तुम्हीं से शुरू हूँ...
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तुम्हीं से शुरू हूँ
तुम्हीं से हूँ पूरी
तुम बिन ऐ सनम !
मैं कितनी हूँ अधूरी...
सुबह के उजाले हो
धूप तुम दोपहर की
शाम की हो लाली
रौनक़ हर पहर की...
तुम ने ही सीखाया
हर दर्श ज़िंदगी का
सलीक़ा दश्ते इम्काँ का
दवाम बंदगी का.....
मेरी धड़कने तुम्हारी
दिल के काशाना हो
परस्तिश के हो मौज़ू
मेरे काबा ओ बुतख़ाना हो...
एहसास नज़दीकियों का
ना वजूद से जुदा है
बादबान मेरी कश्ती का
तू ही तो नाख़ुदा है...
ना चुरा सकेगा कोई
मेरे प्यार का ख़ज़ाना
करेगा याद आलम
ये लाफ़ानी फसाना....
(दर्श=पाठ/सबक़, दश्ते ईमकाँ=जीवन, दवाम=स्थायित्व/permanence, बन्दगी=उपासना, काशाना=घर, परस्तिश=पूजा,मौज़ू=विषय/subject, क़ाबा/बुतख़ाना=पूजास्थल/मंदिर, बदबान=पाल, नाख़ुदा=नाविक, आलम=संसार, लाफ़ानी=अमर, फसाना=वृतांत)
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