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"मैं हूँ कि तुम हो" बड़ी ही प्यारी सूफियाना नज़्म है धर्मराज भाई की, उस पर ये दो Couplets मैं कमेंट्स में extempore लिख पाया.
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तबर्रुक हो मुबारक
जल जल कर बुझने वाले,
हिद्दत भी है यक तजुर्बा
राज ए हसरत छुपाने वाले...
सहारे होते हैं बहाने
होता मतीन वजूद ही किसी का,
भटका कोई छड़ी लेकर
मगर रास्ता था उसी का...
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तबर्रुक=प्रसाद (जैसे मंदिर में मिलता है)
हिद्दत=उग्रता/ ऐंठन/प्रकोप
मतीन=महत्वपूर्ण, गंभीर
नज़्म में भी पहले दो अल्फ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं.
मैं हूँ कि तुम हो
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होके फ़लक सा ओझल
ज़रा सा ये जो नज़र आता हूँ
पत्थर के मानिंद
मैं नहीं हूँ
तुम्हीं हो
रख छोड़ा है अनजाने में तुमने खुदी को
मेरी शक्ल में
कि एक दिन ज़िंदगी के थपेड़ों ठोकरों से लुढ़कते लुढ़कते
तुम्हें किसी अनहुए से हुए सहारे की दरकार होगी
ये जो तुम खूब नज़र आते हो
मौजे हिद्दत के माफ़िक़
मैं ही हूँ जो
मैं सा बुझकर
तुम सा धधक उठा हूँ लेकर हुनर बुझन का
कि एक दिन
चख सकूँ तबर्रुक
तुम होकर भी बुझ चलने का
मैं तुम हूँ मेरी शक्ल में
कि तुम मैं ही हो तुम्हारी शक्ल में
ज़िंदगी का ये राज बयाँ
कर करके भी क्या ख़ाक करिए
कभी ये राज बयाँ हो ही न सका होने का
जो बयाँ हो गया
कहाँ वो राज फिर राज रहा
धर्मराज
02/10/2023
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