Tuesday 16 April 2019

ऐ मेरे रंगीं हमसफ़र : विजया

थीम सृजन : हमसफ़र
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ऐ मेरे रंगीं हमसफ़र !
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सोलह की कच्ची उम्र में
पूरी दुनिया ही तो आ गिरी थी
राहों में हमारी
बिलकुल ही सामने
हमारे छोटे से क़दमों के....

तुम पंछी नभ के
मैं मानवी धरा की,
तेरे आदर्शों के साथ
मेरे ज़मीनी होने का आलम
लगाने लगा था एक जोड़ बेढ़ब सा,
निष्ठा तुम्हारी वचनों के प्रति
या हमारा निश्छल प्यार
या दोनों ही
कराने लगे थे निर्माण
एक अनबूझभविष्य का
हमारे ही विचलित अस्थिर हाथों से...

चल दिए थे तुम
उस छोटे से क़स्बे को डूबा कर धूल में
छोड़ कर मुझ को अकेला
......और एक दिन बुलाकर मुझे
रख दिया था तुम्ही ने ताज मेरे सिर पर
बना दिया था एक राजा ने
मुझ साधारण को एक रानी....

लिए हाथों में हाथ
हम दो
पूरी दुनियाँ हमारे ख़िलाफ़,
बनाने को कटिबद्ध
हम अपना ही एक नायाब महल,
लड़ी थी लड़ाइयाँ
आसपास से
आपस में भी
मगर जीते थे हर युद्ध में
हम दोनों,
कर पाए थे एक दिन
हम प्रवेश
अपने सपनों के महल में,
चल सके थे आरपार
अपने साम्राज्य में
जी सके थे हम
अपने घर में...

अपनी कहानियाँ कहते हैं वे सब
हम भी तो...
भर गया था महल हमारा
नन्ही राजकुमारी और राजकुमार की
पदध्वनि से
संक्रामक किलकारियीं से
नाभि से उठते ठहाकों से
और
घर कर लिया था ज़िन्दगी में
बहुत कुछ अनात्मिक,अस्तव्यस्त,
अनुपयुक्त,आवांछित  ने भी
क्यों और कैसे संभाल पाए जिसको
नहीं जान पाए हैं हम ख़ुद भी
आज तक...

कितना अद्भुत
सर्वथा विलक्षण और साहसिक है
यह सब होना और होते जाना,
करते रहे है सामना हर बाधा का
मिल कर हम दोनों
कंधे से कंधा जोड़ कर
बहुत कुछ से परे
किंतु अपने गहरे प्यार के साथ
अपनी अर्जित समझ के साथ,
है ना यह जीवन का हसीन सफ़र
जीवन से ही होते हुए
ऐ मेरे रंगीं हमसफ़र !

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