Monday 30 December 2019

स्वस्थ प्रेम और आसक्त उत्तेजन ,,,,

'स्वस्थ प्रेम' (Healthy Love) और 'आसक्त उत्तेजन' (Addictive Excitement) : चिंतन को खुराक
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हम सब बहुत ही इच्छुक होते हैं 'प्रेम' की खोज के लिए लेकिन 'आसक्त उत्तेजन की लत' छीन लेती है हम से 'खरे प्रेम' को. प्रेम केवल प्रेम होता है और उसे किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं. चूँकि भाषा की सीमाएँ हैं , 'स्वस्थ' विशेषण का अतिरिक्त प्रयोग बस स्पष्टता के लिए किया गया है. 'आसक्त उत्तेजन' के नज़दीकी हैं (पर्याय नहीं) सम्मोह और आसक्ति...जिन्हें भी इस से लगभग समझा जा सकता है.

कुछ दशकों पूर्व शोध के दौरान मेरा यह नोट अंग्रेज़ी में तैय्यार हुआ था. यह उसका हिंदी रूपांतरण है.

मैं कुछ बिंदु  दोनों के अंतर के साझा कर रहा हूँ.

(१) हमारे द्वारा अपने सुरक्षित होने को महसूस कर पाने के बाद 'स्वस्थ प्रेम' उभरता है और विकसित होता है.
'आसक्त उत्तेजन' प्रयास करता है 'प्रेम' से मिलता जुलता  कुछ सृजित करने का यद्यपि हम उसमें भय और असुरक्षा महसूस करते है.

(२)  स्वस्थ प्रेम' आता है जब हम अपने को 'पूरा और तृप्त' महसूस करते है...जब हम प्रेम से लबरेज़ होते हैं.
'आसक्त उत्तेजन' एक  प्रयास होता है  भीतरी खोखलेपन को भरने के क्षणिक एहसास मात्र महसूस करने का.

(३) 'स्वस्थ प्रेम' की शुरुआत होती है 'स्वयं को प्रेम करने' से. 'आसक्त उत्तेजन'  में हम खुद के प्रति प्यार से परे हो जाते हैं और प्यार किसी और 'स्पेसल' में खोजने लगते हैं जिसकी स्पेसीयलिटी अपनी ही मानसिक कल्पना में देखते रहते हैं यथार्थ को दर किनार रख कर.

(४) 'स्वस्थ प्रेम' जब घटित होता है हमारी कथित 'प्रेम तलाश' पूरी हो जाती है
'आसक्त उत्तेजन' में हम हर दम प्रेम प्रेम जपते उसी 'आसक्त उत्तेजन' को ढूँढने में लगे रहते हैं.

(५) 'स्वस्थ प्रेम'  धीमी  गति से विकसित होता है एक पेड़ की तरह. 'आसक्त उत्तेजन' तीव्र गति से बढ़ता है एक जादू की तरह.

(६) 'स्वस्थ प्रेम'  हमें संवेदनशील होने देता है क्योंकि हम भीतर से सुरक्षित महसूस करते हैं....इसकी नींव मज़बूत और स्थिर होती है.
'आसक्त उत्तेजन'  की नींव कमज़ोर और डाँवाडोल होती है...हमें हर समय लगता है कि हम सम्बंध को बचाने और बनाए रखने के लिए सुरक्षा उपाय करें.

(७) 'स्वस्थ प्रेम' पार्टनर के साथ भी और अकेले में भी खिलता रहता है.
'आसक्त उत्तेजन'  को भय रहता है अकेले रहने में...उत्कंठा रहती है हर समय सामने/साथ हो पार्टनर.

(८)  'स्वस्थ प्रेम' का उद्गम प्रत्येक पार्टनर में निहित पुरुष और स्त्री गुणों के संतुलन से होता है.
'आसक्त उत्तेजन' में 'सुपर पुरुष गुण' या 'सुपर स्त्री गुण' की परिकल्पनाओं का आयोजन होता  है और एक दूसरे में उस मिस्सिंग आधे को खोजने का उपक्रम होता है.

(९) 'स्वस्थ प्रेम' हमें प्रोत्साहित करता है यह महसूस करने के लिए कि हम खुद अपनी दुनिया सृजित कर सकते हैं और खुश हो सकते हैं.
'आसक्त उत्तेजन'  में हम किसी का हमारे ऊपर आधिपत्य देखने लगते हैं. हम ऐसा पार्टनर तलाशने में लगे होते हैं जो अपनी ऊर्जा हमें देकर हमें पूरा कर दे.

बहुत झीनी बात : मामला इरादे और उसको लागू करने का है. सहभागिता-सहयोग लाज़िमी : स्वस्थ प्रेम
बौझा बन जाना या बना लेना : आसक्त उत्तेजन.

(१०) 'स्वस्थ प्रेम' शालीन और सुखद.
'आसक्त उत्तेजन' तनावपूर्ण और लड़ाकू.

(११) 'स्वस्थ प्रेम'  हमें हमारे स्वयं होने के लिए प्रोत्साहित करता है......शुरुआत से ही "हम कौन हैं ?" के नज़रिए को ईमानदारी से खोजकर अपनी कमियों के प्रति भी स्पष्ट और स्वीकार को तत्पर.
'आसक्त उत्तेजन' तरह तरह की गोपनीयता और दोहरेपन को प्रोत्साहित करता है. हम इसमें हरदम अच्छे दिखने की कोशिश करते हैं और आकर्षक मुखौटा भी लगा लेते हैं.

(१२)  'स्वस्थ प्रेम'  में हमारे 'स्व सारतत्व' के गहरे आभास की सुध (चेतना/होशमंदी) लगातार सृजित होती है जितना लम्बा हम पात्रों का साथ होता है.
'आसक्त उत्तेजन' में 'स्व सारतत्व' की सुध खोने लगती है जितना लम्बा पात्रों का साथ चलता है.

(यहाँ स्व से अर्थ हमारी रूह और आन्तरिक मौलिकता से है. पार्टनर्स एक सा होना तय कर सकते हैं खुद के लिए/सहज एक जैसे हो जाते है ख़ुशी और आज़ादी के साथ, ना कि किसी भी भावनात्मक दवाब के तहत)

(१३) 'स्वस्थ प्रेम' समय गुज़रने के साथ अधिकाधिक सहज और आसान होता जाता है.
'आसक्त उत्तेजन'  में समय गुज़रने के साथ अधिकाधिक प्रयास रिश्ते में रहने हेतु करना ज़रूरी हो जाता हैं. रोमांटिक छवि को बनाये रखना अति कठिन हो जाता है.

(१४) 'स्वस्थ प्रेम' अधिकाधिक विकसित होता जाता है जैसे जैसे भय के एहसास कम होते रहते है.
'आसक्त उत्तेजन' फैलता है (गहराई और प्रगाढ़ता कम होने से आशय) जैसे जैसे भय के एहसास बढ़ते जाते हैं.

(१५)  'स्वस्थ प्रेम'  संतुष्ट होता है अपने पार्टनर के 'यथारुप' साथ होने से....गुणवत्ता में विकास प्रेम में नैसर्गिक चाहे सप्रयास हो या निष्प्रयास.
'आसक्त उत्तेजन' हमेशा 'और ज़्यादा बेहतर'  के लिए बस देखता रहता है एक तृष्णा के रूप में....नतीजा असंतोष और कूँद फाँद.

(१६)  'स्वस्थ प्रेम' हमारी सुरुचियों को और बढ़ाने में प्रोत्साहित करता है.
'आसक्त उत्तेजन'  हमारी सुरुचियाँ कम करने को मजबूर करता है.

(१७)  'स्वस्थ प्रेम'  इस भरोसे पर आधारित है : हम साथ रहना 'चाहते' हैं.(स्वतंत्र इच्छा)
'आसक्त उत्तेजन'  इस सोच पर आधारित है : हमें साथ रहना ही चाहिए.(compromise/adjustment/mazboori)

(१८)  'स्वस्थ प्रेम' हमें सीखाता है कि हमारी ख़ुशी के कर्ता हम ही हो सकते हैं.
'आसक्त उत्तेजन'  हमें सीखाता है कि दूसरे हमें खुश करेंगे और यह माँग भी करता है कि हमें भी दूसरों को खुश करने का प्रयास करना होगा.

(१९) 'स्वस्थ प्रेम' जीवन में जीवन्त्तता का सृजन करता है.
'आसक्त उत्तेजन' भावुकता भरी नौटंकी का मंचन कराता है.

(२०) 'स्वस्थ प्रेम'  सम्पूर्ण होता है.....यह खुद के बूते पर चल सकता है..पार्टनर्स का आपसी सहयोग 'गहरे प्रगाढ़ साथ' को हासिल करता है.
'आसक्त उत्तेजन' भंगित और अपाहिज होता है...ऐसा साथ बस बैसाखियों का काम करता है और एक बदसूरत निर्भरता की तरफ़ अग्रसर रहता है.

होशमंदी (Awareness), स्पष्टता (Clarity) और स्वीकार्यता (Acceptance) के मंत्र को अपना कर और आपसी समझ का सृजन कर, 'आसक्त उत्तेजन' की तरक़्क़ी 'स्वस्थ प्रेम' के स्तर तक की जा सकती है....सर्वथा सम्भव है यह किंतु देखा गया है कि कई बहाने, असुरक्षा भाव, पूर्वाग्रह और मिथ आड़े आ जाते हैं.

स्वातिजी (Swati Bajpai) एक मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक है उनके विचार इस पोस्ट पर comments में  हैं जिन्हें मैं इस नोट का उपसंहार बना रहा हूँ उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हुआ :

"शुरुआत में लोग जिसे प्रेम कह देते हैं वह 'आकर्षण' होता है हार्मोंस, फेरोमोंस और केमिस्ट्री आधारित.

प्रेम एक रहस्य है......किंतु आपसी सम्मान, परवाह, और आकर्षण की स्वस्थ 'डोज़' मिल कर प्रेम कहे जा सकते हैं."

Sunday 29 December 2019

लोंग रोप.....: विजया


'लोंग रोप'.....
+++++++
विभ्रम था मेरा
सुन कर
'जी' 'हाँ' जी हाँ' 'हाँ जी' 'जी अच्छा' आदि
शब्द हुंकारे के
बहक जाते थे होकर
फूल कर कुप्पा😅...

कितने छलावे
कितने दिखावे
बन गए थे
महज़ 'केस स्टडीज़' तुम्हारी
खोलने परतें मानव मनोविज्ञान की
जीने हेतु तुम्हारे जीवन दर्शन को...

जब जाना पैनी नज़रें
अंतरदृष्टि
और पीने पचाने की
क्षमता तुम्हारी
रह गयी थी आवाक मैं
मुश्किल था सह पाना
कितने रहस्य समाए बैठे हो
तुम खुद में...

अस्तित्व के पास भी होगा
तुम सा 'लोंग रोप'
जो देते रहते हो हंसते हाँसाते
उन लोगों को
जो कभी कुटिलता
कभी मजबूरी
कभी आदतन
आघात पहुँचाते रहते हैं तुम को....

माँग लूँ कई और जनम
तुम्हें पूरा जानने के लिए
तुम छलिये बहुरूपी
ना जाने कितने रूपों में समाये
जीये जा  रहे हो संग मेरे
उसी मासूमियत से
क़ायम है जो
अपने बालपन से...

(यह भी एक केस स्टडी है😀😀)

अपूर्णताओं में सौंदर्यदर्शन....


अपूर्णताओं में सौंदर्यदर्शन,,,
##############
१)
सुनो ! याद है ना उस दिन
'किक्कोमन' सिप करते हुए 
उस 'किन्तसुगी बोव्ल' पर अंकित 
पढ़ा था हम दोनो ने :
"बनायी है कीमिया उसने 
मिलाकर हृदय में संगृहित सारे स्वर्ण जालों को,
और सजाया है  उन समस्त अपूर्णताओं को 
छुपाए रखता था जिनको मैं अखिल संसार से."

कहा था उस दिन मैंने 
समझूँगा अब से 'वाबी साबी' को 
देखूँगा ख़ूबसूरती 
कमियों और अपूर्णताओं में,
कहा था तुम ने,
भूल पाओगे क्या तुम अपने 
'ग्रेसो-रोमन' जुनून को 
मारते हो रोज़ डींगें 
साम्यता, सुडौलता और सम्पूर्णता की,,,

मिले थे युगल द्वय नयन 
अपूर्णता की पूर्णता लिए 
कह दिया था सब अनकहा 
सहज मुस्कान ने
हुए थे फिर से तत्पर 
मिलाने को हाथ एक और बार 
हो गए थे जुदा फिर से 
मिलने को फिर एक बार,,,,,

२)

होती है पूर्णता एक मिथक 
एक सापेक्ष भ्रांति 
जो देती है जन्म 
संतुष्टिजनित निष्क्रियता को 
अहमजनित दर्प को...

असफलताएँ 
अपूर्णता 
अभाव 
सहज किंतु अटल और अनिवार्य हिस्से  
हमारी शख़्सियतों के,,,,

नहीं नकार सकते हम 
रिक्ततायें बना देती है 
हमें विश्वासशून्य और डाँवाडोल
आ जाती है आड़े ये 
कुछ भी अर्थपूर्ण एवं रचनात्मक 
कर पाने की राह में,,,

बदलनी है हमें दृष्टि अपनी 
स्वीकार कर 
सौंदर्य अपूर्णता का 
करना होगा हमें 
सौंदर्यीकरण अधूरेपन का,,,

भरना है हमें इन दरारों को
स्वीकार्यता की चपड़ी से 
सजाना है इन्हें 
गरिमा की अभिन्न परतों से 
आत्मविश्वास की मीनाकारी से
देखेंगे हम 
वह 'किन्तसुग़ी' प्याला फिर एक बार..
उस सुन्दरता में बिम्ब अपना  
करते हुये 'सिप' 
'किक्कोमन' फिर एक बार,,,,,

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Notes :
वाबी साबी : जापान के मनीषियों का एक दर्शन जो अपूर्णता को सहज स्वीकारने और उसमें सौंदर्य देखने का जज़्बा सुझाता है.

किक्कोमन : जापानी रेड वाईन

ग्रीसो रोमन : यूनान और रोम की सभ्यताओं और संस्कृतियां
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Description
In traditional Japanese aesthetics, wabi-sabi (侘寂) is a world view centered on the acceptance of transience and imperfection. The aesthetic is sometimes described as one of beauty that is "imperfect, impermanent, and incomplete".
“Sabi” is translated to “taking pleasure in the imperfect.” The concept of wabi-sabi, is wide and almost impossible to distill in a single post, but caneasily be applied simply to moments of everyday life.
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Greco-Roman : Denotes the cultural effects of Greek and Roman Culture on all walks of life where the craving and emphasis is on perfection.

Thursday 26 December 2019

तुम्हारी रहस्यमयी आँखें,,,,,


तुम्हारी रहस्यमयी आँखें,,,,
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तुम्हारी रहस्यमयी आँखे
ना नीली है
ना ही हरी या ग्रे
हर रंग अधूरा-पूरा
मिली जुली रंगत
अद्वितीय और नित्य नवीन !

कराते है ख़याल मुझ को
ये एक जोड़ा नयन :

गरम मौसम के समंदर का
है जिसमें
गहराई भी, चंचलता भी, विस्तार भी
देते हुए एहसास
शांत शीतलता का,,,,

अडिग सदाहरित पहाड़ के
जैतूनी छोर का
बताता है जो
हर दिन की सुबह और शाम को,,,,

नयी फूटी कोंपलों का
मासूम लालिम हरा रंग जिनका
प्रतीक है नई शुरुआत का,,,

सर्दी की सुबह में जमे पाले का
चूम रखा हो जिसने
किसी जंगली हरे पत्ते को
कहता है जो कहानी
द्वैत के अद्वैत की,,,

पतझड़ के पतों का
होते हैं जो परिपक्व
अपने अपने रंगों में
घटाटोप 'ग्रे' पतझड़ के साथ,,,

बेताब चकोर का
जीता है जो
अपनी आँखों में बसा कर
चमक अपने चाँद की,,,

Tuesday 24 December 2019

दीवाने दीद...

छोटे छोटे एहसास
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पढ़ते हैं अशआर
तेरे दीवान ए दीद के
काफ़ी है
मगर काफ़ी नहीं है,,,

बहुरूपी बहुरंगी,,,,,


बहुरूपी बहुरंगी,,,
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तुम्हारे साथ का प्रत्येक क्षण 
दिखाता है कई रंगों में 
मुझ स्वयं को ,
नहीं है ना सब कुछ एक रंग,
विपुलता है जीवन की 
जगमगाती है जो 
प्रत्येक स्पर्श के साथ,,,

मैं बहुरूपी बहुरंगी 
चाहता हूँ निरंतर 
स्निग्ध साथ तुम्हारा
देख सकूँ ताकि
सौंदर्य जीवन का 
स्पष्टता से 
होकर तुम्हारा आईना,,,

Saturday 21 December 2019

मधु यमिनी रे....


मधु यामिनी रे,,,,,
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विकटोरियन हाउसेज* का चक्कर
घोड़े गाड़ी में लगाते
सुनते हुए दास्ताने महलनुमा घरों की
उस कोचवान युवती से
होकर रोमांचित
रुक गये थे हम दोनों भी एक 'पेलेस' में
जीने को कुछ विगत, आगत और वर्तमान,,,

उस भोर
'बीच' पर चल पड़े थे चार नंगे पाँव हमारे
हवा की लहरियों में
सुना रही थी पवन मतवाली हमारा पसंदीदा गीत
टंका हुआ था चाँद भी ठीक हमारे ऊपर
"हम्म !".......और अनगिनत सितारे भी
शानदार और अथाह...
देखा था एकटक मैंने
उन अनोखी आँखों में
मंत्रमुग्ध कर रहे थे वे दृग द्वय..
रहस्य भरे युगल नयन,
जिन पर बस मरा जा रहा था मैं,,,

दीर्घ साँस ली थी उसने
कर रही थी शायद याद कुछ कुछ वह
"क्या तुमने कभी कल्पना भी की थी
इस तरह हमारे फिर एक बार साथ होने की--
कोई दूसरा जन्म या कोई अन्य ब्रह्मांड ?"
पूछा था उसने एक अलग ही अन्दाज़ में
शांत समंदर को निहारते हुए..
"हम्म !"
और चूम ली थी मैंने होले से
गहराती आँखें उसकी,,,

बिखरी हुई चाँदनी
और बिखरे गेसू उसके
चमकती रेत
आँखों की चमक से मिली
एक दिव्य नज़ारे का एहसास सा
सागर किनारे का सुकून
बाहों में डूबे एक दूजे के....
मेरी शायराना फुसफुसाहट
उसका कभी कभी
केवल एक शब्द बोला जाना
"हम्म !"
फिर से एक गहरा सा तूफ़ानी मौन
क्या कुछ नहीं समाया था उस पल में,
उसके मेरे चुने शंख और सीपियाँ गवाह है उसके,,,

शाम मस्तानी
फ़िज़ा थी दीवानी
चल रहे थे हम हाथों में हाथ लिये
मिल रही थी साँसे निरंतर
हो रहा था बोध एकत्व का,,,,

रिलेक्स हो बैठ जाना
कँवले कबाब...कड़े नट्स
हरी सेव...रेड वाईन
मेरा अंतहीन कहानियाँ सुनाने का उत्साह
सुनना उसका दत्तचित्त होकर शिद्दत से
आँखों से बरसते बेशुमार प्यार
उसका कहते रहना 'हम्म !'

"आज के लिए यहाँ इतना ही.."
कहना उसका कई बार,
बातूनीपन से कहीं ज़्यादा मेरा लालच
खुले आसमान के नीचे
कुदरत के बीच
उसके साथ का लुत्फ़ लेने का,
टाले जा रहा था मैं उठना
उसी से उधार लिया 'हम्म !' कह कर बार बार
और फिर उसका
'कुछ'कहने के लिए 'कुछ और' कहने का अन्दाज़ :
"LV** की पैंटिंग्स की वो नई कोफ़्फ़ी टेबल बुक को देखेंगे क्या ?"

जगा दिये थे सोये हुये सुलगते अरमान
समंदर की नमकीन हवा और हमारे सुरूर ने
कहा नहीं था किसी ने कुछ भी
सिवा एक समवेत 'हम्म' के,
....और लौट चले थे हम दोनों,
कदमों में थी एक अल्हड़ गति
और होठों पर,
" ...........मधु यामिनी रे !"***

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*अमेरिका के 'केप मे' बीच का
**Lorenado Da Vinci जिनकी प्रसिद्ध पेंटिंग है Monalisa
*** टैगोर के एक गीत के शब्द
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Sunday 1 December 2019

शर्मो हया कहां ? : विजया


शर्मो हया कहाँ ?
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वो ही भाषण 
वो ही मोमबतियाँ 
वो ही घड़ियाली आंसू 
अभी ना जाने कितनी 'निर्भयायें' होंगी....
भय के बने रहते निर्भया कहाँ ?

भय हम से कहलाता हैं
हम माँ हैं
हम बहन हैं 
हम बेटी हैं 
हमारे साथ बलात्कार ना करो,
जैसे माँग रहें हैं भीख अपने बचाव की 
स्त्री अस्तित्व के संघर्ष में दया कहाँ ?

संसद तुम्हारा 
विधान सभाएँ तुम्हारी 
क़ानून तुम्हारा 
पुलिस तुम्हारी 
न्यायालय भी पुरुष जजों का 
ऐसे में 'निर्भया एक' के संहारक ज़िंदा है
सजा देने वालों की शर्मो हया कहाँ ?