छाक...
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(छाक=दोपहर का कलेवा जो खेत में पहुँचाया जाता है)
आबसर (राजस्थान) 1965 :
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धूप बारिश में
खेतों को तैय्यार करना
हल जोत कर बुआई
सिंचाई, निराई, गुड़ायी
फसल काटना
मड़ई, गहाई, छँटाई
सब में बहता था पसीना उसका
वही ख़ुशबू करती थी दीवाना मुझ जो
"छाक" लेकर अपने पावों पर पहुँचती
खिलाती प्यार से पेड़ की
घनी छाँव में
रोटी चटनी प्याज़ लस्सी
घड़े का ठंडा पानी
दोनों का साथ साथ वहीं
सुस्ता लेना
दोनों का एक ही सपना
बबुआ पढ़े...
बैंगलोर 2001 :
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कृष्णमूर्ति की कम्पनी
ना ना सब की
जो जो वहाँ काम करे..
मैं भी सीख गयी
कुछ कुछ बोल उनके
खेत से छोटे नहीं
वहाँ के आँगन चौबारे
कहते हैं कोम्पलेक्स
उनकी भाषा में
बबुआ और बहु
उसी तरह मेहनत करते
वही मेहनत की सुकून भरी थकन
बस ख़ुशबू पसीने की नहीं
डीओ की या कोलन की
मगर वैसी ही
"छाक"
अभी भी लाती हूँ मारुति एस्टीम पर
क्यूंकि दोनों को ही
नहीं है पसंद फ़ूड कोर्ट का खाना
अम्मा के बनाए
सैंडविच, पास्ता और कासाडिला
रोटी चटनी प्याज़ और लस्सी भी
वही ज़ायक़ा
वही महक
वही मुस्कान
वही तसकीन...
(एक सच्चा वाक़या)
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