Saturday 24 November 2018

ढलता सूरज और मैं : विजया


ढलता सूरज और मैं....
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जला डाला था
डूबते सूरज की किरणों ने
नीले बादल का टुकड़ा,
एक ऐसी आग जो
गहरी थी
सूर्ख लाल थी
पीली थी
किरिमजी थी...
दहका कर उसको
ढल गया था सूरज,
हो गये थे सुनहरी
वो मटमैले टीले,
चल गया था रंगों का जादू
सूखी खुरदरी रेत पर,
होने लगी थी सिन्दूरी
हरे हरे पेड़ों की कतारें,
रात के शुरूआती धुंधलके में
हो गयी थी ताम्बई
कच्ची कच्ची कोंपलें,
हो गया था साफ़ शीशे सा
नदी का पानी
जो बहे जा रहा था
राजसी धज से,
लाई थी मैं भगा कर खुद को
बहलाने जरा दिल को
ढूंढने थोडा सा रोमांच,
सोचती हूँ क्या मिला था
मेरे दिल और दिमाग को
मेरे अपने ही रंगों में सुलगती
उस शाम से,
एक पल की रोशनी
प्यास भरी एक छुअन
वासना भरा एक चुम्बन
एहसास को तरसते होठों पर
गहरे प्यार की गर्माहट बिना.....


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