Tuesday 1 October 2019

रहस्यमयता की धुँध : विजया

थीम सृजन : साहिल और समंदर
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रहस्यमयता की धुँध....
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खो गया है सागर
रहस्यमयता की धुँध में
नहीं बताता है अब वो
कुछ भी मुझ को
सीपियों में भी नहीं है
फुसफुसाहटें उसकी
नहीं है कोई प्रतिध्वनियाँ भी
किनारों से,
कैसे करें हम
वाद विवाद पवन से
कैसे करें हम
मोल तोल आकाश से,
क्या हुआ जो
पहाड़ के संग सट कर खड़े हम
देखते हैं ज़िंदगी और मौत को
और करते हैं
आलाप और विलाप भी...

भाग रहा है ना जीवन
काटता है चिकौटी भी
चीख़ता और चिल्लाता भी है
ज़ोरों दरवाजे भी थप-थपाता है
उपद्रव हैं जो नहीं खाते तरस कभी
कष्ट है जो नहीं हो पाते नरम कभी
सब कुछ तो होता रहता है दैंन दिन
कैसे कर पाऊँ नज़रंदाज़
इन सब को....

ऊब रहे होंगे आप
मेरे विराम रहित प्रलाप से
कर रही हूँ ना चुग़लियाँ मैं लगातार
महा सागर की,
मत सोचना
क्यों नहीं करते
लौंग वाली चाय पर
आजकल हम गुटुरगूँ ?
ऐसा नहीं है क़त्तई
कि नहीं पट रही इन दिनों हम में
बहुत कुछ है हमारे पास
एक दूजे को कहने और सुनने को
किंतु ये शब्द हैं ना....
ये तो बने हैं पानी से
और लिखे हुए हैं लहरों पर,
और....लहर का प्रवाह
जब जब होता है निम्न
लगता है ना समंदर है दूर
बहुत दूर
अपने तट से,
मगर हुए हैं क्या अलग कभी
साहिल और समंदर
अटूट है
परस्पर अस्तित्व जिनका....

(धन्यवाद साहेब याने मेरे आत्म सखा और जीवन साथी का जिसके  midas touch से यह रचना इस रूप में मैं प्रस्तुत कर पा रही हूँ. Mystic (रहस्यदर्शी) Mysterious(रहस्यमय)और Mystery (रहस्य/रहस्यमयता) को पल पल जीने के अनुभव और अनुभूतियाँ....परिभाषित जीवन के बीच अपने आप में एक विलक्षणता और विशिष्टता है....मेरी लगभग सभी रचनाओं में अमिट प्रेम के बिम्ब है जिसे पानी से बने शब्द बयान नहीं कर सकते.)

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