखे से
जस का तस
बिना किसी माध्यम के
बिना किसी अनुकूलन के
जो जैसा है वैसा ही
स्पष्ट दृष्टि से,,,,,,,

चंद बातें आगे की :
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बुनियादी है भेद
दर्पण और झरोखे का
एक में है पक्षपात
दूजे में आज़ाद नज़र
चुनाव करना है हमें
औरों के लिए नहीं
बस अपने स्वयं के लिए,,,,,

आच्छादित है सभी आत्माएं
अपने अपने कर्मों संस्कारों से
जकड़ी हुई हैं वे
जन्मों से संजोये
ऋण बंधनों से,,,,,

बहिरंग से अंतरंग की यात्रा
हुआ करती है
अपनी अपनी,
होते हैं अनगिनत पड़ाव भी
अपने अपने,
बदल सकता है मानव
केवल मात्र स्वयं को,,,,

तो क्या किया जाय :
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क्यों न झाँके और देखें हम
झरोखे से जस का तस
मुक्त रह कर
अपने दर्पण से
उतार दें रंगीन चश्में
देखें हर होनी अनहोनी को
बन कर साक्षी
बिना किसी निर्णयात्मकता@से,,,,

क्यों ना देख पायें हम
होकर परे
तल और आग्रह के प्रभाव से
मेरे और तेरे के भाव विभाव से
दर्पण से नहीं
झरोखे से,,,,,,

@judgmental approach