Friday, 26 April 2019

फिर एक बार : विजया


फिर एक बार....
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किया था मैंने प्यार
उदासियों के जज़्बात और
दर्द के एहसासात ले कर,
जानती थी मैं
झूठ था हर एक लफ़्ज़ उसका,
लगता था चाहे सब कुछ सच,
होता था महसूस सब कुछ
बहोत ही ईमानदार,
सुन लिए थे मैंने इसीलिये ही
वो मुलम्मा चढ़े इश्किया इज़हार उसके
जानते बूझते हुए भी कि ज़हर था वो प्यार
हो गयी थी मैं पी पी कर बेसुध
एक बेज़ुबान बेहोशी मे...

आख़िर
क्या है ख़ुमार..... क्या है नशा
ख़ुद को ज़हर से गले तक भर लेने के अलावा ?
मगर मुझे इसकी ख़ुशबू
इसका ज़ायक़ा
इसके तीखेपन का चटकारा
आया था ख़ूब रास,
भर लिया था जाम इसी ख़ातिर मैंने
फिर से ग़म और उदासियों से
और हो गयी थी बेसुध पी कर
और एक बार...

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