Saturday, 24 November 2018

मृत्युंजय का महानिर्वाण : विजया




मृत्युंजय का महानिर्वाण...
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आहत घायल अंगराज ने
दिया दुर्योधन को अपना अंतिम दान
सखे ! कवच कुंडल दे दिये अन्यों को
तुझ को ही दूँगा
मेरा अनुभूत विचार दान,
युद्ध नहीं है हल समस्या का
राजन. रोक दो विनाशी युद्ध !
कर्ण अधर कम्पित हो
उच्चारित करते थे ये शब्द,
व्यथित था मित्र दुर्योधन
श्रवण चिंतन मनन से
कैसे विस्मृत कर त्याग तुम्हारा
हो जाऊँ भयाक्रांत
अपने ही तुच्छ मरण से,
सोचा था योगेश्वर ने
पूछेगा दुर्योधन
अंतिम इच्छा मित्र की
किंतु था दिशाहीन वह
जैसे छूटी हो धुरी
किसी रथ चक्र की,
देह हो रही थी अचल
लड़खड़ा रहा था
दानवीर का श्वास
उखड़ते साँसों से था स्पंदित
विशाल वक्ष
बची ना कोई क्षीण सी आस,
नैतिक दायित्व
अंतिम वांछा पूछने का
श्री हरि ने अपनाया था
कर्ण कर्ण के सन्निकट हो
वचन आत्मीय पहुँचाया था,
कौन्तेय ! बताओ अपनी
अंतिम इच्छा तुम मुझ को
सुन 'कौन्तेय' शब्द प्रभु मुख से
शांति हुई प्राप्त उसको,
नयनों में तैर रहे थे
दो स्पष्ट स्वच्छ अश्रु बिंदु
दुख,पश्चात्ताप,कृतज्ञता
एवं धन्यता के जैसे गहरे सिंधु,
ऋषिकेश ! करना कुमारी भूमि पर
मेरा अंत्य संस्कार
नहीं चाहता अब किसी भी जन्म में
कोई कुंठा और विकार,
चुनना धरा कुछ ऐसी
जहाँ हुये ना हो प्रष्फुठित तृणअंकुर तक
हो विलीन ये पंचमहाभूत
दुख ना उगे
मुखरित ना हो आर्तस्वर तक,
सूर्य बिम्ब पर केंद्रित नील पुतलियाँ
हीन समस्त आड़ोलन से
मुक्त हुआ था वक्ष लोहत्राण
स्पंदन आंदोलन से,
एक प्रखर ज्योति का
हिरण्यगर्भ में विलय हेतु
दिव्य महाप्रयाण हो गया
कुंती पुत्र महायोद्धा
मृत्युंजय महावीर का
महानिर्वाण हो गया.....

अगला शब्द : स्पंदन

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