Saturday 24 November 2018

अँगड़ायी आइने की...


अंगड़ाई आईने की
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दिखाता रहा था
जो जैसा था उसको वैसा ही
सच का मैं पुजारी
रखता था ख़ुद को वैसा ही,
चले आते थे मेरे क़रीब
निहारने वो शोख़ ख़ुद को
देख कर अक्स अपना
किये थे नज़रे सानी ख़ुद को,
ख़ूब सँवारा सजाया था
बनाया था हसीन खुद ने
खुदा भी पूछता था के
इनको बनाया किसने?
खिला देता था संग मेरा
जिस्म ज़ेहन ओ रूह को
ख़ुश होकर तहे दिल से
वारा था मुझ पे ख़ुद को,
यकायक उनके ख़ातिर
अंधा हो गया था ये आईना
शायद उनके क़द से
छोटा पड़ गया था आईना,
चल दिए थे दूर मुझ से
लगे थे जहाँ पे मेले
सोचा किया था मैंने
रह कर निपट अकेले,
ले ली थी उस दिन यारों
मैंने भी एक अँगड़ायी
टूटा था कई टुकड़ों में
मेरी थी अब बन आई,
हर टुकड़े में दिखता था
अक्स जुदा सा अपना
कोई सूरत हक़ीक़त की
कोई चेहरा था मानो सपना,
मैंने भी रुख़ सोचों का
कुछ ऐसा बदल दिया था
जो जैसा दिखना चाहता
उसे वैसा दिखा दिया था,,,,

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