Saturday 24 November 2018

देखता हूँ ऐसा भी....

शब्द सृजन
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(२.११.१८-ज़ुल्फ़)

देखता हूँ कभी कभी ऐसा भी,,,,,,,,,
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तेरी बिखरी बिखरी
घनेरी ज़ुल्फ़ों की
कोमलता का क़ायल
मैं देख लेता हूँ
कभी कभी
ऐसा भी,,,,
बिखराती हो
जब भी
तुम अपने बालों को
याद आता है
तांडव काली का,
पाता हूँ शिव ख़ुद को
क़दमों तले तुम्हारे,,,
दहला देती है
घनघोर घटाएँ
ज़ुल्फ़ों की तेरी
मेरे कायर दिल को
जो जीता है
इस डर को लिए
खो ना दूँ तुम को,
जब जब बिजली सी
गरज के साथ
बरसती है तुम्हारी आँखें,,,,
बिखरे केशों के बीच
लाल बिंदी ललाट पर सजाए
तुम्हारा तेजोमय रूप
लाल पाहाड़ की
ताँत की साड़ी में
क़रीने से लिपटी
तेरी काया
तेरे बेशर्त प्यार का
सरमाया
देता है मुझे भरोसा
सबल है मेरा साथी
मुझ जैसा ही,
थाम कर हाथ
एक दूजे का
कर लेंगे हम सामना
ज़िंदगी की
हर मुश्किल का,,,,
देखता हूँ
जब जब उस ज़ुल्फ़ को
अपने हाथ में
नज़र आती है
बिफरे हुए गजेंद्र की
ज़ंजीर सी
साध पता हूँ जिसे मैं
बन कर महावत
अनूठा सा,
अनुपम है ना अपना
इंकार और इक़रार
तकरार और इसरार
अनुराग और अभिसार
संगीत और सुगंध भरा
यह जीवन्त प्यार,,,,

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