Thursday, 11 September 2014

तस्वीर तेरी फलती है ! (मेहर)

तस्वीर तेरी फलती है ! 
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कैनवास इसी पुरातन प़र 
तिरछी कूची चलती है 
कुछ भी मांडना चाहूँ तो  
तस्वीर तेरी फलती है !

दर्पण कितने लायी चुन कर 
प़र अक्स तेरा ढलता है,
लहरें करवट ले कोई भी ,
चाँद तू ही बनता है, 
पहलू में सोया हो कोई,
रात तेरी ढलती है !

कितनी लाचार मेरी उंगलिया
अभ्यास नया कैसे हो, 
तुलिका का भी दोष नहीं 
सोचे जैसा वैसे हो, 
शक्ल तेरी में कैद है तन मन 
कब मेरी क्या चलती है !

कितनी बार सोचा मैंने था 
दूजा एक चित्र बनाऊं, 
मन के माफिक हो सके जो 
ऐसा  कोई मित्र बनाऊं, 
दीप, तेल, बाती हो कोई
ज्योत तेरी जलती है !

पहले अपनी छवि को अंकवाने 
बहुतेरे इच्छुक आये, 
प़र अब मुझको दीवानी कहकर 
पास ना कोई आये,
इस एक  निंदा में देखो 
निष्ठा मेरी  पलती है !

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