Friday 6 March 2015

द्रौपदी : विजया

द्रौपदी
+ + + +
अयोनिजा !
होकर यज्ञसेनी
हुई थी तू अवतरित
हवन की
पवित्र अग्नि से,
तुम्हारे जन्म से
मानो नकार दिया गया था
नारी का
मानव जीवन में
अनिवार्य होना..
तू थी
एक बेटी अवांछित
निमित था
जिसके अविर्भाव का
मात्र पिता की
प्रतिशोध प्रतिज्ञा,
ढोती रही
अपने नाम में
नाम उसका
कहला कर तू
द्रुपद पुत्री द्रौपदी....
योजनगंधा !
सुरभि तुम्हारे नीलपद्म की
दूर दूर तक
अनुभूत
की जाती रही
नहीं लिया गया
किन्तु संज्ञान
तुम्हारी सुगंध का
स्वयं तुम्हारे ही
परिजनों ने,
रह गयी थी तू
होकर
पांचाली पांचाल की ...
छीना गया था
तुम्हारा
पुत्रित्व
पत्नित्व
मातृत्व
स्त्रित्व
और
अस्तित्व
किन्तु बनी रही थी तू
सखी अपने सखा की,
जीते हुए मैत्री को
समाहित थी जिसमें
शक्ति
प्रेम से प्रार्थना तक की..
कृष्णा !
धारण किये
ताम्र वर्ण
आग्नेय चक्षु
मुक्त केशराशि,
किया था
सिद्ध तुम ने
रखती है एक नारी
चिंतन अपना
मस्तिष्क अपना
अस्मिता अपनी...
(अयोनिजा=जिसका जन्म नारी शरीर से नहीं हुआ हो)

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