Saturday, 24 November 2018

माँ ने दर्पण दिखाया : विजया



[संस्कृत के महान कवि कालिदास के लिए प्रचलित किंवदन्ती को शब्द देने का Semi Free Verse Style प्रयास है, मात्राओं को इग्नोर किया है, छंदात्मकता लय के लिए सहज घटित है.
घटना के सच झूठ होने के पहलू में मेरे अनुसार कल्पना का पलड़ा भारी है किंतु इसका संदेश बेजोड़ है, इसीलिए मैंने इसे रचना का आधार बनाया है ]

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🔺माँ ने दर्पण दिखलाया.....🔺
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चमक उभरे हुये ललाट पर
आँखों में सुरूर था
ज्ञान के उस राजा को
ख़ुद पर बहुत ग़रूर था,
सहज हो नहीं करे वो
किसी से कुछ भी बात
शब्द बाण तीव्र अत्यंत
वचनों के घात-प्रतिघात,
राह भटक गया यात्रा में
कवि अनुपम काली दास
पड़ गया था नितांत अकेला
सता रही थी उसको प्यास,
शीतल नीर पिला दे वृद्धा
ग्रसित मैं जल पिपासा से
पुण्य होगा तुम्हें अतीव
ब्राह्मण की पूरित आशा से,
अवश्य पिलाऊँगी अंबु तुझ को
यदि परिचय अपना दे पाओ
मैं हूँ परम ज्ञानी प्रकाँड
गहन ज्ञान तुम भी पाओ,
'कौन हो तुम ?'
'पथिक हूँ'  अविलंब पिलाओ नीर
इतना तो तुम कर दो नारी
नहीं माँगी मैंने खीर,
पथिक मात्र दो है
एक चंदा दूजा सूरज
चलते है निरंतर दोनों
खोए बिना वे धीरज,
कौन हो तुम इन दोनों में
मुझे तुरंत बताओ
शांत करो जिज्ञासा मेरी
शीतल जल तुम पाओ,
मौन हुआ था ज्ञानी तत्क्षण
झाँक रहा था बग़लें
बता परिचय अपना हे ब्राह्मण !
पानी फिर तू पीले,
'अतिथि हूँ'  जाना है मुझ को
जल तू मुझे पिला दे
धन यौवन बस दो ही अतिथि
'कौन तू'..उत्तर मुझे बता दे ,
फ़िर हुआ था चुप वो पंडित
प्यास से आकुल व्याकुल
पूछा तो बोला 'सहनशील'
विप्र हूँ मैं अति उच्चकुल,
सहनशील धरा फाड़ छाती को
स्थान बीज को देती
अन्न उपजता उस से पंडित
सहन सभी वो करती,
सहनशील है वृक्ष दूसरा
खा पत्थर फल देता
छांव पथिक को देता ठंडी
ऋतु रक्षण वो करता,
'दो में कोई एक' झड़ी प्रश्नो की
तू धरा है या कोई तरुवर
निरुत्तर काली दास के आतुर
'पानी दे' 'दे पानी' ये स्वर,
झल्लाने लगा कालीदास
उतरने लगी थी परतें अनेक
पूछा गया इस बार तो बोला
मै तो हूँ बस 'हठी' ही एक,
नख और केश हठी होते बस
क्या इतना तुम ना जानो
जितना काटें फ़िर बढ़ जाएँ
बात ज़रा तुम मानो,
क्या हो तुम कोई एक
चुन बताओ इन दोनों से
क्रोधित विप्र कहे, 'मूर्ख' मैं
उस शांत स्मित गृहणी से,
मूर्ख भी केवल दो दुनिया में
नृप एवम् बुद्धिजीवी दरबारी
बिना योग्यता बना जो शासक
संग झूठे चमचों की भरमारी,
तर्क अपने लागू कर कर जो
मिथ्या को सत्य बताते
मूर्ख राजन से मूढ़ पाखण्डी
मन चाहा प्रतिफल पाते,
कौन है तू इन दोनों से
अब तो तनिक बता दे
नतमस्तक हो बोला माँ
बस पानी मुझे पिला दे,
चरणों पड़े विप्र को माँ ने
वात्सल्य सहित उठाया
मैं तो हूँ साक्षात सरस्वती
वत्स तू था भरमाया,
शिक्षा से प्राप्त मान को
अपनी उपलब्धि माना
अहंकार में चूर हुआ तू
सत्य ज्ञान ना जाना,
विद्या ददाति विनयम का
सूत्र तुम ने बिसराया
अपने थोथे ढोल पीटकर
पंडित तू इतराया,
होश में तुम को लाने हेतु
स्वाँग था मैंने रचाया
प्यासा था तू केवल प्यासा
परिचय क्यों ना बताया,
याचक विनयी बना विप्रवर
माँ ने नीर पिलाया
खुली आँख के अंधे को
माँ ने दर्पण दिखलाया...

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