Saturday, 24 November 2018

ज़ुल्फ़ : विजया


ज़ुल्फ़
++++
हुआ करती थी
तुम्हारी भी ज़ुल्फ़ें गहरी सी
उस अनूठे मस्तक पर
सजग प्रहरी सी,
उन्नत भाल पर तब भी
विराजती थी यही चमक
स्वरों में होती थी यही गमक,
तुम्हें पाकर क़रीब
होती थी हृदय में यही धक धक
आज तेरा सन्यासी मस्तक
बता रहा है परिचय कौन हो तुम
मेरे बहुत से प्रश्नों पर
क्यों मौन हो तुम,
पागल प्रेमी तुम
आज भी मस्ताने  हो
हर शम्मा ज्यों सोचे
तुम उसके ही बस दीवाने हो
छलिये पर आता है
कभी प्यार कभी दुराव मुझको
लिए जाता है तुम तक सदा
तुम्हारा ही बहाव मुझ को.....

No comments:

Post a Comment