Tuesday 8 February 2022

ख़ुशी नहीं मंज़िल : विजया

 


ख़ुशी नहीं है मंज़िल...

+++++++++++

नहीं है ख़ुशी 

कोई मंज़िल 

यह तो राह है 

चलते चलते जिस पर 

जीना है 

अपनी मस्ती में हर पल 

बटोरते हुए 

ख़ुशियाँ छोटी छोटी...


आँखों की चमक 

होती नहीं है नतीजा 

किसी बड़े हासिल का,

एक टुकड़ा मिठाई का

हाथ आना 

एक कटी पतंग का 

ठंड में भाप उठती 

गर्म चाय का प्याला 

एक खिला हुआ फूल 

एक मुस्कान किसी की 

भर देते हैं कुदरतन 

ख़ुशी के एहसास से...


ना रूप रंग 

ना धन दौलत 

ना ही ओहदा और नाम 

दे पाते हैं 

लम्बे वक्त तक 

क़ायम रह पाए 

वो ख़ुशी,

होती है यह तो 

लम्हों का गुलदश्ता

हर फूल जिसका 

होता है 

एक गहरा एहसास 

ख़ुशी का...


ख़ुशी है 

मौज़ू रूह का 

इज़हार दिल का 

जागना ज़ेहन का 

जिया जाना होश में 

बिना किसी कोशिश के 

जब खिल खिल जाए 

हर रौं वजूद की 

हर नफ़्स खुद की...

चमक...

 

चमक,,,

#####

उम्मीदों के शहर में 

बजाते रहे मायूसी का इकतारा 

क्यूँ बिखेरते रहे उदासियाँ 

रेत के ज़र्रों से कहीं ज़ियादह,,,


बरसी थी नेमतें

ना हुए शादमान तुम 

क्या होगा कोई गुनाह 

इस गुनाह से कहीं ज़ियादह,,,


शाज़ोनादिर है 

मिलना उन आँखों का 

होती है जिनमें चमक 

सितारों से कहीं ज़ियादह,,,


रहमत है रब की 

के समाया है इनमें नूरे इलाही 

खिली खिली है ये आँखें 

बहारों से कहीं ज़ियादह,,,

             ~॰~

मायूसी=निराशा, हताशा, उदासी 

ज़ियादह=अधिक(ज़ियादह मूलतः अरबी शब्द है) 

ज़र्रा=कण, नेमतें=प्रभु के उपहार 

शादमान=हर्षित (शादमान मूलतः फ़ारसी शब्द है)

शाज़ोनादिर=दुर्लभ/rare,

प्लेटिनम रिंग...

 

प्लेटिनम रिंग...

#######

प्लेटिनम सोने से बेहतर है ना ? एंगेज्मेंट रिंग को देख कर किसी ने  पूछ लिया था या कहें कि अपनी राय ज़ाहिर कर दी थी.


अक्सर मुस्कुरा देता था वह और सामने वाले को पुख़्ता एहसास हो जाता कि जैसे वह उस से मुत्तफ़िक है. रिंग लूज़ थी, निकल निकल जा रही थी, बार बार ध्यान बंट जाता...काम करते, पढ़ते, खाते, सोते उठते. डेन्सिटी ज़्यादा होने की वजह से मेटल का बौझ ज़्यादा महसूस होता था. इसीलिए तो उसी साइज़ और डिज़ाइन की गोल्ड रिंग से इस रिंग का वजन कोई दो तिहाई  ज़्यादा था. उसने झेला, सम्भाला और आख़िर में उसे तय करना ही पड़ा कि उसकी 'नो अलटरेशन' थ्योरी कामयाब नहीं होगी...कितना ही यूज टू होने की कोशिश करे वह रिंग नहीं हो पा रही थी ठीक से एंगेज उसके साथ.


ज्वेलर के यहाँ गया, उसे कहा कि रिंग को छोटी कर दे. एक्सपर्ट कमेंट थी प्लेटिनम यूनिक मेटल है जनाब उसे काट कर झाला नहीं जा सकेगा सो नए सिरे से रिंग बनानी होगी. नया नाप लिया गया और बोला यह आसान काम नहीं, समय लगेगा कोई तीन सप्ताह. 


बड़ा चैन आ गया था जब से रिंग रिमेकिंग के लिए दी गयी. वह सोचता था तब्दीली में नई होकर आएगी रिंग, बिलकुल उसी की बाएँ हाथ की रिंग फ़िंगर के नाप की. फिर तो हर समय पहन पाएगा उसे २४ गुना ७....बड़े सुकून से.


रिंग हाज़िर थी नई होकर, उँगली में भी फ़िट....मगर टाइट लगने लगी थी. हमेशा की तरह उसने ख़ामी खुद में ही देखी. उँगलियाँ फूली हुई है...ठीक ही तो है....आसानी से पहनी और निकाली जा रही है. जड़े हुए छोटे से डायमंड के साथ कितनी खूबसूरत  लग रही है....ब्ला ब्ला. मगर चैन ओ सुकून कहाँ....उँगली और हाथ बौझ नहीं सम्भाल पा रहे थे इस प्लेटिनम रिंग का. ज्वेलर की राय थी कि महीना बीस दिन पहनिए आदत हो जाएगी, बस वक़्त की बात है.


दो तीन रातें गुज़ारी....कमिटमेंट वाला इंसान था...खुद से वादा किया कि जैसा भी हो आदत डाल लूँगा. मगर हाथ भारी, अजीब सा दर्द, ज़ेहन में तनाव....जिंदी की किसी भी रोज़मर्रा की बात को ठीक से नहीं सम्भाल पा रहा था. जो ख़ुशी उस 'फ़िट-फाट' रिंग को देख कर उसकी डेलिवरी लेते वक्त मिली, वह काफ़ूर होने लगी थी. रिंग की ख़ूबसूरती, क़ीमती होने का एहसास, मेटल की यूनिक प्रापर्टीज़, प्लैटिनम की नुदरत... सब गौण हो गयी थी उसके अपने सुकून के सामने. ना कुछ सोच पा रहा था, ना लिख पा रहा था, ठीक से इंटरैक्ट भी नहीं कर पा रहा था. लगता था उँगली में पड़ी रिंग धीरे धीरे उसकी ज़हनियत और रूहानियत को लील रही है. नफ़्सी तौर पर कमजोर पा रहा था वह खुद को. जब लूज़ थी तब भी हर लम्हे तवज्जो थी रिंग की जानिब और जब टाइट हुई तब भी. जैसे आज़ाब में फँस गया था वह.


नींद नहीं आ रही थी...किताब पढ़ी...फ़ोन पर हर सोसल मीडिया एप की सफ़र कर ली मगर नींद कहाँ. हाथ का बौझ बाजू में महसूस हो रहा था...सिर में धुँध और अब फटा, अब फटा का एहसास. अपने कमिटमेंट और कनविक्शन्स के परे सोचने लगा था वह....यह रिंग उसके लिए माकूल नहीं थी किसी भी नज़रिए से . हिम्मत जुटायी उसने....उतार दी और ज्वेलरी किट में होले से रख दी. उसके लिए कहा जाता है कि वह किसी के साथ कठोर नहीं हो सकता, उसके साथ भी जो उसके साथ कठोर, भारी और दुखदायी क्यों ना हो.


बेड पर आ गया था वो.आँखे मूँद कर सोने की कोशिश कर रहा था. सोच आ रहे थे और जा रहे थे..."मैं दो एक दिन बाद फिर से उस रिंग को पहन लूँगा, सहन करूँगा..मुश्किल है नामुमकिन तो नहीं. चीनी लोगों ने तो टाइट शूज़ पहन कर नस्लों तक की ख़ातिर छोटे पाँव हासिल कर लिए.  कमिटमेंट और कनविक्शन भी कोई चीज़ होती है." 


नींद के आग़ोश में समा गया था वह.

टूटे हैं ख़्वाब : विजया

 

टूटे हैं ख़्वाब...

+++++++

कैसे हैं ये उदासियों के घेरे 

ये ग़म के बादल  घनेरे 

काश हो पाते ये बस 

जोगी वाले चंद फेरे,

समझ लिया था मैने जिसे 

रूह का अबोला इजहार 

था वो जुमलों में लिपटा 

महज़ जिस्म का एक व्यवहार,

बह गयी थी मैं हिस 

जज़्बात के दरिया में 

उतार कर भँवर में मुझ को 

चल दिया था खैवय्या

ना जाने किस नैय्या में,

आज टीस रहे हैं 

ज़ख़्म जो उस ने थे दिये 

टूट गया है प्रेम का धागा 

ना जाने इनको कैसे सिये,

बेजान बुत सी हो गयी हूँ मैं 

ना जाने कब की बिन सोयी हूँ मैं

आँखें सूनी सूनी सी है 

बिन आंसू रातों की रोयी हूँ मैं,

बिछुड़ कर चला गया 

किए थे  जिसने अहद 

ज़िंदगी भर के साथ के 

नाउम्मीदियों में डूबी हूँ मैं

टूटे हैं ख़्वाब 

एक आख़री मुलाक़ात के...

तीरे क़ज़ा...


तीरे कज़ा....

#######

हम खुद ही खुद से ख़फ़ा हो गए 

बाइत्तिला वो हमसे दफ़ा हो गए...


आए थे बनकर नेमत, सजा हो गए

कर के वादे वफ़ा के बेवफ़ा हो गए...


अनकिए गुनाहों की ज़ज़ा हो गए

शिफ़ा हो के आए वो वबा हो गए...


कोसते थे मुससल सहरोशब जिनको 

आज वो ही उनके शुमारे रज़ा हो गए...


महफ़िले चराग हुआ करते थे जिनके 

हर नज़र से हम यारों बदमज़ा हो गए...


चाहा था टूट कर तहे दिल से जिनको 

आज उनके ही हम तीरे क़ज़ा हो गए...


कही थी कई नज़्मो ग़ज़ल जिन पर 

दीवान के वो बिसरे यक सफ़ा हो गए...


***************************************

ज़ज़ा=प्रतिफल, वबा=महामारी, तीरे क़ज़ा=तीर का निशाना मारने का लक्ष्य, रज़ा=इच्छा, मुससल=लगातार, सहरोशब=सुबह शाम 


***************************************

Seraj Bhai, Vijaya, Muditaji, Brajesh Bhai और सभी साथीगण.

इसल्लाह/संशोधन की ज़रूरत है कृपया मदद करें 😊🙏

नहीं हुआ करती देरी : विजया



नहीं हुआ करती देरी....

+++++++++++

होती नहीं है 

उम्र कोई 

सादे सफ़ों के मैदान में 

खेलने की...


यह कोई नाच तो नहीं 

ना ही है मॉडलिंग 

जो कि हो जाओ तुम 

'चुके चूसे से'

साल उन्नीस के होकर...


नहीं हुआ करती 

देरी कोई 

करने को शिरकत 

महफ़िले अदब में...


होते  जाओगे 

बड़े ज्यों ज्यों 

निखरेगी और 

ये कलम तुम्हारी 

बढ़ जाएगी 

समझ जो तुम्हारी...


ग़र लिख पाओगे तुम 

कुछ अहम ओ खूबसूरत 

ताज़ा ओ मानीखेज़

खोज लेगा उसको 

कोई ना कोई 

असल पढ़ने वाला...


खुद ब खुद दुनिया 

बना लेगी जगह 

तुम्हारे लिए 

किताबों की अलमारियों में 

उम्र  के किसी भी

पड़ाव पर...


(नटखट सरदार ख़ुशवंत सिंह जी के लिखे से प्रेरित)

छाक..: विजया

छाक...

++++

(छाक=दोपहर का कलेवा जो खेत में पहुँचाया जाता है)


आबसर (राजस्थान) 1965 :

*********************

धूप बारिश में 

खेतों को तैय्यार करना 

हल जोत कर बुआई

सिंचाई, निराई, गुड़ायी

फसल काटना 

मड़ई, गहाई, छँटाई 

सब में बहता था पसीना उसका 

वही ख़ुशबू करती थी दीवाना मुझ जो 

"छाक" लेकर अपने पावों पर पहुँचती 

खिलाती प्यार से पेड़ की 

घनी छाँव में

रोटी चटनी प्याज़ लस्सी 

घड़े का ठंडा पानी 

दोनों का साथ साथ वहीं 

सुस्ता लेना 

दोनों का एक ही सपना 

बबुआ पढ़े...


बैंगलोर 2001 :

************

कृष्णमूर्ति की कम्पनी 

ना ना सब की 

जो जो वहाँ काम करे..

मैं भी सीख गयी 

कुछ कुछ बोल उनके 

खेत से छोटे नहीं 

वहाँ के आँगन चौबारे 

कहते हैं कोम्पलेक्स 

उनकी भाषा में 

बबुआ और बहु 

उसी तरह मेहनत करते 

वही मेहनत की सुकून भरी थकन 

बस ख़ुशबू पसीने की नहीं 

डीओ की या कोलन की 

मगर वैसी ही 

"छाक"

अभी भी लाती हूँ मारुति एस्टीम पर 

क्यूंकि दोनों को ही 

नहीं है पसंद फ़ूड कोर्ट का खाना 

अम्मा के बनाए 

सैंडविच, पास्ता और कासाडिला

रोटी चटनी प्याज़ और लस्सी भी 

वही ज़ायक़ा 

वही महक 

वही मुस्कान 

वही तसकीन...


(एक सच्चा वाक़या)

हार गया जो : विजया

 

हार गया जो...

++++++++


चढ़ा देती है कितनी परतें 

हर पल जीतने की आकांक्षा 

रत हो जाते हैं दिखाने में स्वयं को 

जो होते नहीं है हम दरअसल...


बन जाता है व्यष्टि का क्षेत्र 

क्रीडाँगन समष्टि का

ले लेता है बुद्धि विलास 

स्थान सहज स्पष्ट दृष्टि का...


कराने लगती है आत्म मुग्धता

ना जाने कितनी कुटिलताएँ

भ्रम स्व-विकास  के 

ले आते हैं अनगिनत जटिलताएँ...


सज जाती है 

बाज़ी शब्दों की 

अधरों की बिसात पर 

हो जाता है तिमिर हावी 

प्रकाश की बरसात पर...


यह मंचन जीत हार का 

नहीं रास आता मुझ को 

हार गया जो खुद ब खुद 

कौन हरा पाता उसको ?

हार के साथ ही जीत है....

 

हार के साथ ही जीत है...

###########

गुज़रते वक़्त के साथ 

बढ़ता गया है माज़ी 

घटता गया है मुस्तकबिल 

ज़ख़्मी हुआ है वक्त 

बंट बंट कर टुकड़ों में...


कहने लगा है वक्त 

इस सच को बार बार,

बाँटा है तुम ने ही 

तीन हिस्सों में मुझको

अपनी सहूलियत की ख़ातिर, 

मैं तो हाल हूँ 

निख़ालिस हाल...


टुक बाज आओ

अपनी फ़ितरत ए तफ़रीक से 

बाँट दिया है कितना कुछ इसने 

भले और बुरे में 

नेकी और बदी में 

गुनाह और सबाब में 

अपने और पराये में 

ख़ुशी और ग़म में...


तोड़ डाला है कितना कुछ 

अधूरे नज़रिए ने,

अता कर दी है 

भागती हुई ज़िंदगी 

बिखरी बिखरी सोचों ने,

दे डाली है सजा 

होड़ में दौड़े जाने की...


सुनो ! ना कोई दुश्मन है 

ना ही कोई मीत है 

देख लो ज़िंदगी की डोर को 

हार के साथ ही तो 

जुड़ी हुई हर जीत है...

कालनामा...

 

काल नामा

######

नहीं होता है काल का 

कोई भी स्वरूप 

दे देते है व्यवहार हेतु 

हम ही तीन रूप...


दिखता है जीवन 

निकलकर विगत से 

वर्तमान से होकर 

आगत को अग्रसर...


कल तक था 

जो भविष्य 

बनकर वही वर्तमान 

हो जाता है परिणीत 

भूतकाल में...


कल था जो बीज 

आज का पेड़ है

कल बनना है उसे 

बीज फिर...


उत्पति है 

बहिर्गमन भूत से,

मृत्यु है 

अस्तित्व भविष्य का,

मध्य में वर्तमान 

जो है यह जीवन...


होने को कालातीत 

अपना लें सजग दृष्टि 

प्राप्त कर स्पष्टता 

अपनायें  स्वीकार्यता...

बसंत का मज़ा ले लो....

 

बसंत का मज़ा ले ले...

###########

लौट कर उदासियों से 

तवस्सुम सजा ले 

बीत गया है पतझड़ 

बसंत का मज़ा ले...


ऐसा कुछ तो नहीं 

जो सब कुछ हर ले 

रुक ना बढ जा आगे 

पुरजोश सफ़र कर ले...


सूरज चंदा पहाड़ नदियाँ 

वन में क़ुदरत को देख ले 

शादमानी में ज़िंदगी है 

खुद की फ़ितरत में देख ले...


अंधेरी सुरंग के पार 

रोशनी की लकीर देख ले 

खोल आँख अपनी 

अनलिखी तहरीर पढ़ ले...

पित्राकुन....


पित्राकुन ... (*)

########

समझो, यदि होने के बाद तो बोध कहाँ  ?

पाओ, यदि पहुँचने के बाद तो पाना कहाँ ?

जानो, यदि देखने के बाद तो ज्ञान कहाँ ?


कर पाओ यदि होने से पहले 

हो जाए अनुभूत यदि क्रिया से पहले 

देखो पल्लवन यदि अंकुरण से पहले 

तो बात बने परे शब्दों के उलझाव से परे...


चलो मुस्कुरा लेते हैं 

आज फिर एक बार 

कहते हुए कि 

शुभ है प्रवेश पित्राकुन में...


देखो,बता रहा है 

*अंद्रेई  बाबा यज्ञाको (**)

जार का हुक्म

जाओ वहाँ,ना जाने कहाँ 

लाओ उसे,ना जाने  किसे  ?


(*)पित्राकुन शब्द को यदि उल्टा पढ़ें तो नकुत्रापि होगा याने कहीं नहीं.


(**) एक लम्बी सी रूसी लोक कथा की Power Lines.


🧲Please do see a beautiful painting in the comments section.