तीरे कज़ा....
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हम खुद ही खुद से ख़फ़ा हो गए
बाइत्तिला वो हमसे दफ़ा हो गए...
आए थे बनकर नेमत, सजा हो गए
कर के वादे वफ़ा के बेवफ़ा हो गए...
अनकिए गुनाहों की ज़ज़ा हो गए
शिफ़ा हो के आए वो वबा हो गए...
कोसते थे मुससल सहरोशब जिनको
आज वो ही उनके शुमारे रज़ा हो गए...
महफ़िले चराग हुआ करते थे जिनके
हर नज़र से हम यारों बदमज़ा हो गए...
चाहा था टूट कर तहे दिल से जिनको
आज उनके ही हम तीरे क़ज़ा हो गए...
कही थी कई नज़्मो ग़ज़ल जिन पर
दीवान के वो बिसरे यक सफ़ा हो गए...
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ज़ज़ा=प्रतिफल, वबा=महामारी, तीरे क़ज़ा=तीर का निशाना मारने का लक्ष्य, रज़ा=इच्छा, मुससल=लगातार, सहरोशब=सुबह शाम
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Seraj Bhai, Vijaya, Muditaji, Brajesh Bhai और सभी साथीगण.
इसल्लाह/संशोधन की ज़रूरत है कृपया मदद करें 😊🙏
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